“भाकपा (माले) ने चुनाव आयोग को लिखा पत्र!”
नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की दहलीज़ पर, भारत निर्वाचन आयोग (ECI) के एक अप्रत्याशित आदेश ने एक बड़े राजनीतिक विवाद को जन्म दे दिया है। आयोग ने चुनाव से ठीक पहले राज्य की मतदाता सूचियों के “विशेष गहन पुनरीक्षण” का निर्देश दिया है, जिसको लेकर विपक्षी दलों, विशेषकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन, ने लाखों मतदाताओं के मताधिकार से वंचित होने की गंभीर आशंका जताई है। पार्टी महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने इस प्रक्रिया को अव्यावहारिक बताते हुए इसे तत्काल रोकने की मांग की है।
क्या है चुनाव आयोग का “विशेष गहन पुनरीक्षण” अभियान?
यह विवाद चुनाव आयोग के उस फैसले से शुरू हुआ है जिसके तहत बिहार के लगभग 7.8 करोड़ मतदाताओं का घर-घर जाकर सत्यापन किया जाएगा। इस अभियान की सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इसके लिए 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाया जा रहा है, जिसमें करीब 5 करोड़ मतदाता थे। इसका मतलब यह है कि 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल हुए लगभग 2.8 करोड़ लोगों को अपनी पहचान और नागरिकता साबित करने के लिए नए सिरे से कई दस्तावेज़ जमा करने पड़ सकते हैं।
आयोग ने इस पूरी प्रक्रिया को मात्र एक महीने के भीतर पूरा करने का लक्ष्य रखा है। यदि कोई मतदाता निर्धारित समय में आवश्यक दस्तावेज़ जमा नहीं कर पाता है, तो उसका नाम मतदाता सूची से काटा जा सकता है, जिससे वह अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार—वोट देने—से वंचित हो जाएगा।
असम NRC से तुलना और व्यावहारिक चुनौतियाँ
भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को लिखे अपने पत्र में इस अभियान की तुलना असम में हुए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) से की है। उन्होंने तर्क दिया है कि:-
अविश्वसनीय समय-सीमा: असम में 3.3 करोड़ लोगों के NRC सत्यापन में छह साल से अधिक का समय लगा, फिर भी अंतिम सूची पर विवाद कायम है। वहीं, बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाताओं के सत्यापन का काम सिर्फ एक महीने में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है, जो लगभग असंभव लगता है।
प्रतिकूल मौसम और समय: यह अभियान जुलाई-अगस्त के महीने में चलाया जा रहा है, जब बिहार में मानसून अपने चरम पर होता है और ग्रामीण इलाकों में बाढ़ की स्थिति होती है। यह समय खेती-किसानी का भी होता है, जिससे किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए इस प्रक्रिया में शामिल होना बेहद मुश्किल होगा।
प्रवासी मजदूरों की दुविधा: बिहार की एक बड़ी आबादी रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करती है। लाखों प्रवासी मजदूर जो दिल्ली, मुंबई, पंजाब या अन्य शहरों में काम कर रहे हैं, उनके लिए एक महीने के नोटिस पर वापस आकर दस्तावेज़ सत्यापन कराना लगभग नामुमकिन है। यह स्थिति सीधे तौर पर उनके मताधिकार को खतरे में डालती है।
आम आदमी पर क्या होगा असर?
यह अभियान केवल एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह बिहार के हर उस आम नागरिक से जुड़ा है जिसके पास शायद सभी दस्तावेज़ तत्काल उपलब्ध न हों। कल्पना कीजिए उस दिहाड़ी मजदूर की, जो दिन भर की मेहनत के बाद घर लौटता है और उसे पता चलता है कि उसे अपनी 20 साल पुरानी नागरिकता साबित करनी है। या उस महिला की, जिसके दस्तावेज़ शादी के बाद बदल गए हैं और उसे पुराने रिकॉर्ड ढूंढने में मशक्कत करनी पड़ रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इतनी बड़ी कवायद में गलतियों की गुंजाइश भी बहुत ज़्यादा होगी, जिससे कई वास्तविक मतदाताओं के नाम कट सकते हैं और लोकतंत्र की नींव कमजोर हो सकती है।
भाकपा (माले) ने अपनी चिंताओं को स्पष्ट करते हुए पत्र लिख कर चुनाव आयोग से इस “विशेष गहन पुनरीक्षण” अभियान को तत्काल स्थगित करने की मांग की है। पार्टी का कहना है कि मतदाता सूची को अद्यतन करने का नियमित कार्य जारी रहना चाहिए, लेकिन चुनाव से ठीक पहले इस तरह का व्यापक और जटिल अभियान चलाना अनुचित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि यह कदम भारी अव्यवस्था पैदा करेगा और बड़ी संख्या में गरीबों, दलितों और प्रवासी मजदूरों को उनके वोट के अधिकार से वंचित कर देगा।
अब सभी की निगाहें भारत निर्वाचन आयोग पर टिकी हैं। क्या आयोग इन चिंताओं पर ध्यान देगा और अपनी योजना पर पुनर्विचार करेगा? या फिर बिहार एक ऐसे चुनावी दौर से गुज़रेगा, जहाँ लाखों लोगों के सिर पर अपने ही देश में मताधिकार खोने का खतरा मंडरा रहा होगा? यह फैसला न केवल बिहार के भविष्य, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी मील का पत्थर साबित होगा।
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