पटना (पब्लिक फोरम)। एक 11 साल की नन्ही बच्ची के साथ हुए अपराध के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का ताजा फैसला सुनकर हर किसी का दिल दहल गया है। इस फैसले ने न सिर्फ मासूम के साथ हुए अन्याय को उजागर किया, बल्कि देश के कानून और महिलाओं की सुरक्षा पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (AIPWA) ने इस फैसले को स्तब्धकारी और निंदनीय बताया है। आइए, इस मामले की गहराई में जाएं और समझें कि आखिर यह फैसला इतना विवादास्पद क्यों बन गया है।
क्या है यह पूरा मामला?
यह दिल दहला देने वाली घटना एक 11 साल की मासूम बच्ची से जुड़ी है, जिसके साथ दो अपराधियों ने बलात्कार की कोशिश की। आरोपियों ने बच्ची के पायजामे का नारा खोला और उसके शरीर के संवेदनशील अंगों को छुआ। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इसे बलात्कार की कोशिश नहीं माना। कोर्ट का तर्क था कि यह घटना इतनी गंभीर नहीं है कि इसे बलात्कार की श्रेणी में रखा जाए। इस फैसले ने न सिर्फ पीड़िता के परिवार को सदमे में डाल दिया, बल्कि समाज के हर तबके में गुस्सा और निराशा पैदा कर दी।
AIPWA ने उठाई सख्त आवाज
AIPWA की महासचिव मीना तिवारी ने इस फैसले की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा, “यह फैसला न केवल अपराधियों का बचाव करता है, बल्कि बलात्कार और POCSO (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेज) कानून की मूल भावना को भी ठेस पहुंचाता है। कोर्ट का यह कहना कि पायजामे का नारा खोलना और बच्ची के अंगों को छूना बलात्कार की कोशिश नहीं है, बेहद शर्मनाक है।” मीना तिवारी ने आगे कहा कि इस तरह का फैसला POCSO कानून को कमजोर करता है और यौन अपराधियों के हौसले बुलंद करता है।

कानून के खिलाफ कोर्ट का रुख
POCSO कानून बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में साफ कहा है कि किसी बच्चे के शरीर के अंगों को छूना भी यौन हमला माना जाएगा। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न सिर्फ इस कानून की अनदेखी की, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को भी दरकिनार कर दिया। मीना तिवारी ने सवाल उठाया, “जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले उदाहरण होते हैं, तो हाईकोर्ट ने ऐसा विवादित फैसला क्यों दिया?”
पीड़ित पर ही सवाल क्यों?
इस मामले में सबसे दुखद पहलू यह है कि कोर्ट ने अपराध की मंशा को साबित करने का बोझ पीड़ित पक्ष पर डाल दिया। यह बलात्कार कानून के उस सिद्धांत के खिलाफ है, जिसमें अपराधी को अपनी सफाई देनी होती है। एक मासूम बच्ची और उसके परिवार से यह उम्मीद करना कि वे अपराधियों की मंशा साबित करें, कितना अन्यायपूर्ण है? यह फैसला न सिर्फ कानूनी रूप से कमजोर है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।
समाज पर क्या होगा असर?
इस फैसले से एक खतरनाक संदेश जा रहा है। अगर ऐसे अपराधों को हल्के में लिया जाएगा, तो यौन अपराधियों का डर खत्म हो जाएगा। मासूम बच्चों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। AIPWA ने चेतावनी दी है कि यह फैसला समाज में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों को बढ़ावा दे सकता है। एक मां, बहन और बेटी के तौर पर हर भारतीय इस फैसले से आहत महसूस कर रहा है।
भावनाओं के साथ तथ्यों का संतुलन
यह मामला सिर्फ कानूनी दस्तावेजों तक सीमित नहीं है। इसके पीछे एक मासूम बच्ची की जिंदगी, उसका दर्द और उसके परिवार की पीड़ा छिपी है। कोर्ट का यह फैसला उस बच्ची के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। क्या उसे कभी इंसाफ मिलेगा? क्या समाज उसे वह सुरक्षा दे पाएगा, जिसकी उसे जरूरत है? ये सवाल हर संवेदनशील इंसान के मन में उठ रहे हैं।
अब आगे क्या?
AIPWA ने इस फैसले के खिलाफ आवाज बुलंद करने का ऐलान किया है। संगठन ने मांग की है कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाए, ताकि मासूम को न्याय मिल सके और कानून की गरिमा बरकरार रहे। यह सिर्फ एक बच्ची की लड़ाई नहीं, बल्कि हर उस इंसान की लड़ाई है जो अपने बच्चों को सुरक्षित देखना चाहता है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला न सिर्फ कानूनी दृष्टिकोण से विवादास्पद है, बल्कि इंसानियत के नजरिए से भी बेहद दुखद है। एक 11 साल की बच्ची के साथ हुए अपराध को हल्का बताने वाला यह फैसला हर संवेदनशील दिल को झकझोर देता है। अब सवाल यह है कि क्या इस मासूम को इंसाफ मिलेगा? या फिर कानून की कमजोरियां अपराधियों को बचाती रहेंगी? समय और समाज को इसका जवाब देना होगा।
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