मंगलवार, दिसम्बर 3, 2024
होमUncategorisedपांच राज्यों के नतीजे और जनता के लिए आगामी चुनौतियां

पांच राज्यों के नतीजे और जनता के लिए आगामी चुनौतियां

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत हुई है जिसका अंदाजा किसी को नहीं था। एग्जिट पोल में भी जब यह बताया जा रहा था कि आम आदमी पार्टी जीतेगी, तब भी एकतरफा जीत पर हर किसी को विश्वास नहीं था। आम आदमी पार्टी की जीत जितनी आश्चर्यजनक है उतनी ही आश्चर्यजनक चरणजीत सिंह चन्नी की दोनों सीटों से हार और नवजोत सिंह सिद्धू एवं सुखबीर सिंह बादल की हार भी है। लगता है कि पंजाब के मतदाताओं ने कांग्रेस और अकाली दल को पूरी तरह नकार दिया तथा आम आदमी पार्टी से नया पंजाब बनाने की अपेक्षा की है।

उत्तराखंड में भाजपा की जीत तथा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और हरीश रावत की हार भी आश्चर्यजनक है। गोवा और मणिपुर में भाजपा की जीत इतनी आसानी से हो जाएगी यह भी नहीं सोचा गया था। लेकिन इसमें कांग्रेस से दल- बदल कर भाजपा में गए नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है।

उत्तर प्रदेश में जब एग्जिट पोल में तीन एजेंसियों को छोड़कर सभी ने भाजपा की बंपर जीत का दावा किया था, तब तमाम जानकारों ने सर्वे पर तमाम प्रश्न खड़े कर दिए थे। उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों से यह साफ है कि भाजपा, सरकार जरूर बना रही है लेकिन उसकी 51 सीटें कम हो गई है। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने 47 सीटों से लंबी छलांग लगाकर 77 सीटें अधिक हासिल कर ली हैं।

सपा गठबंधन का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हारना किसी के भी गले नहीं उतर रहा है। मैंने उत्तर प्रदेश में 30 जनपदों में 100 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया था। पूरे दौरे के दौरान मुझे कहीं भी भाजपा के पक्ष में लहर या धार्मिक ध्रुवीकरण नहीं दिखलाई पड़ा था। कोई पत्रकार या ऐसा व्यक्ति मुझे नहीं मिला जिसने यह कहा हो कि भाजपा का ध्रुवीकरण का प्रयास सफल हो रहा है, यदि ऐसा होता तो अयोध्या, मथुरा और हिजाब जैसे मुद्दों की चुनाव में गूंज सुनाई देती, जो सुनाई नहीं दी। फिर क्या कारण हो सकता है इस जीत का ?


सपा गठबंधन की हार के कई कारण गिनाए जा रहे हैं। ईवीएम की गड़बड़ी, चुनाव आयोग तथा उत्तर प्रदेश के अफसरों द्वारा भाजपा के एजेंट के तौर पर काम करना, भाजपा का बेतहाशा खर्च करना, लेकिन ये कारण नाकाफी लगते हैं। हिंदुओं के दिमाग में यह विचार स्थापित कर देना कि भाजपा के राज में ही हिंदू सुरक्षित हैं तथा योगी कानून व्यवस्था की स्थिति को दुरुस्त रख सकते हैं तथा गुंडागर्दी पर अंकुश लगा सकते हैं। जिसका तात्पर्य यह है कि मुसलमानों को भयभीत कर रख सकते हैं। यह वही विचार है, जिसके चलते भाजपा ने 2014, 2017 और 2019 में कामयाबी हासिल की थी।

इसमें वह विशेष तौर पर कामयाब इसलिए हो पाई क्योंकि उसने यह विचार (परसेप्शन) मतदाताओं के दिमाग में स्थापित कर दिया कि सपा गठबंधन आया तो पहले की तरह गुंडागर्दी बढ़ेगी। तथ्य यह है कि योगी राज में नेशनल क्राइम ब्यूरो के मुताबिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के खिलाफ अपराधों में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन सपा गठबंधन यह बात मतदाताओं के बीच पहुंचाने में अर्थात योगी के गुंडा राज के खिलाफ परसेप्शन बना पाने में असफल रहा। समाजवादी पार्टी गठबंधन ने ढाई गुना सीटें पाई तथा अब तक के चुनावों में सर्वाधिक डेढ़ गुना वोट हासिल किए हैं, परंतु उसे यह स्वीकार करना चाहिए कि वह अपनी चुनावी घोषणाओं को मतदाताओं तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकी।

ऐसा नहीं है कि घोषणा से कोई लाभ नहीं हुआ। सभी घोषणाओं से चुनावी लाभ मिला विशेष कर ओल्ड पेंशन स्कीम, 300 यूनिट निशुल्क बिजली, 1500 रुपये की समाजवादी पेंशन और 22 लाख युवाओं को नौकरी देने का वादा। परंतु जितना लाभ इन घोषणाओं को मतदाताओं तक पहुंचाने और उनका विश्वास हासिल करने के बाद हो सकता है उसका 10 प्रतिशत भी नहीं हो पाया। भाजपा दूसरी तरफ गोदी मीडिया और सरकारी तंत्र के माध्यम से महिलाओं और गरीबों के बीच एक लाभार्थियों का समूह खड़ा कर उनसे वोट लेने में कामयाब रही।

बहुत सारे लोग यह टिप्पणी कर रहे हैं कि किसान आंदोलन का कोई प्रभाव उत्तर प्रदेश चुनाव में नहीं हुआ लेकिन मैं मानता हूं कि गठबंधन के पक्ष में वातावरण किसान आंदोलन के चलते ही बना। 124 सीटें इसी वातावरण के चलते मिलीं।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह उम्मीद की जा रही थी कि वहां किसान आंदोलन के चलते सपा गठबंधन को एकतरफा वोट पड़ेगा लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो छोड़िए लखीमपुर खीरी में भी भाजपा का जीतना यह बतलाता है कि भाजपा अंडर करेंट के तौर पर ध्रुवीकरण करने में सफल रही। दूसरी तरफ आंदोलनकारी आंदोलन के प्रभाव को वोट में तब्दील करने में नाकामयाब रहे।

जिसका अर्थ यह है कि भाजपा को सजा देने की जो अपील संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा की गई थी, उसका असर तो पड़ा लेकिन असर इतना नहीं था कि उससे भाजपा हार जाती और सपा गठबंधन जीत जाता। पूर्वांचल में सपा गठबंधन के बड़ी संख्या में सीटें हासिल कर लेने से यह पता चलता है कि सपा द्वारा बनाया गया सामाजिक गठबंधन कारगर रहा। अब इसी तरह का गठबंधन पूरे उत्तरप्रदेश में खड़ा करने की जरूरत है, विशेषकर पश्चिम में।

तमाम सारे चैनलों पर यह बहस लगातार चलती रही कि क्या महंगाई, बेरोजगारी, छुट्टा पशु, कोरोना काल में हुई बड़ी संख्या में मौतों का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ा है, यह नतीजा निकालना एकदम गलत होगा। पूर्वांचल में बड़ी संख्या में वोट मिलने का कारण उक्त सभी मुद्दे भी हैं परंतु बाकी सभी सीटों पर इन मुद्दों का उतना असर नहीं हुआ कि भाजपा हार जाती।


हार और जीत को समझने के लिए बसपा द्वारा भाजपा के साथ मिलकर बनाई गई रणनीति का भी अहम योगदान रहा। बसपा ने 122 सीटों पर सपा गठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ मुस्लिम तथा यादव उम्मीदवारों के खिलाफ यादव उम्मीदवार उतारे जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा को 75 सीटों पर बढ़त हासिल हुई। यही बात कांग्रेस के बारे में 10 -15 सीटों को लेकर कही जा सकती है। भले ही उसने भाजपा से मिलकर यह नहीं किया हो, लेकिन असर तो वही पड़ा है। कांग्रेस को 2024 को देखते हुए सपा से गठबंधन करना चाहिए था। लेकिन भाई – बहन जीतने से ज्यादा पार्टी का संगठन बनाने की रणनीति पर काम करते रहे हैं। गठबंधन कैसे होता। कांग्रेस पिछली बार की तरह 120 सीट चाहती थी। जबकि उसे वही सीटें मांगनी थीं जहां वह नंबर एक या दो पर थी।

कुल मिलाकर बड़ी संख्या में सीटें सपा गठबंधन विपक्ष के वोट बंट जाने के कारण हार गया। इस तरफ भाजपा की विपक्ष को बांटने की रणनीति काम आई। विपक्ष एकजुट होता तो उसका असर लोगों पर भी पड़ता। बिहार में जब विधान सभा चुनाव हुए थे तब सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग तेजस्वी को हराने के लिए किया गया, वही वाकया उत्तर प्रदेश में भी दोहराया गया है। तेजस्वी की तरह अखिलेश की सभाओं में भी बड़ी संख्या में लोग आ रहे थे, परंतु वे वोट में तब्दील नहीं हो सके।

सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग की कला में भाजपा महारथ हासिल कर चुकी है। चुनाव नतीजों के माध्यम से यह साफ हो गया है कि सपा गठबंधन को विपक्ष में बैठना होगा। अखिलेश यादव के समक्ष यह एक बड़ा अवसर होगा, जब वे लगातार सड़कों पर संघर्ष कर 2024 के चुनाव के लिए पार्टी को तैयार कर सकते हैं। समाजवादी पार्टी तमाम गठबंधन के असफल प्रयोग पहले भी कर चुकी है, इसके बावजूद उसे 2024 के लिए नया गठबंधन बनाने के लिए तैयार होना पड़ेगा ताकि वह भाजपा का मुकाबला कर सके।

अब समय आ गया है कि देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए तथा चुनाव प्रक्रिया में आम लोगों का विश्वास कायम करने के लिए विपक्षी दल व्यापकतम गठबंधन बनाकर ईवीएम सहित महंगाई, बेरोजगारी, एमएसपी की कानूनी गारन्टी, सम्पूर्ण कर्ज़ा मुक्ति, सभी जरूरतमंद परिवारों को 5 हज़ार की माहवार पेंशन जैसे मुद्दे को लेकर राष्ट्रव्यापी संघर्ष की शुरुआत करें। संयुक्त किसान मोर्चा के 380 दिन के आंदोलन ने इस बात को साबित कर दिया है कि सिर्फ संघर्ष से ही वर्तमान सरकार को झुकाया जा सकता है।
-डॉ. सुनीलम
(डॉ. सुनीलम पूर्व विधायक और समाजवादी नेता हैं।)

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments