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शनिवार, फ़रवरी 22, 2025
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आरएसएस का ‘सच्ची स्वतंत्रता’ का दावा: इतिहास और संविधान के खिलाफ एक वैचारिक चुनौती

भारत की ‘सच्ची स्वतंत्रता’ की खतरनाक आरएसएस कथा

मोहन भागवत के उस बयान में, जिसमें उन्होंने ध्वस्त बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के राज्य प्रायोजित निर्माण को भारत की ‘सच्ची स्वतंत्रता’ का defining moment बताया, यह फिर से स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता पर आरएसएस का दृष्टिकोण भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के वास्तविक इतिहास और आकांक्षाओं के पूरी तरह से विपरीत है। आरएसएस के इतिहास और विचारधारा को देखते हुए, इस संगठन के प्रमुख की ओर से ऐसा बयान आना शायद अप्रत्याशित नहीं है।

लेकिन अब, जब आरएसएस मोदी सरकार के माध्यम से अभूतपूर्व राजनीतिक शक्ति का आनंद ले रहा है, तो गणराज्य की स्थापना की संवैधानिक उद्घोषणा की 75वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर आरएसएस का यह वैचारिक रुख स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत और भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक चरित्र पर एक प्रकार का युद्ध घोषित करता है।

1925 में आरएसएस की स्थापना उस समय हुई थी, जब भारत उपनिवेशी दासता से पूर्ण स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय जागृति और संघर्ष का साक्षी था। स्वतंत्रता आंदोलन की विभिन्न धाराओं के बीच संघर्ष और संगठन के रूपों तथा उपनिवेशोत्तर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरित्र पर बहसें और मतभेद थे। भगत सिंह और उनके साथियों, भारतीय साम्यवादी आंदोलन की पहली पीढ़ी, ने समाजवादी भारत का सपना देखा; साम्यवादी नेतृत्व वाले किसान आंदोलन ने जमींदारी प्रथा के पूर्ण उन्मूलन का झंडा उठाया; अंबेडकर ने जाति उन्मूलन का आह्वान किया, जबकि सुभाष बोस और नेहरू ने नियोजित अर्थव्यवस्था का समर्थन किया।

लेकिन एकमात्र वैचारिक प्रवृत्ति जिसने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के साथ सहयोग किया और साम्प्रदायिक राजनीति का प्रचार और अभ्यास करके उनकी ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति को सशक्त किया, वह हिंदू महासभा और आरएसएस का गठबंधन था, जिसके बाद मुस्लिम लीग भी इसी राह पर चली।

औपनिवेशिक भारत में एक वास्तविक राष्ट्रीय जागृति के लिए न केवल औपनिवेशिक दमन से मुक्ति का दृढ़ प्रयास आवश्यक था, बल्कि धर्म की सीमाओं को पार करने वाली सामाजिक एकता और मानवतावादी सोच की भी आवश्यकता थी, जो ब्राह्मणवाद द्वारा उत्पन्न बाधाओं को अस्वीकार करे।

ब्राह्मणवादी जाति-आधारित असमानता, जिसने बहुजन बहुसंख्यकों को हाशिए पर रखा और महिलाओं को शिक्षा व सार्वजनिक जीवन से दूर रखने के लिए पितृसत्तात्मक बंधनों में जकड़ा, का विरोध भी इस जागृति का हिस्सा था। आरएसएस न केवल इस राष्ट्रवादी और मानवतावादी कसौटी पर खरा नहीं उतरा, बल्कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था से गहराई से जुड़ा हुआ था।

इसका प्रमाण अंबेडकर के उस कदम से मिलता है, जब उन्होंने भारत के आधुनिक संविधान की दिशा में यात्रा की शुरुआत मनुस्मृति की निंदा से की। वहीं, आरएसएस ने मनुस्मृति को अपनाया और अंबेडकर के नेतृत्व में तैयार किए गए संविधान को विदेशी प्रेरित दस्तावेज के रूप में खारिज कर दिया, जिसमें आरआरएस की घोषणा के अनुसार कुछ भी ‘भारतीय’ नहीं था।

आज जब आरएसएस ने राज्य सत्ता में खुद को स्थापित कर लिया है और स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है, भारत के लोगों को इस साजिश को विफल करने के लिए अपनी पूरी ताकत जुटानी होगी।
– दीपांकर भट्टाचार्य
(महासचिव भाकपा माले)

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