कोरबा (पब्लिक फोरम)। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में चिटफंड कंपनियों के पीड़ित निवेशकों और अभिकर्ताओं ने अपनी खून-पसीने की कमाई वापस पाने की जंग तेज कर दी है। बीते मंगलवार को घंटाघर में हुई एक बड़ी बैठक में सैकड़ों लोगों ने एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद की। इस बैठक का मकसद था- उन पैसों को वापस लेने का रास्ता ढूंढना, जो चिटफंड कंपनियों में डूब गए हैं। गरीब किसानों और मध्यम वर्ग के लोगों की जमा पूंजी अब तक लौटाई नहीं गई है, और शासन-प्रशासन के बार-बार पत्र लिखने के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठा।
धोखे का शिकार बने लोग, उम्मीदें टूटीं
चिटफंड कंपनियों ने बड़ी-बड़ी बातों से लोगों को लुभाया। गरीब किसानों ने अपनी मेहनत की कमाई और मध्यम वर्ग ने अपनी बचत इन कंपनियों में लगाई, मगर आज उनकी उम्मीदें टूट चुकी हैं। जिला प्रशासन ने चिटफंड कंपनियों की संपत्ति कुर्क कर नीलाम करने और पैसे लौटाने का वादा किया था, लेकिन यह वादा हवा-हवाई साबित हुआ। धरातल पर कोई कार्रवाई नजर नहीं आई। बैठक में मौजूद लोगों के चेहरों पर गुस्सा और निराशा साफ झलक रही थी। एक पीड़ित निवेशक रामलाल (बदला हुआ नाम) ने कहा, “हमारी जिंदगी की कमाई डूब गई, अब बच्चों की पढ़ाई और घर चलाना मुश्किल हो गया है।”
20 मार्च को विधानसभा घेराव का ऐलान
बैठक में एक बड़ा फैसला लिया गया। पीड़ितों ने तय किया कि 20 मार्च को नया रायपुर के तूता में विधानसभा का घेराव किया जाएगा। इसके लिए कोरबा जिले से भारी संख्या में लोग जुटेंगे। सभी से अपील की गई कि वे अपने रिश्तेदारों, परिचितों के साथ ट्रेन या अन्य साधनों से इस प्रदर्शन में शामिल हों। यह घेराव ‘वर्ड्स एक्ट 2019’ को सख्ती से लागू करने की मांग के लिए होगा, ताकि उनकी गाढ़ी कमाई वापस मिल सके। आयोजकों ने कहा, “यह हमारी आखिरी उम्मीद है। सरकार को हमारी बात सुननी ही होगी।”
प्रशासन की चुप्पी, लोगों का दर्द
कोरबा जिला प्रशासन ने भले ही बड़े-बड़े दावे किए, लेकिन हकीकत में पीड़ितों को सिर्फ आश्वासन मिले। संपत्ति कुर्क करने की प्रक्रिया कागजों तक सीमित रह गई। दूसरी ओर, चिटफंड कंपनियों के मालिक फरार हैं, और गरीब निवेशकों के हाथ खाली हैं। बैठक में शामिल एक अभिकर्ता ने बताया, “हमने लोगों को भरोसा दिलाकर पैसे जमा करवाए थे। अब लोग हमसे ही सवाल करते हैं, लेकिन हम खुद ठगा हुआ महसूस करते हैं।”
एकजुटता की ताकत, भावनाओं का ज्वार
यह बैठक सिर्फ चर्चा का मंच नहीं थी, बल्कि भावनाओं का समंदर थी। माता-पिता अपनी संतानों के भविष्य के लिए रोए, तो बुजुर्ग अपनी जिंदगी भर की कमाई डूबने का दर्द बयां करते दिखे। फिर भी, हार न मानने का जज्बा इनके चेहरों पर साफ दिखा। सभी ने एक सुर में कहा- “हमें हमारा हक चाहिए।” यह आंदोलन अब सिर्फ कोरबा की नहीं, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के चिटफंड पीड़ितों की आवाज बन सकता है।
20 मार्च का दिन कोरबा के इन पीड़ितों के लिए निर्णायक हो सकता है। विधानसभा घेराव से पहले लोग अपनी तैयारियों में जुट गए हैं। यह प्रदर्शन न सिर्फ सरकार के लिए चुनौती है, बल्कि समाज के लिए भी एक सवाल खड़ा करता है- क्या मेहनत की कमाई की रक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ निवेशकों की है? इस सवाल का जवाब शायद आने वाले दिनों में मिले, लेकिन अभी कोरबा के लोग उम्मीद और संघर्ष के रास्ते पर चल पड़े हैं।
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