“1.5 अरब साल पुरानी अरावली बनाम चंद शक्तिशाली लुटेरों की हवस- यह विकास नहीं, प्रकृति के ख़िलाफ़ ‘वॉर क्रिमिनल’ कृत्य है!”
अरावली पर्वत श्रृंखला, जो दुनिया की प्राचीनतम वलित (Fold) पर्वतों में से एक है, आज मानव-जनित हवस के कारण अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। यह पर्वतमाला मात्र भूगोल का हिस्सा नहीं है; यह गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली समेत करोड़ों जिंदगियों के लिए एक जीवनदायिनी तंत्र है। दुखद है कि इस ‘वरदान’ को “चंद ताकतवर मनुष्यों की लॉबी” ने, न्यायिक और प्रशासनिक तंत्र की मिलीभगत से, नेस्तनाबूद करने का खेल खेला है।
पर्यावरणीय और अस्तित्वगत संकट
तथ्य स्पष्ट करते हैं कि अरावली का विनाश इन चारों राज्यों के लिए सामूहिक आत्महत्या से कम नहीं है।
🔹दिल्ली की जीवनरेखा: अरावली पहाड़ियां सदियों से दिल्ली और NCR को राजस्थान से उठने वाली रेतीली गर्म हवाओं, तूफानों और रेगिस्तानीकरण से बचाती आई हैं। कटु सत्य है—जिस दिन यह श्रृंखला पूरी तरह से हटी, दिल्ली में नरक का तांडव होगा और लाखों लोग बूंद-बूंद पानी को तरसेंगे।
🔹जलवायु परिवर्तन: अत्यधिक खनन ने वर्षा चक्र और मानसून पैटर्न को बदल दिया है। इसका परिणाम भयावह है—हरियाणा और पश्चिमी यूपी में सूखा तथा राजस्थान के रेतीले इलाकों में अचानक बाढ़ का हमला।
🔹भूवैज्ञानिक सुरक्षा: अरावली ही दिल्ली-NCR में आने वाले भूकंपों की तीव्रता को रोकने का प्राकृतिक कवच है। इसके विनाश से दिल्ली-NCR का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
प्रकृति का बदला: निष्कर्ष कठोर है— “नेचर किसी भी प्रधानमंत्री, किसी भी राष्ट्राध्यक्ष किसी सुप्रीम कोर्ट को नहीं जानती उसे केवल बदला लेना आता है।” प्राकृतिक संसाधनों की डकैती का यह परिणाम होगा कि यह पीढ़ियों समेत सबको नेस्तनाबूद कर देगी।
विधिक, संवैधानिक और न्यायिक विफलता
अरावली के विनाश में सबसे बड़ी विफलता कानूनी और प्रशासनिक तंत्र की रही है, खासकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के कड़े रुख के बावजूद।
🔹कानूनों की अवहेलना: भू-संरक्षण अधिनियम 1900, वन अधिनियम 1927, वन जीव संरक्षण अधिनियम 1972 और वन संरक्षण अधिनियम 1980 जैसे मजबूत कानून मौजूद हैं। यदि इन्हें ईमानदारी से लागू किया जाए, तो सभी ‘धनपशु’ मटियामेट हो जाएंगे।
🔹सरकारी आदेशों का उल्लंघन: 1992 में पर्यावरण मंत्रालय ने स्पष्ट आदेश दिया था कि समूचे वन क्षेत्र को वन भूमि माना जाएगा और निजी भूमि पर भी वन अधिनियम 1980 लागू होगा, लेकिन इन आदेशों को नेताओं, अधिकारियों और भू-माफिया ने मिलकर ‘लूट’ लिया।
🔹न्यायिक हस्तक्षेप का पतन: 2002 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा खनन पर पाबंदी लगाने के बावजूद, पैसे की हवस ने सरकारी तंत्र को खरीद डाला। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्टों ने भी राजस्थान में अवैध खनन की धड़ल्ले को उजागर किया।

राजनैतिक, औद्योगिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार
अरावली की लूट एक सुनियोजित आपराधिक गठजोड़ को दर्शाती है:-
🔹भू-माफिया का नादिरशाही अंदाज़: सामुदायिक और पंचायती भूमि को ‘धन पशुओं’ और ताकतवर जमीनखोर लुटेरों ने लालच देकर हड़प लिया। यह बड़े-बड़े ‘रंगमहल’ सरीखे फार्म हाउसों के निर्माण में परिणत हुआ।
🔹प्रशासनिक मिलीभगत: वन विभाग, राजस्व विभाग, सिटी टाउन प्लानर, नगर निकाय, पुलिस विभाग और यहाँ तक कि न्यायतंत्र तक भ्रष्टाचार की गंगोत्री ऊपर से प्रवाहित हुई।
🔹मंत्रालयी संशोधन: सबसे भयावह तथ्य यह है कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने स्वयं नियमों में संशोधन कर खनन के पट्टे जारी किए, उन भू-भागों को भी शामिल किया जो पहाड़ियों से सटे थे।
वर्तमान संकट: संरक्षण मानकों से छेड़छाड़
सबसे बड़ी तात्कालिक चिंता अरावली की परिभाषा को बदलने का प्रस्तावित कदम है।
🔹 FOI रिपोर्ट की चेतावनी: फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) की रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के 15 जिलों में अरावली की 12,081 पहाड़ियों में से 90% पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंची हैं।
🔹नए ड्राफ्ट का खतरा: सुप्रीम कोर्ट में पेश ड्राफ्ट के अनुसार, यदि केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली माना गया, तो 90% पहाड़ियां कानूनी रूप से संरक्षण से बाहर हो जाएंगी। यह भू-माफिया को शेष अरावली को कुछ ही सालों में ‘चबा जाने’ का सरकारी लाइसेंस दे देगा।
यह स्थिति दिखाती है कि प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की हवस ने सरकारी संस्थानों और उनकी प्रक्रियाओं को पूरी तरह से विकृत कर दिया है।
अंतिम चेतावनी
अरावली पर्वत श्रृंखला को बचाने का संघर्ष अब सिर्फ पर्यावरणविदों का नहीं, बल्कि करोड़ों नागरिकों के अस्तित्व का संघर्ष है। यदि यह प्राकृतिक संरचना नष्ट हुई, तो किसी को भी (प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या सुप्रीम कोर्ट को भी) प्रकृति के तांडव से बचने का मौका नहीं मिलेगा। इस सामूहिक आत्महत्या की दौड़ को तत्काल रोकना होगा और सभी भ्रष्ट अधिकारियों, राजनेताओं और उद्योगपतियों पर भू-संरक्षण अधिनियम 1900 से लेकर वन संरक्षण अधिनियम 1980 तक के तहत सख्त कार्रवाई करनी होगी।
(आलेख: प्रदीप शुक्ल)





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