दीपोत्सव का दीप — नन्हा, पर निडर। अमावस्या की रात जब एक-एक दीपक जाले पर रखकर जलते हैं, वह सिर्फ़ रोशनी का उत्सव नहीं, बल्की एक प्रतिज्ञा है: अँधेरे से लड़ते रहना। पर आज वही दीप हमें किसी पौराणिक कथा से अधिक, वर्तमान की कड़वी सच्चाई याद दिला रहा है — कि इस देश की जल, जंगल, ज़मीन, हवा और पानी कैसे बड़ी-बड़ी जेबों की दासता में ढलते जा रहे हैं। दीपोत्सव का असली सवाल अब यह है: क्या हम रोशनी की मशाल उठाकर उन लोगों से देश को बचाएंगे जो अँधेरे — यानी लूट, विभाजन, और असमानता — का व्यापार चला रहे हैं?
प्रकृति की चोरी और पूँजीवाद की भूख
आज जो चल रहा है वह अलग किस्म का इतिहास है — जहां प्राकृतिक संसाधन अब ‘सार्वजनिक’ नहीं रहे; वे निजी पूँजी की जागीर बन चुके हैं। जल, जंगल, जमीन, खनिज — सब पर बपौती जमाने का अभियान तेज है। इसके पीछे न केवल मुनाफ़ा है, बल्कि एक राजनीतिक-आर्थिक संरचना भी है जो लोकतंत्र को उपभोग की मशीन में बदल देती है। छोटे किसान, आदिवासी, वंचित समुदाय — वे हैं जिनके सर पर यह लूट सीधे टूटती है। दीपोत्सव पर उनका धन्यवाद करने का सच्चा अर्थ यही है कि हम उनके सहारे बनी इस जमीन को बचाएँ।
युद्ध-उद्योग और वैश्विक नीति का विडम्बन
समाज के ऊपर मंडराता उस भय का बड़ा कारण है — युद्ध की अर्थनीति। हथियारों का कारोबार, संसाधनों पर नियंत्रण और बाजार का विस्तार — ये तीनों योजनाएँ एक दूसरे को पूरा करती हैं। अमेरिका, रूस, चीन, यूरोप के आक्रामक हित गरीबी और विनाश के लिए ईंधन बनते हैं। यूक्रेन, फिलिस्तीन, अफ़ग़ानिस्तान, वियतनाम — यह सूची बताती है कि युद्ध केवल क्षति नहीं, बड़े पैमाने पर बाज़ार है। और जब बड़े पलकों वाली शक्तियाँ “शांति” का नारा देती हैं, तब हमें यह समझना होगा: शांति के बयान और हथियारों की बिक्री दोनों एक ही मुद्रा के दो पहलू हैं।
लोकतंत्र पर आक्रामकता — चुनाव, संवैधानिक संशोधन और मीडिया का चरित्र
देश में लोकतांत्रिक संस्थाएँ—इन्स्टिट्यूशन्स की जो ज़मीन संवैधानिक रखरखाव करती हैं—पर व्यवस्थित दबाव बन चुका है। संवैधानिक मूल्यों में खुरदरापन, स्वतंत्र संस्थाओं की क्षीणता और मीडिया का गिरता चरित्र मिलकर सार्वजनिक विमर्श को कुंद कर रहे हैं। मीडिया की भूमिका आज निर्देशित-प्रचारक बनती जा रही है; खबरें अब केवल वही बिकती हैं जो सत्ता के अनुकूल हों। चुनाव अब सिर्फ़ मतगणना का मैदान नहीं, बल्कि नैरेटिव-निर्माण का युद्ध हैं — जहाँ सूचना की बाज़ारूकरण और ‘पेड प्रोपेगैंडा’ लोकतंत्र के मूल सवालों को दबा देता है।
शहरी-पौरुष vs ग्रामीण-विपन्न — असमानता की खाई
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई केवल आय के आंकड़े नहीं दिखाती; वह रिश्तों, सामाजिक संवेदनाओं और जीवन की गरिमा का भंग भी करती है। शहरों में सुख-सुविधा, ग्रामीणों में वंचना—यह विभाजन न केवल आर्थिक है, बल्कि नैतिक भी। किसानों की स्थिति पर आज जो हमला हो रहा है — बड़े कॉरपोरेट के हितों के लिए भूमि का अधिग्रहण, मंडियों का मर्चेन्टाइजेशन — वह देश की आत्मा को प्रभावित करता है। दीपोत्सव पर किसानों के साथ जुड़ी उत्सवपरकता इसीलिए सचाई का प्रतीक है: खेती और अन्न ही देश की असली रौशनी हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक क्षेत्र का क्षीण होना
शिक्षा को मिथकों के बहकावे में गुम करना, स्वास्थ्य और सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण — ये संकेत हैं कि समाज का पुनर्निर्माण विकृत हो रहा है। जब बुनियादी सार्वजनिक सेवाएँ बाज़ार के इशारे पर चलने लगें, तब असमानता नियोजित होकर बढ़ती है। शिक्षा का कमजोर पड़ना युवा पीढ़ी को दिशाहीन करता है; बेरोज़गारी का उभार वही युवा पीढ़ी अँधेरे में धकेल देता है।
विचारधारा और प्रतिरोध — हिंसा नहीं, संवाद की ज़रूरत
उन कई प्रतिरोध-आंदोलनों को, जो जमीन-वंचना के खिलाफ उठे, हिंसक स्वर लागू कर देना समाधान नहीं। पर यह भी सत्य है कि जब संवाद बंद हो जाता है, न्यायिक उपाय अनुपलब्ध होते हैं, तब लोग किसी भी तीव्र प्रतिक्रिया की ओर झुक सकते हैं। इसलिए यह देवता-कथा नहीं कि केवल परंपरा या राम-कथाओं में आश्रय लिया जाए; आज ज़रूरत है सामूहिक सक्रियता, कानूनी लड़ाई और लोकतांत्रिक विमर्श को मजबूत करने की।
रोशनी की असली अर्थव्यवस्था — संवेदना, वैचारिकता और सामूहिकता
दीपोत्सव का दीप हमें यही सीख देता है: चाहे अँधेरा कितना ही गहरा हो, एक दिया जला कर हम सामूहिक साहस दिखा सकते हैं। यह दीप चिंतन का दीप भी है — वह हमें याद दिलाता है कि देश की रक्षा केवल सेना के काम नहीं; वह हर नागरिक की जिम्मेदारी है जो संवेदना, समानता और न्याय की मशाल थामे।
निश्चित संकल्प — बचाएँ प्रकृति, बचाएँ लोकतंत्र, जगाएँ समुदाय
इस दीपोत्सव पर दो बातें स्पष्ट कर लें —
(1) प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित बुनियादी जीवन रेखा पर कौन कब और किसके लिए अधिकार ठोकता है, इसे लोकतंत्रिक रूप से नियंत्रित करें;
(2) मीडिया, शिक्षा और सार्वजनिक संस्थानों की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी को फिर से बहाल करें ताकि जनता की आवाज़ दबे न।
राहुल गांधी या किसी भी राजनीतिक नेतृत्व की मुहिमें असली तब असर देंगी, जब वे सिर्फ़ नारों पर नहीं, नीतिगत विकल्पों पर भी टिकें। निर्माण का काम शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि सुधार और स्थानीय लोकतंत्र की सशक्तता में निहित है।
अन्त में — दीपोत्सव हमें बतलाता है कि नन्ही रोशनी भी अँधेरे को चीर सकती है, पर उसके लिए हमें मिलकर मशालें जलानी होंगी। बापू, राम, बुद्ध, महावीर, नानक की राह वही सिखाती है: नफ़रत को मोहब्बत से हराओ; अधिकार की रक्षा के लिए संगठित हो; और प्रकृति की दरियादिली को वापस लो।
और यही संदेश लेकर चलिए —
“ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के,
अब अँधेरे जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के।”
(प्रदीप शुक्ल: संपादक मंडल सदस्य, पब्लिक फोरम)










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