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सोमवार, अक्टूबर 27, 2025
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ग्रीन पटाखे का भ्रम: राजनीति, प्रदूषण और हमारी सामूहिक बेपरवाही की काली सच्चाई

बारिश खत्म होते ही जैसे ठंड की हल्की दस्तक शुरू होती है, वैसे ही प्रदूषण का अनचाहा आगमन भी हो जाता है। दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में यह एक स्थायी वार्षिक त्रासदी बन चुकी है। हर साल सरकारें, एजेंसियां और अदालतें सक्रिय दिखती हैं — पर वास्तविकता यह है कि प्रदूषण की जड़ तक पहुँचने की कोई कोशिश नहीं होती। नियम बनते हैं, निर्देश जारी होते हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस होती है — लेकिन सड़कों पर वही धुआँ, वही दमघोंटू हवा, वही आँसू लाने वाली सुबहें लौट आती हैं।

दरअसल यह समस्या इसलिए बनी हुई है क्योंकि नीति-नियंता स्वयं इससे कभी प्रत्यक्ष पीड़ित नहीं होते। उन्हें वातानुकूलित दफ्तरों में बैठना है, सुविधा-संपन्न घरों में रहना है और प्रदूषण-मुक्त पर्यटन स्थलों पर छुट्टियाँ बितानी हैं। बीमार पड़ने पर उनके लिए सात सितारा अस्पताल मौजूद हैं। प्रदूषण की असली कीमत वह आम नागरिक चुका रहा है जो दिन-रात इस ज़हरीली हवा में सांस लेता है, और फिर भी उसे यही बताया जाता है कि सब कुछ “नियंत्रण में” है।

दीपावली और प्रदूषण की राजनीति

इस साल सुप्रीम कोर्ट ने ‘ग्रीन पटाखों’ के सीमित उपयोग की इजाज़त दी है। अदालत ने नीरी (नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा प्रमाणित पटाखों को केवल 18 से 21 अक्टूबर तक जलाने की अनुमति दी है — वो भी सुबह 6 से 8 और शाम 8 से 10 बजे के बीच। आदेश में यह भी कहा गया है कि अगर कोई विक्रेता या निर्माता इसका उल्लंघन करता पाया गया, तो उसके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

सुनने में यह व्यवस्था सख्त और प्रभावी लगती है, पर ज़मीन पर इसका असर लगभग शून्य होता है। दीपावली के हफ्ते भर पहले से ही पटाखे जलने लगते हैं। सोशल मीडिया पर वीडियो भर जाते हैं, और हवा की गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ से ‘गंभीर’ श्रेणी में पहुँच जाती है। निगरानी दल बनते हैं, पर उनका काम या तो कागज पर सीमित रहता है या फिर यह “चेकिंग” भी एक नए भ्रष्टाचार का जरिया बन जाती है।

असल सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट को बार-बार यह अनुमति देने की नौबत क्यों आती है? क्योंकि दीपावली अब सिर्फ रोशनी, रंगोली और मिठास का त्योहार नहीं रह गया, बल्कि धार्मिक पहचान और राजनीतिक प्रतीक में बदल दिया गया है। कुछ सालों से पटाखे जलाने को “हिंदू परंपरा” के रूप में प्रचारित किया गया है। इस कथानक को भाजपा और उसके समर्थक समूहों ने मजबूती से फैलाया कि पटाखों पर रोक ‘धर्म विरोधी’ साजिश है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं, पर अपने ही समर्थकों से यह नहीं कह पाते कि दीपावली को शांति और रोशनी का पर्व बने रहने दें। सच यह है कि अगर वे केवल एक अपील कर दें — “पटाखे न जलाएं, दीये जलाएं” — तो करोड़ों लोग इसे मान भी लेंगे। लेकिन धार्मिक भावनाओं से उपजे असंतोष का डर शायद राजनीति के तराजू पर ज़्यादा भारी पड़ता है।

इसलिए आज भाजपा “पटाखों पर प्रतिबंध” के विरोध में नहीं, बल्कि “ग्रीन पटाखों” की पैरवी में है — यानी प्रतिबंध की भावना को खोखला कर देने वाली ‘हरित’ भाषा में नई राजनीतिक सुविधा।

ग्रीन पटाखे — नाम हरित, काम वही

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ग्रीन पटाखों का मतलब यह नहीं कि वे प्रदूषणरहित हैं। सामान्य पटाखों में बैरियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्युमिनियम और पोटेशियम नाइट्रेट जैसे रसायन होते हैं जो जलने पर जहरीली गैसें छोड़ते हैं। ग्रीन पटाखों में इन्हीं रसायनों की मात्रा कुछ कम कर दी जाती है या उनके स्थान पर अपेक्षाकृत कम हानिकारक यौगिक रखे जाते हैं।

सीएसआईआर और नीरी द्वारा विकसित इन पटाखों को “30 प्रतिशत कम प्रदूषणकारी” बताया गया है। यानी यह विकल्प ‘बेहतर’ जरूर है, लेकिन ‘सुरक्षित’ नहीं। अगर प्रदूषण में 60-70 प्रतिशत तक कमी आती तो उम्मीद बनती, पर 30 प्रतिशत घटाव से हवा की गुणवत्ता में कोई ठोस बदलाव संभव नहीं।

और फिर, आवाज़ का प्रदूषण तो वैसा ही बना रहता है। वैज्ञानिक परीक्षण बताते हैं कि ग्रीन पटाखों का शोर 110 से 125 डेसिबल तक पहुँचता है, जबकि कानूनी सीमा 90 डेसिबल है। यानी बच्चों, बुजुर्गों और हृदय-रोगियों के लिए यह उतना ही हानिकारक है जितना पुराने पटाखे। “ग्रीन” का यह ठप्पा केवल एक मानसिक तसल्ली है — असल में यह वही पुराना ज़हर है, बस पैकिंग बदल दी गई है।

कानून, निगरानी और ज़मीनी विफलता

साल 2018 से लेकर अब तक सुप्रीम कोर्ट कई बार इसी तरह के आदेश दे चुका है। हर बार वही वादे, वही सीमित अवधि, वही निगरानी दल — और हर बार वही परिणाम: बढ़ता प्रदूषण।

असल कठिनाई यह है कि अदालत या सरकारें आदेश तो दे सकती हैं, पर पालन कराने की नीयत और क्षमता प्रशासनिक ढांचे में नहीं है। बाज़ार में ग्रीन पटाखे पहचानना लगभग असंभव है। दुकानदारों के पास प्रमाणपत्र या सीरियल नंबर की जांच का कोई वास्तविक तंत्र नहीं। इसलिए पारंपरिक पटाखों को ‘ग्रीन’ लेबल लगाकर धड़ल्ले से बेचा जाता है। नतीजा — वही जहरीली धूल, वही दमघोंटू हवा।

अंधविश्वास और उदासीनता की मिली-जुली त्रासदी

भारत में प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और राजनीतिक जड़ता का प्रतीक भी बन गया है। दीपावली के नाम पर शोर और धुएं का महिमामंडन, फसलों के नाम पर पराली जलाना, और फिर सांस लेने के लिए ‘एयर प्यूरीफायर’ खरीदना — यह सब हमारी दोहरी मानसिकता का चित्र है।

भारत में प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और राजनीतिक जड़ता का प्रतीक भी बन गया है। दीपावली के नाम पर शोर और धुएं का महिमामंडन, फसलों के नाम पर पराली जलाना, और फिर सांस लेने के लिए ‘एयर प्यूरीफायर’ खरीदना — यह सब हमारी दोहरी मानसिकता का चित्र है।प्रदूषण से लड़ाई कानूनों या अभियानों से नहीं, बल्कि व्यवहार और चेतना के परिवर्तन से लड़ी जा सकती है। लेकिन जब राजनीति स्वयं धर्म और पर्यावरण के बीच की सीमाओं को मिटा दे, तो नागरिक समाज की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।

प्रदूषण से लड़ाई कानूनों या अभियानों से नहीं, बल्कि व्यवहार और चेतना के परिवर्तन से लड़ी जा सकती है। लेकिन जब राजनीति स्वयं धर्म और पर्यावरण के बीच की सीमाओं को मिटा दे, तो नागरिक समाज की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।

सवाल हमारे भीतर का है

हम हर साल वही शिकायत करते हैं — “हवा खराब है”, “सरकार कुछ नहीं कर रही” — लेकिन अपने हिस्से का दीपक जलाने, पेड़ लगाने, और पटाखे न जलाने का निर्णय लेने में हम चूक जाते हैं। प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण केवल सिस्टम नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक उदासीनता है।

ग्रीन पटाखों का विवाद हमें यही सिखाता है कि “हरित” शब्द जोड़ देने से कोई नीति सच में हरित नहीं हो जाती। जब तक राजनीति प्रदूषण को धार्मिक चश्मे से देखना बंद नहीं करेगी, जब तक नागरिक अपनी सुविधा से ऊपर उठकर जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे, तब तक हर साल दीवाली की रोशनी के साथ यह काली धुंध भी लौटती रहेगी।

प्रदूषण का सवाल केवल हवा का नहीं, हमारी सोच का है। अदालतें आदेश देती रहेंगी, वैज्ञानिक सूत्र खोजते रहेंगे, पर अगर समाज स्वयं अपनी सांसों की रक्षा के लिए खड़ा नहीं होगा, तो न “ग्रीन पटाखे” बचाएंगे, न “सुप्रीम कोर्ट”।

आख़िर, दीपावली का असली अर्थ “अंधकार से प्रकाश की ओर” है — न कि “धुएँ से अंधकार की ओर”।
(प्रदीप शुक्ल, संपादकीय सहयोगी, पब्लिक फोरम)

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