मार्च 2025 में महाराष्ट्र के समाजवादी पार्टी विधायक अबू आज़मी के बयान ने औरंगजेब के इतिहास को लेकर पुरानी बहस में नई जान फूंक दी है। अबू आज़मी ने विधानसभा में औरंगजेब की तारीफ करते हुए उसे एक कुशल शासक बताया, जबकि पारंपरिक दृष्टिकोण में उन्हें क्रूर और असहिष्णु के रूप में पेश किया गया है। इस बयान ने न केवल राजनीतिक मैदान में हलचल मचा दी है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी तीखी बहस का दौर शुरू कर दिया है।
विवाद की शुरुआत और राजनीतिक प्रतिक्रिया
अबू आज़मी ने कहा कि इतिहास में औरंगजेब को गलत तरीके से केवल एक क्रूर शासक के रूप में पेश किया गया है। उनके अनुसार,
औरंगजेब की प्रशंसा: उन्होंने दावा किया कि औरंगजेब ने मंदिरों का संरक्षण किया और छत्रपति संभाजी महाराज से लड़ाई प्रशासनिक कारणों से की थी, न कि धार्मिक मतभेद के चलते।
राजनीतिक हलचल: इस बयान के तुरंत बाद महाराष्ट्र विधानसभा में विरोध प्रदर्शन उठे और आज़मी को निलंबित कर दिया गया। कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने भी औरंगजेब का बचाव करते हुए कहा कि वे अखंड भारत के निर्माण के एक महत्वपूर्ण शासक थे।
सोशल मीडिया और बॉलीवुड का प्रभाव
सोशल मीडिया पर यह मुद्दा दो धड़ों में विभाजित हो गया है:
औरंगजेब के आलोचक: कई लोग उन्हें हिंदू-विरोधी शासक मानते हैं जिन्होंने मंदिर तोड़ने, जज़िया लगाने और हिंदुओं पर अत्याचार किए।
औरंगजेब के समर्थक: इनके अनुसार, इतिहास में उनकी छवि को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। समर्थक बताते हैं कि उनके शासनकाल में कुछ मंदिरों का संरक्षण हुआ, हिंदू अधिकारी भी उनके दरबार में शामिल थे और उनका शासन कुशल था।
इस बहस को और हवा देने वाला बॉलीवुड फिल्म “छावा” भी है, जो संभाजी महाराज पर आधारित है और औरंगजेब की नकारात्मक छवि को उजागर करती है। फिल्म के रिलीज के आसपास यह विवाद और भी तेज हो गया है।
राजनीति, वोट बैंक और वर्तमान चुनावी माहौल
औरंगजेब का इतिहास अब केवल अतीत की चर्चा नहीं रह गया, बल्कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा बन चुका है। इसके पीछे कई कारक हैं:
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे मुस्लिम वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए औरंगजेब की सकारात्मक छवि पेश कर रहे हैं।
वहीं बीजेपी और शिवसेना जैसे दल इसे हिंदू भावनाओं को भड़काने का माध्यम मानते हैं। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे ने भी इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया दी है।
हिंदुत्व बनाम सेक्युलरिज्म:
बीजेपी और सहयोगी दल इतिहास को हिंदू-विरोधी शासक के रूप में पेश करके हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूत करना चाहते हैं।
दूसरी ओर, सपा और कांग्रेस इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेक्युलर मूल्यों के संदर्भ में देख रहे हैं।
सोशल मीडिया पर जनता की खुली राय ने इस विवाद को तेजी से फैलाया है। जहां कुछ औरंगजेब को “आतंकी” कह रहे हैं, वहीं कुछ उन्हें “न्यायप्रिय” शासक मानते हैं। यह ध्रुवीकरण राजनीतिक दलों के लिए अपनी-अपनी समर्थक वर्ग को मजबूती देने का एक अवसर बन गया है।
चुनावी माहौल और मीडिया
2025 में विधानसभा और स्थानीय चुनावों की तैयारियों के बीच यह मुद्दा एक भावनात्मक हथियार बनकर उभरा है, जिससे राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं।
औरंगजेब का विवाद आज न केवल इतिहास की पुनर्विचारणा का प्रतीक है, बल्कि यह वर्तमान राजनीति, वोट बैंक की रणनीतियों और सोशल मीडिया के प्रभाव को भी दर्शाता है। ढाई-तीन सौ साल पुराने शासक की छवि को लेकर चल रही यह बहस सत्ता, विचारधारा और मतदाताओं के बीच के संघर्ष का एक जीवंत उदाहरण बन चुकी है। लगता है कि यह विवाद आने वाले दिनों में भी चर्चा का मुख्य बिंदु बना रहेगा क्योंकि यह न केवल इतिहास के पन्नों में, बल्कि वर्तमान के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में भी अपनी गूंज छोड़ रहा है।
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