“दाल देखिए और दाल का पानी देखिए।”
रोटी के साथ दाल मिलना आजकल नसीब की बात हो गई है। आज की ताजा खबर यह है कि बाजार में दाल का संकट गहराने वाला है, क्योंकि सरकारी गोदामों में दाल का भंडार खाली हो चुका है। यह भंडार क्यों खाली है, इस पर बाद में चर्चा करेंगे, लेकिन इसका सीधा मतलब यह है कि गरीबों को अब दाल-रोटी या दाल-भात खाने का सपना छोड़ना पड़ेगा। हां, दाल की जगह नमक से काम चलाया जा सकता है। अधिकांश राज्य सरकारें राशन दुकानों से सस्ता आयोडीन नमक बांट रही हैं और वोटों के बदले नमक का हक अदा कर रही हैं। नमक हलाली शायद इसी को कहते हैं कि दाल की जगह नमक परोसा जाए!
हमारे देश के लोग हर साल लगभग 300 लाख टन दाल का सेवन करते हैं। यह आंकड़ा कितना बड़ा है, इसकी पड़ताल करें तो पता चलता है कि हर व्यक्ति रोजाना लगभग 60 ग्राम दाल खाता है। इतनी दाल! फिर भी शिकायत यह है कि दाल में पानी ज्यादा होता है।
देश की 140 करोड़ की आबादी को दाल सहजता से उपलब्ध कराने के लिए कम से कम 35 लाख टन दाल का बफर स्टॉक होना चाहिए। लेकिन नेफेड और राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता फेडरेशन (एनसीसीसी) के अनुसार, सरकारी गोदामों में केवल 14.5 लाख टन दाल ही बची है, जो न्यूनतम आवश्यकता का महज 40% है। इसमें तुअर दाल 35,000 टन, उड़द 9,000 टन और चना दाल 97,000 टन है, जो लोगों की पसंदीदा दालें हैं। इन दालों की जगह अन्य दालों के इस्तेमाल के बारे में सोचें तो मसूर दाल का स्टॉक भी केवल 5 लाख टन ही बचा है। इसका मतलब यह है कि आप जो भी दाल खाएं, उसमें पानी की मात्रा तिगुनी करनी होगी। फिर जो दाल बनेगी, उसमें दाल के कुछ कतरे ढूंढने की मशक्कत भी करनी पड़ेगी। मुफ्तखोर और आलसी जनता को कुछ काम भी मिल जाएगा। थक-हारकर वह धीरे से सरकार का नमक खाने लगेगी और अगले चुनाव में इस नमक का हक भी अदा करेगी। “नमक-नमक” का यह नमकीन खेल चलता रहेगा, लेकिन कुछ लोगों की थाली में दाल ही दाल होगी और उनकी पांचों उंगलियां डॉलर में डूबी होंगी। आज ऐसे धनपिशाचों की संख्या 85-86 हजार है, तो कल यह 93-94 हजार हो जाएगी। हाल ही में जारी वेल्थ रिपोर्ट का यही आकलन है। करोड़ों की थाली की दाल कुछ हजारों की थाली में समा जाएगी, तो इन हजारों की थाली का नमक करोड़ों की रगों में बहेगा। पूरी दुनिया देखेगी कि दाल और नमक के बंटवारे से हमारे देश में देशभक्ति की कैसी लहर उठती है! जो लोग आर्थिक असमानता का रोना रोते हैं, वे देखेंगे कि इस असमानता से कैसी सांस्कृतिक एकता पैदा होती है। तब उन्हें संस्कृति की ताकत का एहसास होगा और अपने तुच्छ माया-मोह पर पछताएंगे।
लेकिन फिर भी देश की सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने और देशभक्ति की लहरों को देखने के बजाय कुछ सिरफिरे सवाल उठा रहे हैं कि बफर स्टॉक में कमी क्यों है? इसका सीधा कारण यह है कि सरकार को बाजार में दाल नहीं मिल रही। क्यों नहीं मिल रही? क्योंकि किसान सरकार को दाल बेच नहीं रहा। क्यों नहीं बेच रहा? क्योंकि उसे बाजार में घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से ज्यादा कीमत मिल रही है। सरकार ने जिस अरहर की एमएसपी 7,500 रुपये प्रति क्विंटल तय की है, बाजार उसे 10,000 रुपये में खरीद रहा है। क्या यह 10,000 रुपये सी-2 लागत के डेढ़ गुना से अधिक है? नहीं, यह ए-2 एमएसपी से कुछ अधिक तो है ही। फिर इस अधिक कीमत पर खरीद कौन रहा है? जी हां, कॉरपोरेट घराने कोचियों के जरिए खरीद रहे हैं। क्या उन्हें इससे घाटा होगा? नहीं, वे और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए खरीद रहे हैं।
क्या कहा! अधिक कीमत पर खरीदकर वे और ज्यादा मुनाफा कमाएंगे? हां, जब सरकार के पास दाल नहीं होगी, तो अपने निजी स्टॉक के बल पर वे बाजार में दाल का कृत्रिम संकट पैदा करेंगे। इससे दाल की कीमतें बढ़ेंगी, कालाबाजारी होगी और मुनाफे की फसल लहलहाएगी। लेकिन यह गलत है, सरकार को कुछ करना चाहिए न? बिल्कुल सही बात है। सरकार ने घोषणा की है कि वह कुछ लाख टन दाल का आयात करने जा रही है।
लेकिन इतने से आयात से गरीब जनता का क्या होगा? होना क्या है जी, वह दाल देखेगी और दाल का पानी देखेगी। कुपोषित होगी और भूख से मरेगी। गरीब जनता होती ही है भूख से मरने के लिए। फिर चाहे वह आंबेडकर के जनतांत्रिक गणराज्य में मरें या संघ-भाजपा के हिंदू राष्ट्र में, क्या फर्क पड़ता है? उसे तो वोट देकर नमक का हक अदा करना है! लेकिन आप दाल के संकट से पैदा हुई देशभक्ति की लहरों को गिनिए। इस देशभक्ति के लिए दाल का त्याग तो किया ही जा सकता है। इस त्याग से वैश्विक भुखमरी सूचकांक में हम कुछ ऊपर चढ़ जाएंगे, दुनिया में हमारा नाम और रोशन होगा।

लेकिन ऐसी देशभक्ति तो बड़ी खतरनाक है, जो हमारे देश की जनता को ही भूखा मार दे! जी नहीं, हमारी देशभक्ति वैसी ही है, जैसी ट्रंप की। वे अपने देश की सेवा कर रहे हैं, हम ट्रंप की। ट्रंप की सेवा में ही मेवा है। ट्रंप विश्व अधिनायक हैं और हम विश्व गुरु। अंग्रेजों के जमाने से हमारे परम पूज्यों ने यही सिखाया है कि जनता-वनता के चक्कर में समय बर्बाद मत करो, विश्व अधिनायक की वंदना करो और मशरूम-काजू के बने तरमाल उड़ाओ। आप भी समझ जाइए कि हमारा राष्ट्रवाद कितने काम का है। न समझे, तो हमारी ईडी, सीबीआई सब समझा देगी। जेल के पानी में दाल के छिलके ढूंढने पड़ें, तो फिर मत कहना बच्चू!
(व्यंग्य-आलेख : संजय पराते)
(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)
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