शनिवार, जुलाई 27, 2024
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तालिबान से भयभीत एक अफगानी महिला पत्रकार की व्यथा-कथा

दो दिन पहले अफगानिस्तान के उत्तर में स्थित अपना घर और जीवन छोड़कर मुझे तब भागना पड़ा जब तालिबान ने मेरे इस शहर पर कब्जा कर लिया। मैं अभी भी भाग ही रही हूं और मेरे पास ऐसी कोई सुरक्षित जगह नहीं है, जहां पर मैं जा सकूं।

पिछले हफ्ते तक मैं एक पत्रकार थी अब मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती और ना ही यह बता सकती हूं कि मैं कहां हूं या कहां से हूं। कुछ ही दिनों में मेरी जिंदगी तबाह कर दी गई है।

मैं बेहद भयभीत हूं और मुझे नहीं मालूम कि मेरे साथ क्या होने वाला है क्या मैं कभी घर लौट सकूंगी? क्या मैं दोबारा अपने माता-पिता को देख सकूंगी? मैं कहां जाऊंगी? हाईवे दोनों ही दिशाओं में ब्लॉक किया जा चुका है। मैं कैसे जिंदा रह पाऊंगी।

अपने घर और शांत जीवन को छोड़ने का मेरा फैसला कोई योजना बनाकर नहीं लिया गया ऐसा अचानक ही लेना पड़ा। पिछले दिनों मेरा पूरा प्रांत तालिबान के कब्जे में आ गया। हवाई अड्डा और कतिपय पुलिस की जिला कार्यालय ही मात्र वो कुछ जगहें हैं जो अभी भी सरकार के नियंत्रण में बची है। मैं सुरक्षित नहीं हूं क्योंकि मैं 22 साल की युवती हूं और तालिबान लोगों पर दबाव डाल रहा है कि वे अपनी बेटियों को पत्नियों के रूप में उनके लड़ाकों को सौंप दें। मैं इसलिए भी सुरक्षित नहीं हूं क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं और मैं जानती हूं कि तालिबान मेरे और मेरे सहकर्मियों की तलाश में जरूर आएगा।

तालिबान पहले ही उन लोगों की तलाश में निकल पड़ा है जो उसके निशाने पर हैं। सप्ताहांत पर मेरे मैनेजर ने मुझे फोन करके कहा कि मैं किसी अनजान नंबर से आने वाले फोन का जवाब ना दूं उन्होंने कहा कि हमें खास तौर पर महिलाओं को छुप जाना चाहिए और यदि संभव हो तो इस शहर से बच कर निकल जाना चाहिए।

अपना सामान बांधते समय भी गोलियों और राकेटों की आवाजें, लगातार मेरे कानों में पड़ रही थी। हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर इतना नीचे उड़ रहे थे कि वह हमारे सिरों से कुछ ही ऊपर थे। मेरे अंकल ने कहा कि वे सुरक्षित जगह जाने में मेरी मदद कर सकते हैं। अतः मैंने अपना फोन और चादरी (सिर से पांव तक को ढकने वाला अकबानी बुर्का) उठाया और निकल पड़ी। हमारा घर एकदम लड़ाई के मोर्चे की अग्रिम पंक्ति में आ चुका था पर फिर भी मेरे माता-पिता घर छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। जब राकेटों के हमले तेज होने लगे तो उन्होंने मुझसे लगभग मिन्नतें करते हुए कहा कि मैं तुरंत निकल जाऊं। क्योंकि वे समझ रहे थे कि कुछ ही देर में शहर के रास्ते बंद हो जाएंगे इसलिए मैं उन्हें छोड़कर अपने अंकल के साथ वहां से निकल पड़ी। घर से निकलने के बाद मैं उनसे बात भी नहीं कर सकी क्योंकि अब शहर में फोन काम नहीं कर रहे हैं।

घर के बाहर एकदम अराजकता का माहौल था। अपने मोहल्ले में मैं आखरी युवती थी जो भाग निकलने की कोशिश कर रही थी। मैं अपने घर के ऐन बाहर, गली में तालिबान के लड़ाकों को देख सकती थी। वे चारों तरफ थे। ईश्वर का शुक्र है कि मैं चादरी ओढ़े हुई थी। हालांकि मैं फिर भी डर रही थी कि वे कहीं मुझे रोक न लें या पहचान ना लें। मैं चलते समय कांप रही थी पर कोशिश कर रही थी कि मैं डरी हुई बिलकुल न लगूं।

जैसे ही हम निकले, एक राकेट हमारे बिल्कुल बगल में गिरा। मुझे याद है कि चीखते चिल्लाते महिलाएं और बच्चे हर तरफ भाग रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे हम एक नाव में फंसे हुए हैं और हमारे चारों तरफ भीषण तूफान है।

हम बड़ी मुश्किल से अंकल की कार तक पहुंचे और उनके घर की तरफ के लिए चल पड़े जो कि शहर से बाहर करीब आधे घंटे की दूरी पर है। रास्ते में हम तालिबान चेक पॉइंट पर रोके गए। यह मेरे जीवन का सबसे डरावना पल था। मैं चादरी के अंदर थी इसलिए उन्होंने मुझ पर ध्यान नहीं दिया और मेरे अंकल से पूछताछ की कि वे कहां जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम शहर में एक स्वास्थ्य केंद्र गए थे और अब घर वापस जा रहे हैं जब वे उनसे सवाल-जवाब कर रहे थे तब भी राकेट दागे जा रहे थे और चेक पॉइंट के काफी करीब गिर रहे थे। आखिरकार उन्होंने हमें जाने दिया।

जब हम अंकल के गांव पहुंच गए तब भी मैं बहुत सुरक्षित नहीं थी। उनका गांव तालिबान के नियंत्रण में है और गांव के कई परिवार तालिबान से सहानुभूति रखते हैं। हमारे पहुंचने के कुछ ही घंटे बाद पता चला कि कुछ पड़ोसी जान गए हैं कि अंकल ने मुझे यहां छुपाया है। इसलिए हमें निकलना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि तालिबान को पता चल चुका है कि मुझे इस शहर से बाहर ले जाया गया है और अगर मैं उन्हें गांव में मिली तो वे हम सब को मार डालेंगे।

हमने छुपने के लिए एक दूसरी जगह खोजी। यह मेरे एक दूर के रिश्तेदार का घर था हमें घंटों पैदल चलना पड़ा। मैं अभी भी चा द री ओढ़े हुई थी और उन सारी मुख्य सड़कों से बचकर चल रही थी जहां तालिबान हो सकता है।

यह जगह जहां मैं अभी हूं एक प्राचीन ग्रामीण इलाका, जहां कुछ नहीं है। यहां पानी नहीं है। ना ही बिजली है। यहां बमुश्किल कोई फोन का सिग्नल है और मैं पूरी दुनिया से कटी हुई हूं।

ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां जिन्हें मैं जानती हूं वह भी शहर से भाग चुकी है और सुरक्षित जगह की तलाश में हैं। मैं अपने दोस्तों, पड़ोसियों, सहपाठियों अफगानिस्तान की सभी महिलाओं के बारे में सोचना और चिंता करना नहीं छोड़ पा रही हूं।

मीडिया की मेरी सभी महिला सहकर्मी आतंकित हैं। अधिकांश शहर से भागने में सफल रही हैं और प्रांत से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रही हैं। पर हम पूरी तरह से गिरे हुए हैं। हम सब ने ही तालिबान के खिलाफ बोला और अपनी पत्रकारिता के जरिए हमने उनकी नाराजगी मोल ले ली है।

अभी सब कुछ तनावपूर्ण है। मैं यदि कुछ कर सकती हूं तो वह है निरंतर भागना और यह उम्मीद कि प्रांत जल्द ही खुल जाए ताकि मैं प्रांत से बाहर भाग सकूं। मेरे लिए बस दुआ कीजिए।

(समकालीन लोकयुद्ध में छपी यह मर्मस्पर्शी लेख ‘एक अफगानी महिला पत्रकार की व्यथा’ ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई। इसका अंग्रेजी अनुवाद और संपादन गार्जियन के लिए ऋषि कुमार ने किया है। हिंदी अनुवाद इंद्रेश मैखुरी ने किया है।)

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