सोमवार, अक्टूबर 7, 2024
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एक ही सवाल: आदिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं?

आजादी के बाद भारत सरकार ने आदिवासियों के साथ धोखा किया है.

झारखंड : हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से पिछले 21 फरवरी को आयोजित एक कॉन्फ्रेंस जिसका विषय था ‘झारखंड कैसा है और भारत कैसा है?’ को संबोधित करते हुए झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था कि “आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे और न तो हैं इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं है। हमारा सब कुछ अलग है’ उन्होंने आगे कहा था कि ‘हम अलग हैं, इसी वजह से हम आदिवासी में गिने जाते हैं, हम प्रकृति के पूजक हैं।’ हेमंत सोरेन के इस कथन पर काफी प्रतिक्रियाएं हुई खासकर हिंदूवादी संगठनों की प्रतिक्रिया काफी आक्रामक रही। वैसे इस विचार पर सीधे न जाकर “आदिवासी हिंदू क्यों नहीं है?” पर हमने कुछ लोगों की राय ली जिसमें आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ ही कुछ गैर आदिवासी भी शामिल रहे हैं?

पूर्व मंत्री देव कुमार धान कहते हैं कि आदिवासी हिंदू इसलिए नहीं है क्योंकि हिंदुओं में जो वर्ण व्यवस्था है, उसमें आदिवासी कहीं नहीं है। वे आगे बताते हैं कि हिंदुओं के लिए 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बना है जो कि आदिवासियों पर लागू नहीं होता है। वैसे सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी कई बार कहा जा चुका है कि आदिवासी हिंदू नहीं है। दूसरी तरफ आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी रस्मो रिवाज, उनकी संस्कृति, उनका पर्व त्यौहार, पूजा पाठ, पूजा की पद्धति, पूजा स्थल, सब कुछ हिंदुओं से अलग है अतः आदिवासी न तो कभी भी हिंदू थे और ना तो कभी होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है, हमारा सब कुछ अलग है।

आलोका कुजूर का मानना है कि आदिवासी प्रकृति के पूजा होते हैं। कर्मकांड में विश्वास नहीं करते हैं। वे ‘भ्रम’ की नहीं बल्कि ‘सत्य’ की जो प्रकृति में मौजूद है पर विश्वास करते हैं। वह कहती हैं कि आदिवासी रामायण और महाभारत के पक्षधर नहीं है और न ही वे कथित हिंदू धर्म ग्रंथों के पक्षधर हैं। यह दूसरी बात है कि रामायण और महाभारत में कथित तौर पर आदिवासियों का जिक्र है।

यहां भी हम देखते हैं कि महाभारत में एकलव्य का जिक्र है जिसका अंगूठा छल से कटवा दिया गया था। यहां भी हम देखें तो जिन ग्रंथों में सिर कट जाने के बाद फिर जुड़ जाता है। जबकि एकलव्य का अंगूठा। नहीं जुड़ता है। यह फर्क साफ दिखता है। हम देखते हैं कि कुछ लोग संपर्क से इस तरह चीजों में ऊपरी तौर पर शामिल होते हैं लेकिन वह अंदर से बिल्कुल ही आदिवासी हैं। यह तमाम चीजें बताती है कि आदिवासी न तो हिंदू थे, न तो हैं और न ही भविष्य में होंगे।

आदिवासी सेंगेल अभियान (ASA) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सालखन मुर्मू “आदिवासी हिंदू क्यों नहीं है?” के जवाब में कहते हैं क्योंकि आदिवासी मूर्तिपूजक नहीं है। प्रकृति के पूजक हैं। आदिवासी समाज में वर्ण व्यवस्था नहीं है। आदिवासी समाज में सभी बराबर हैं। सभी लोग सब काम कर सकते हैं। समाज में ऊंच-नीच की कोई सोच संस्कार नहीं है। आदिवासी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में पूजा पाठ नहीं करते हैं। उनकी पूजा-अर्चना उनके देवी देवता प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि प्रकृति को ही वे लोग अपना पालनहार मानते हैं।

आदिवासियों की भाषा संस्कृति सोच संस्कार पूजा पद्धति आदि पूरी तरह से प्रकृति के साथ जुड़ी हुई है। आदिवासियों के बीच दहेज प्रथा नहीं है। आदिवासी प्रकृति का दोहन नहीं करते बल्कि उसका संरक्षण करते हैं। उसकी पूजा करते हैं। इसलिए आज भारत के आदिवासी अपनी आदिवासी धर्म कोड के साथ 2021 की जनगणना में शामिल होना चाहते हैं जो कि उनके अस्तित्व, पहचान और एकजुटता के लिए बहुत ही जरूरी है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनूप महतो कहते हैं कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से आयोजित कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के द्वारा कहा गया कि “आदिवासी न कभी हिंदू थे, न तो है और न तो होंगे” से हम बिल्कुल सहमत हैं क्योंकि आदिवासी समाज प्रकृति पूजक है। आदिवासियों का अपना एक अलग रीति रिवाज संस्कृति है। वे संस्कृति से जुड़े संसाधनों को पूजते और पूजा करते हैं। जैसे जल, जंगल, जमीन पहाड़ आदि।

आदिवासियों की रीति रिवाज संस्कृति, पूजा आदि कहीं पर भी ब्राह्मणों की कोई भूमिका नहीं होती। आदिवासियों का एक अपनी सामाजिक व्यवस्था है जो पूर्वजों से चली आ रही है। हिंदुओं के मंदिर होते हैं जहां वे मूर्ति को पूजते हैं और पूजा करने वाले एक विशेष जाति से आते हैं, जो कि ब्राह्मण होते हैं किंतु आदिवासी में पूजने और पूजा करने वाले दोनों ही आदिवासी समाज से ही होते हैं। आदिवासियों की आपस में खानपान में कोई बाधा नहीं है।

बृहद झारखंड जनाधिकार मंच (झारखंड) के केंद्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (झारखंड) के प्रदेश संयुक्त सचिव बिरसा सोय कहते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं है क्योंकि आदिवासियों की रीति रिवाज एवं संस्कृति प्राकृतिक रूप से प्रकृति से जुड़े हुए हैं। आदिवासी मंदिरों में पूजा नहीं करते बल्कि वे प्रकृति की पूजा करते हैं।

डॉ शांति खलखो कहती हैं कि हम हिंदू इसलिए नहीं है कि हमारी जीवनशैली, संस्कृति, भाषा, पर्व, त्यौहार, पूजा पद्धति यहां तक की मौत के बाद दफनाने, मृत्यु संस्कार करने की पद्धति भी हिंदुओं से अलग है। हम प्रकृति पूजक हैं। हमारे यहां जाति व्यवस्था नहीं है। हमारे यहां कोई पंडित पुजारी या पुरोहित की परंपरा बिल्कुल नहीं है। हमारी परंपरा में स्त्री पुरुष की समान भागीदारी होती है। कब्रगाह हो या शमशान घाट, वहां भी महिला पुरुष मिलकर काम करते हैं। जल, जंगल जमीन, पहाड़ हमारे देवी देवता हैं। यह सारी चीजें हमें आदिवासी बनाते हैं और यह बताते हैं कि हम हिंदू कतई नहीं है।

बहुजन समाज के विचारक विलक्षण रविदास आदिवासियों को ही नहीं बल्कि संपूर्ण दलित व पिछड़ों को भी हिंदू नहीं मानते हैं। “आदिवासी हिंदू क्यों नहीं है?” के सवाल पर वे कहते हैं क्योंकि आदिवासी आदिकाल से ही प्रकृति पूजा कर रहे हैं। उनकी पूरी जीवन, शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व-त्यौहार, पूजा पद्धति सभी हिंदुओं से बिल्कुल अलग हैं। उनकी पूरी जीवन शैली प्रकृति पर आधारित है जिससे यह साफ और स्पष्ट हो जाता है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं।

वे आगे कहते हैं, आदिवासी ही नहीं बल्कि दलित व पिछड़े भी आदिवासी नहीं हैं। हिंदू केवल ब्राह्मण हैं क्योंकि हिंदू धर्म की किसी भी ग्रंथ में हिंदू शब्द का जिक्र नहीं है। हर जगह केवल ब्राह्मण शब्द का ही उल्लेख है। दलित व पिछड़े हिंदू नहीं है। बल्कि वे हिंदुत्व के गुलाम हैं। आदिवासियों के बीच आज के दौर में संघ व बीजेपी के गहरे घुसपैठ के बाद भी वे अपना जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व, त्यौहार, पूजा पद्धति सभी कुछ हिंदुओं से बिल्कुल अलग रखा है। अतः वे कहीं से भी हिंदू नहीं है।

गढ़वा के सामाजिक कार्यकर्ता व आदिम जनजाति समुदाय के मानक चंद कोरवा का भी मानना है कि आदिवासी हिंदू नहीं है क्योंकि आदिवासी की संस्कृति भाषा, बोली- वचन, रहन-सहन यानी संपूर्ण जीवन शैली प्रकृति के बहुत करीब है। आदिवासी प्रकृति के प्रति समर्पण के साथ ही प्राकृतिक तौर पर जंगल, पहाड़ नदी एवं कृषि व जंगल में स्थित वृक्षों के प्रति लगाव रखते हैं। हम इनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं। जंगली जानवरों, पक्षियों से बहुत नजदीक से मेल प्रेम बना रहता है और हम मूर्तिपूजक नहीं हैं हम वृक्षों की पूजा करते हैं।

पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बरला “आदिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं?” के सवाल पर कहती हैं कि इतिहास गवाह है कि आदिवासी जहां भी गया वह सबसे पहले जंगल झाड़ियों को साफ सुथरा किया। वहां पर रहने लायक वातावरण तैयार किया। मतलब कि गांव बसाया खेती करने लायक जमीन तैयार की। अपनी पूरी जीवन शैली को प्रकृति की आधारित बनाया। प्राकृतिक सृजन करता के साथ खुद को जोड़े रखा जिसे आज भी देखा जा सकता है। आदिवासी की संस्कृति भाषा पर्व त्यौहार सभी प्रकृति पर आधारित है जो कि साफ और स्पष्ट कर देता है कि आदिवासियों को हिंदू नहीं कहा जा सकता।

“आदिवासी हिंदू क्यों नहीं है?” के सवाल पर सवाल करते हुए सिद्धो कान्हो विश्वविद्यालय की कुलपति सोना झारिया बिंज कहती है कि पहले यह जानना जरूरी होगा कि इस भूभाग पर पहले हिंदू आए या आदिवासी। इसका सही जवाब कोई इतिहास वेत्ता या समाजिक वैज्ञानिक ही दे सकता है। एक तरह से इस सवाल के जवाब से सीधे तौर पर बचते हुए कुलपति मिंज ने कहा कि मैं डाटा साइंटिस्ट हूं। अतः इसका जवाब देने का अधिकार मुझ में नहीं है।

पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता योगो पुर्ती कहते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिली अलिखित इतिहास संस्कृति से आज भी आदिवासियों का जनजीवन, लोकजीवन, प्राचीन कथा व लोक कथाओं में जिंदा है। आदिवासी हिंदू से बिल्कुल भिन्न है। शारीरिक संरचना, रंग रूप, परंपरा, रीति, रिवाज, पर्व त्यौहार, शादी विवाह, पूजा विधियां आदि हिंदुओं से अलग है आदिवासी मूर्ति पूजा के घोर विरोधी हैं।

आदिवासी प्रकृति के प्रति समर्पण के साथी प्राकृतिक तौर पर जंगल पहाड़ नदी एवं कृषि व जंगल में स्थित विशेष वृक्षों के प्रति आभार व्यक्त करते ही हैं। अपने पूर्वजों के संघर्ष को भी याद करते हैं। हमारी तमाम मान्यताएं व प्रक्रियाएं गांव की खुशहाली, एकता समानता, स्वास्थ्य व संस्कृति को मजबूती प्रदान करती है। आदिवासी समाज में सामूहिकता की झलक मिलती है, हमारी रीति-रिवाजों में न तो किसी व्यक्ति की प्रधानता होती है और न ही किसी गोत्र की।

दुपुब हुदा का मतलब आदि समाज आज भी अपने दुपुब धर्म (आदि धर्म) दुपुब दस्तूर, (आदि संस्कृति) को जीवित रखा है। आदिवासी शब्द का अस्तित्व मिटा कर ‘बनवासी’ शब्द थोपा जा रहा है जबकि ‘आदि’ का मतलब सबसे प्राचीन, पारंपरिक, प्रथम और आदिम होता है।

खोरठा साहित्यकार व व्याख्याता दिनेश दिनमणि का मानना है कि हिंदू शब्द ही भ्रामक है। पहले तो यह एक स्थान विशेष के निवासियों के लिए व्यवहार किया गया था। पर आज एक संप्रदाय विशेष के अर्थ में रूढ़ कर दिया गया है। इस अर्थ में हिंदू का तात्पर्य वैसे समुदाय से है जो सनातन संस्कृति का अनुसरण कर जीवन जीते हैं। जिस संस्कृति में अवतारवाद, मूर्ति पूजा, स्वर्ग नरक, पाप पुण्य व जीवन के विविध संस्कारों में वैदिक पद्धति के विविध कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था के अवधारणा की मान्यता है। इस आधार पर देखा जाए तो आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं है। आदिवासी न तो मूर्तिपूजक हैं और न ही वैदिक कर्मकांड को करवाते हैं। उनके आस्था की अवधारणा भी हिंदू सनातन दर्शन से बिल्कुल भिन्न है।

सोपानी कृत वर्ण व्यवस्था का यहां कोई स्थान नहीं है लेकिन लंबे समय से आदिवासियों का भी हिंदू करण हो रहा है। सनातन और आदिवासियों की पूजन स्वरूप में कतिपय समानता के कारण अधिकांश आदिवासी समुदाय हिंदू धर्म की ओर उन्मुख होकर आत्मसात करते गए हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद संथाल संस्कृति को मानते हुए हिंदू आस्था के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में जा कर पूजा अर्चना भी करते हैं, तमाम कर्मकांड के साथ, लेकिन कुलीन बन चुका कोई आदिवासी, संपूर्ण समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं कि हिंदू धर्म के चारों वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र में से आदिवासी किसी भी वर्ण में नहीं आते हैं। हम आदिवासियों की कोई भी प्रथा परंपरा, मान्यता एवं देवी-देवताओं का उल्लेख किसी भी हिंदू धर्म ग्रंथ में नहीं है। यह सबसे बड़ा कारण यह जानने के लिए कि आदिवासी हिंदू नहीं है।

अंग्रेजी शासन काल में भी आदिवासियों ने अपनी एक अलग पहचान बनाए रखी। अंग्रेजों ने 1901 की जनगणना में आदिवासियों के धर्म को ‘प्रकृति वादी’ लिखा था। वहीं 1911 की जनगणना में ‘जन जातीय धर्म’ व प्रकृति पूजक लिखा तथा 1931 में ‘आदि धर्म’ लिखा।

भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 750 से अधिक है। भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों को अलग धर्म में गिना गया। जैसे 1871 में ऐबोर्जिनस (मूलनिवासी)। सन 1881 और 1891 में ऐबोर्जिनल (आदिम जनजाति), 1901 और 1911 में एनीमिस्ट (जीव वादी), 1921 में प्रिमिटिव (आदिम), 1931 व 1941 में ट्राईबल रिलिजन (जनजातीय धर्म) इत्यादि नामों से वर्णित किया गया।

वहीं आज़ाद भारत में 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग से गिनना बंद कर दिया गया।

भारत की जनगणना 1951 के अनुसार आदिवासियों की संख्या 9,91,11,498 थी, जो कि 2001 की जनगणना के अनुसार 12,43, 26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां ही रहती है। वहीं झारखंड में 86 लाख से अधिक आदिवासी हैं।

भारत में आदिवासियों को दो वर्गों में अधिसूचित किया गया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित आदिम जनजाति। बता दें कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है। याने कि ऐसे में आदिवासियों पर हिंदू विवाह अधिनियम लागू नहीं होता है जो कि संवैधानिक स्तर से भी आदिवासियों को हिंदू नहीं बनाता है।

इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि सदियों से आदिवासी समाज को दबाया जाता रहा है। कभी इंडिजिनस, कभी ट्राइबल तो कभी अन्य नाम के तहत आदिवासियों की पहचान होती रही है। भारत के 1951 की जनगणना में षड्यंत्र के तहत कई आदिवासी समुदाय को आदिवासी समाज की सूची से हटा दिया गया। तबसे लेकर आज तक आदिवासी समुदाय अपनी पहचान के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं किंतु अभी तक उन्हें निराशा ही मिली है।

जनगणना में आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है।

भारत की जनगणना कॉलम में दर्ज, पांच-छः धर्म कॉलम के अलावा आदिवासी समूह के लिए भी अलग से एक कॉलम होना ही चाहिए जिससे वह अपनी संस्कृति और परंपरा को संरक्षित कर के आगे बढ़ सके। नहीं तो भविष्य में आदिवासी समाज अपने मौलिक अधिकार और पहचान के लिए अनवरत जूझते रहेंगे।

आदिवासियों को उनके आदिवासी धर्म की मान्यता अंग्रेजों ने ही दिया था जिसे 1871 में Aborgines (मूलनिवासी), 1881 और 1891 में Aborigional (आदिवासी), 1901, 1911 और 1921 में Animist (जीव वादी), 1931 में Tribal Religion (जनजातीय धर्म) तथा 1941 में Tribal (जनजातीय) नाम दिया गया।

जबकि भारत आजाद होने के बाद पहली बार जब देश में जनगणना 1951 को हुई तो भारत सरकार के द्वारा आदिवासियों के साथ धोखा किया गया और ब्रिटिश काल से अंग्रेजों के द्वारा आदिवासियों को दिया जा रहा धर्म-कोड को हटा दिया गया जबकि आदिवासियों को उनका अपना धर्म-कोड मिलना चाहिए था।

फिर उसके बाद जब देश में 1961 में जनगणना हुई तो आदिवासियों का धर्म-कोड ही समाप्त कर फ़िया गया, और यही बात हमारे आदिवासी समाज में कंफ्यूजन पैदा करता है और हमें चीख-चीख कर कहना पड़ता है कि हम हिन्दू नहीं हैं।

आदिवासी प्रमुख रूप से भारतीय राज्यों, झारखंड उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि ने बहुसंख्यक तथा गुजरात महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश बिहार पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक हैं जबकि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक समुदाय में आते हैं, जैसे मिजोरम। इन्हें भारत के संविधान में पांचवी अनुसूची में शामिल करके “अनुसूचित जनजातियों के रूप में” मान्यता दी गई है।

यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि आदिवासी शब्द, दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिलकर बना है जो कि मूल निवासी होने का बोध कराता है। संस्कृत के विचारकों ने अपने लेखों में आदिवासियों को “अत्त्विका” और “बनवासी” लिखा है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को “गिरिजन” अर्थात पहाड़ पर रहने वाले लोग कहकर पुकारा है। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए “अनुसूचित जनजाति” याने कि ST शब्द का उपयोग किया गया है। भारत की प्रमुख आदिवासियों में गोंड, भील, उरांव, मुंडा , कोल, बोडो, भीलाला, धानका, खड़िया, हो, कोली, फनात, सहरिया, संथाल, कुड़मी, महतो, मीणा, लोहरा, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टाकनकर आदि समूह शामिल हैं।

आज के दौर में यह छोटे-छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यावसायिक वानकी और रहन-सहन, कृषि, दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन यापन की एकमात्र स्रोत रहे हैं। एक तरह से आदिवासियों को उनकी जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों से बेदखल करने की कोशिश का एक हिस्सा है उन्हें अन्य या हिंदू मानना या घोषित करना। उन्हें हिंदू की श्रेणी में लाना, उनकी संख्या को नगण्य करके उनकी अपनी रूढी परंपरा से बेदखल करने के बाद उनके जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों पर कारपोरेटी हमले करके उनके अस्तित्व को खतम कर देने की साजिश का यह भी एक खतरनाक हिस्सा है। (जनचौक से साभार)

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