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मार्क्सवाद क्या सचमुच एक विज्ञान है?

मार्क्सवाद एक विज्ञान है? क्या सचमुच? क्या विज्ञान सच को स्वीकारता है।
हां, विज्ञान की नई-नई खोजें अपनी पूरानी समझदारी को विकसित करती हैं। विज्ञान सच को स्वीकारता है। और चूंकि मार्क्सवाद सच को स्वीकारता है इसलिये मार्क्सवाद भी एक विज्ञान है।

कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का शुरूआत इस मुख्य बातों से हुई है कि “आज तक अस्तित्वमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास हैं।”

कम्युनिस्ट घोषणा पत्र सन 1847 में कम्युनिस्ट लीग नामक मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय संघ ने जो उस जमानों की हालतों में एक गुप्त संगठन ही हो सकता था,1847 के नवंबर में लंदन में हुई अपनी कांग्रेस मे मार्क्स और एंगेल्स को यह काम सौंपा गया था कि वे पार्टी के एक विस्तृत सैद्धांतिक और व्यावहारिक कार्यक्रम प्रकाशन के लिए तैयार करें।

1847 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के समय तक समाज में आदिम साम्यवादी या कबिलाई समाज का खोज नहीं हो पाया था।आदिम साम्यवादी या कबिलाई समाज का खोज 1871 में अमरीका के वैज्ञानिक मार्गन ने किया।मार्गन द्वारा इस समाज के खोज के बाद घोषणा पत्र में परिवर्तन कर “समस्त लिपिबद्ध इतिहास ” किया गया।

मर्गान के इस कबिलाई समाज के खोज के बाद एंगेल्स ने लिखा कि “1847” में समाज का पूर्व इतिहास अर्थात लिखित इतिहास के पहले का सामाजिक संगठन, सर्वथा अज्ञात था।उसके बाद हैक्स्टहाउजेन ने रूस में भूमि के सामुदायिक स्वामित्व का पता लगाया, मोरेर ने सिद्ध किया कि यही वह सामाजिक आधार था, जिससे सभी ट्यूटन जातियों ने इतिहास में पदार्पण किया और धीरे-धीरे यह प्रकट हुआ कि ग्राम समुदाय ही भारत से लेकर आयरलैंड तक हर जगह समाज का आदि रूप था या रहा होगा।

इस आदिम कम्युनिस्ट समाज के आंतरिक संगठन का अपने ठेठ रूप में स्पष्टीकरण मार्गन की “गोत्र” के असली स्वरूप और “कबीले” के साथ उसके वास्तविक संबंध की महती खोज द्वारा किया गया।

इन आदिम समाज वर्ग विभाजित समाज नही रहा हैं।इस आदिम समुदाय के विघटन के साथ ही समाज अलग-अलग और अंतत: विरोधी वर्गो में विभेदित होने लगते हैं।

मार्गन की इस खोज ने 1847 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के रचनाकाल में समाज के बारे में मार्क्स और एंगेल्स की समझदारी को और विकसित किया एवं कम्युनिस्ट घोषणापत्र में भी सुधार किया गया।

वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोग अंधविश्वास या अंधभक्त नही हो सकते।सत्य को स्वीकार करने में,तर्क को आमंत्रित करने और आलोचना से दूर भागने वाले नही हो सकते हैं।

तर्कशील, आलोचना से ही नई खोज संभव है। जो लोग तर्क-बहस और आलोचना से दूर रहते है वे यथास्थिति बने रहना चाहते हैं।

धर्म और विज्ञान में यही बुनियादी अंतर है। धर्म में परम सत्य जैसे शब्द का उपयोग होता है। धर्म शास्त्रों में लिखी हुई बातें अकाट्य हैं। जबकि विज्ञान नई खोज को सहर्ष स्वीकार करती है। विज्ञान कुपमंडुक नही हो सकता है। इसीलिए विज्ञान समाज और जनजीवन के लिए उपयोगी है। -सुखरंजन नंदी

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