प्रारंभिक भारत में बर्बरों की अवधारणा का जन्म विचित्र परिस्थिति में हुआ। जब हिन्द- आर्य भाषा बोलने वाले खानाबदोस पशुचारक लोग उत्तर भारत में आए, तो उनका संपर्क यहां के मूल निवासी से हुआ, जिन्हे वे बर्बर मानने लगे।
इन आर्य भाषा-भाषी लोगों ने अपने और दूसरों के बीच सबसे पहले जो भेद किया वह भाषा का भेद था और कुछ कम सीमा तक रंग-रूप का।हिन्द-आर्य भाषा-भाषी लोग संस्कृत बोलते थे,जबकि यहां के मूल निवासी शायद द्रविड़ या मुंडा भाषाएं बोलते थे।
बर्बरों के लिए संस्कृत में जिस शब्द का सबसे अधिक प्रयोग किया गया है वह है म्लेच्छ। ऋग्वेद में स्वयं म्लेच्छ शब्द कि तो उल्लेख नहीं हुआ है, लेकिन दास और दस्तु का जिक्र किया गया है। वे स्थानीय कबीले आर्य-भाषा बोलने वालों की अधीनता में पड़ गये और फिर पराए और बर्बर माने जाने लगे। उनकी तुलना राक्षसों से की गई है और कहा गया है कि उनकी चमड़ी काली(कृष्ण-त्वच),नाक चपटी है,बोली विचित्र है,वे काले जादू का आचरण करते है,और यज्ञ नहीं करते;वे कपटी है और किलो में रहते हैं। समाज दो मुख्य समूहो में विभक्त है–आर्य वर्ण और दास वर्ण, जो ‘हम ‘ और ‘वे’ के शब्द से विभाजित था।
भाषा के भेद को प्रतिष्ठित कर देने के बाद प्रदेशों का भी सीमांकन किया गया ।जिन क्षेत्रों में म्लेच्छ भाषा बोली जाती थी उन्हें म्लेच्छ देश माने जाने लगा।म्लेच्छ देश अपावन था – सो केवल इसलिए नहीं कि वहां के निवासी पराई भाषा बोलते थे बल्कि उससे भी बढ़कर इसलिए कि वे उपयुक्त कर्मकांड नहीं करते थे।ये वे क्षेत्र थे जहां लोग श्राद्धकर्म नहीं करते थे और वर्ण के नियमों का पालन नहीं करते थे। पावन देश ‘आर्यावर्त’ था, पारंपरिक रूप से आर्य से आबाद क्षेत्र,शेष सब म्लेच्छ देश थे।चूंकि म्लेच्छ कर्मकांड के दृष्टि से अशुद्ध है इसलिए म्लेच्छ देश में प्रवेश करने वाले आर्यों को प्रायश्चित करना चाहिए, जिसके बाद ही उन्हे शुद्ध और पुनः संपर्क योग्य माना जा सकता हे।
️जिस म्लेच्छ देश में गमन करने पर आर्य भाषाई लोग अपवित्र हो जाते वे, जिनके कर्मकांड आर्य से भिन्न थे आर्य भाषा जिनकी बोली नही रहा है आज उन्हे हिन्दू धर्म के अनुयायी बनाने का साजिश रचा जा रहा है।इतिहास को भी विकृत किया जा रहा है। हिन्दु धर्म जो वर्ण व्यवस्था पर आधारित है म्लेच्छ देश में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व ही नही था।
आदिवासी समाज को हिन्दू धर्म के दायरे मे लाने का अर्थ है उस समाज मे भी वर्ण व्यवस्था को थौंप देना, सामाजिक भेदभाव, श्रेष्ठ और पतित के रूप मे समानता वाली आदिवासी समाज को विखंडित करना ही उनका मुख्य उद्देश्य है।
समाज में यह विघटनकारी ताकतें सिर्फ विभाजन की राजनीति ही करते हैं क्योकि समाज की एकता से वे भयभीत रहते हैं। (लेख : कॉमरेड सुख रंजन नंदी)
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