कानून और समाज के बीच के संबंध में यथार्थ और आदर्श दोनो का समावेश होता हैं। जिस हद तक कोई खास कानून किसी समाज विशेष से संबंधित है उस हद तक उसको उस समाज की मूल्य-पद्धति का द्योतक माना जा सकता हैं। कानून (प्रथागत और संस्थाबद्ध दोनो प्रकार के कानून) को समाज के कार्यकलाप को नियंत्रित करने का साधन भी माना जाता हैं।
हिन्दू परंपरा में मोक्ष का मार्ग मानव अस्तित्व के तीन प्रयोजनों का संतुलन हैं। ये तीन प्रयत्न है धर्म (समाज व्यवस्था के नियम), अर्थ (समृद्धि) और काम (आनंद)। इनमें धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संक्षेप में, धर्म का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने वर्ण के अनुसार अपेक्षित आचरण और कर्तव्यों का निर्वाह करें।
धर्म हिन्दु परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण विचार बन गया और उसने हिन्दू समाज में व्यक्ति के स्थान के आधार का रूप ग्रहण कर लिया। धर्म का उचित पालन इस बात पर निर्भर था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अपेक्षित कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिए। भागवद्गीता का संदेश ठीक यही है: व्यक्ति को अपने धर्म के नियमों के अनुसार आचरण करना चाहिए ।
धर्म के नियमों के अनुसार आचरण करने का मतलब 3िया है उस वर्ण के आधार पर और उस वर्ण के लिए विधि-ग्रंथों के रचयिताओं ने जो नियम बनाए है उनके अनुसार समाज में अपनी स्थिति और भूमिका को स्वीकार करना चाहिए। कर्तव्यों का अर्थ दायित्व था और अधिकारों की अपेक्षा दायित्व पर बहुत अधिक जोर था।
️धर्म के नियम उन विधि- निर्माताओं द्वारा बनाए गए जो मुख्य रूप से ब्राह्मण वर्ण के सदस्य थे। इसलिए संभवत: उन लोगो ने अपने वर्ण की श्रेष्ठता को कायम रखने का प्रयत्न किया। कुछ कोटियों में ब्राह्मण सामान्य जीवन के अधिक कठोर दायित्वों से, जैसे करों की अदायगी से, मुक्त थे और कभी कभी तो उन्हे कानून से ऊपर भी माना जाता था। इसलिए स्वाभाविक था कि कानून के समक्ष सभी की समानता के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया गया। विधि-गेंदों के अनुसार, न्यायिक दंड की व्यवस्था में अपराधी की जाति का भी ध्यान रखा जाता था।
जाति व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि व्यक्ति किसी एक जाति में जन्म लेकर किसी अन्य जाथि की स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य इस जन्म में जो कर्म करता है उसी से उसके अगले जन्म का सुख-दु:ख और स्थिति निर्धारित होती है। इसलिए कोई मनुष्य जिस जाति की स्थिति में आज हैं वह उसके अपने ही कर्म का फल हैं और वह अपनी स्थिति में अपने धर्म का पालन करके सुधार कर सकता हैं और अगले जन्म में उच्चतर जाति में जन्म ले सकता हैं।
जाति की शुद्धता को कायम रखने के लिए विभिन्न उपायों में दो पर विशेष जोर दिया गया है:- विभिन्न जातियों के सदस्यों के बीच सहभोज का निषेध तथा जाति के संबंध में विहित अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के नियमों का कठोर पालन। सामुदायिक जीवन का एक और क्षेत्र,अर्थात शिक्षा जातिगत भेदभाव से ग्रस्त थी। विधि-ग्रंथो में स्पष्ट कहा गया है कि केवल ऊपर के तीन वर्ण ही शिक्षा के पात्र हैं। जातिगत भेदभाव ने शूद्रों को शिक्षा से दूर रखा और औपचारिक शिक्षा-दीक्षा का जो स्वरूप और उसकी जो अंतर्वस्तु थी उसने अन्य गैर-ब्राह्मणों को उससे अलग रखा।
बौद्ध परंपरा ने जाति व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठाई। वह यह स्वीकार करती थी कि समाज के सामान्य कार्य व्यापार में सामाजिक विभेदक का होना अनिवार्य है, लेकिन उनका मानना था कि इन विभेदो को इस हद तक नहीं ले जाना चाहिए कि इस अवधारणा को ही त्याग दिया जाए कि सभी मनुष्य समान हैं। बुद्ध हमेशा इसी बात को दोहराते थे कि सभी वर्ण समान रूप से शुद्ध है। बौद्ध धर्म कानून के सामने सबकी समानता का हामी था। उसके अनुसार, अपराधी पर उसके अपराध के अनुसार विचार किया जाना चाहिए और उसी के अनुसार उसे सजा देनी चाहिए और ऐसा करते समय जाति के आधार पर किसी प्रकार की छूट या सुविधा नहीं दी जानी चाहिए ।
बौद्ध परंपरा के अनुसार कानून मानव मात्र के कल्याण के लिए होता हैं। उनकी दृष्टि में ब्राम्हणीय कानून समाज के शक्तिशाली वर्ग की आवश्यकताओं के अनुसार ढाला गया हैं। उन्होंने अपनी नैतिक नियम और मानव मात्र की समानता की कल्पना को प्राणि मात्र पर लागू किया, जो अहिंसा की अवधारणा का परिणाम था। उसके अनुसार, जिस किसी में जीवन है उसे जीने का अधिकार है और किसी भी जीवन को नष्ट करना अपराध है।
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