11 दिसम्बर को सारे डेरे, तम्बू समेट कर सिंघु बॉर्डर से किसानो का आख़िरी जत्था भी नाचते-गाते अपने-अपने घरों के लिए वापस लौट गया। कोई 380 दिन के अनवरत चले पड़ाव का सुखद विजयी स्थगन जीत के उल्लास में साफ़ दिखाई दे रहा था। हठी के अहंकार को तोड़ने का विजयोल्लास पूरे देश में मना। मगर यह आंदोलन का – किसान आंदोलन का भी – अंत या समापन नहीं था।
तीन कृषि कानूनों की वापसी के एलान के दिन 19 नवम्बर से डेरों के फिलहाल समेटे जाने के दिन के बीच बाकी बची माँगों में से एक ; किसान आंदोलन के दौरान लगे मुकदमों की वापसी की मांग के पूरा हो जाने के बाद भी एमएसपी क़ानून बनाने, बिजली क़ानून न लाने, टेनी मिश्रा की गिरफ्तारी आदि मांगों पर संयुक्त किसान मोर्चे का दृढ़ रहना, सरकार का लिखित में आश्वासन देना, इस आश्वासन पर अमल की समीक्षा के लिए 12 जनवरी को एसकेएम की मीटिंग का तय किया जाना और सबसे बढ़कर संयुक्त किसान मोर्चे का कायम रहना इस आंदोलन की निरंतरता का संकेत है। यह आंदोलन के रूप की निरंतरता है – मगर सार में इस आंदोलन की जीत ने जो गुणात्मक असर छोड़े हैं, वे आगे, बहुत आगे तक जाने वाले हैं।
दुनिया की मेहनतकश जनता के संघर्षों के इतिहास में अपनी मिसाल आप की तरह दर्ज हुए इस किसान आंदोलन की ख़ास बात सिर्फ इतनी भर नहीं है कि इसने हजारों करोड़ के विज्ञापनी खर्च से पालपोस कर तैयार किये गए कारपोरेट प्रोडक्ट नरेंद्र मोदी की अड़ियल और कभी वापस न होने वाले नेता की छवि चकनाचूर की है, उसकी हेकड़ी और दम्भ को तोड़ा है, बल्कि उसके विभाजनजीवी के बार-बार आजमाए गए ब्रह्मास्त्र के चमत्कार को भी बिखेर कर रख दिया है। कारपोरेट की थैलियों की दम पर “सब कुछ बिकता है – सब कुछ खरीदा जा सकता है” के भरम को आईना दिखाया है। साल भर में, मोदी शाह की तमाम कोशिशों के बावजूद इस किसान आंदोलन में शरीक 550 किसान संगठन और उनके नेताओ का न टूटना, न बिकना मौजूदा शासक गिरोह की शकुनी चालों के लिए एक और शिकस्त है। इसने अपने विचार और मांग पर अडिग रहने के उन उच्च नैतिक मूल्यों को एक बार फिर पुनर्स्थापित किया है – जिनकी हाल के दिनों में काफी किल्लत-सी महसूस की जा रही थी। यह बहाली आने वाले दिनों के राजनीतिक सामाजिक वातावरण को दूर तक प्रभावित करने वाली है।
तीन कानूनों की वापसी की घोषणा के समय को कुछ महीनो में होने वाले उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों से जोड़कर पढ़ा गया है। एक हद तक एक फौरी वजह के रूप में यह सच भी है – लेकिन पूरा सच नहीं है। एक बड़ी वजह किसान आंदोलन की पहली बरस के दिन – 26 नवम्बर 2021 – के दिन से शुरू होने जा रही किसान-मजदूरों की साझी मैदानी कार्यवाहियां थीं। संघ-नत्थी बीएमएस को छोड़कर देश की बाकी सभी ट्रेड यूनियनों, फैडरेशनों, कर्मचारी संगठनों के मोर्चे और संयुक्त किसान मोर्चे के बीच एकता एकजुटता कार्यवाहियों और एक दूजे को नैतिक समर्थन दिये जाने से आगे बढ़कर, कार्यवाहियों के आव्हानों में तालमेल और समन्वय से भी आगे जाकर साझी मैदानी एकता तक पहुँच चुकी थीं।
मुज़फ्फरनगर की किसान महापंचायत के बाद से एसकेएम की मांगों में चार लेबर कोड की वापसी जुड़ चुकी थी और इधर मजदूरों के महासंघ के चार्टर में तीन कृषि कानूनों की वापसी ने प्रमुख जगह पा ली थी। मेहनतकश वर्गों की इस एकता के नतीजों को शासक वर्ग ज्यादा अच्छी तरह समझता है। वापसी के एलान के पीछे दोनों उत्पादक वर्गों मजदूर-किसानों की एकता का डर साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था।
किसान आंदोलन में महिलाओं और युवाओं की उल्लेखनीय भागीदारी भी सिर्फ दिल्ली की छह बॉर्डर्स पर लगी चौकियों तक सीमित फिनोमिना नहीं था। इसकी पृष्ठभूमि में सीएए-एनआरसी के खिलाफ देश भर में उगे महिला केंद्रित समावेशों वाले शाहीन बाग थे, तो जेएनयू-जामिया-अलीगढ-हैदराबाद की यूनिवर्सिटियों से उठे निडर युवक-युवतियों के वे तूफ़ान भी थे, जिन्होंने हिन्दुत्वी-कारपोरेट के सबसे भरोसेमंद आधार को हिलाकर रख दिया था। किसान आंदोलन ने इन जनप्रतिरोधों से निकली ऊष्मा को ऊर्जा, दिशा और आत्मविश्वास – तीनों देकर इनका श्रृंगार किया है।
यह बात बार-बार दोहराने में हर्ज नहीं है कि इस किसान आंदोलन ने देश को परिणामों से नहीं, कारणों से लड़ने का शऊर और सलीका सिखाया है। इसने सांप निकलने के बाद लकीर पीटने का इन्तजार करने की बजाय साँप की बांबी को ही मूंदने का काम किया है। नवउदार नीतियों के फ्रेमवर्क की चूलें हिला दी हैं।
आमतौर से तीन दशक और खासतौर से मोदी के सात सालों से तकरीबन बिना किसी बड़े अवरोध के आवारा घूमते, खुद के अविजयी होने का भ्रम पाले देशी-विदेशी कार्पोरेट्स के अश्वमेधयज्ञ के सांड़ को रोका ही नहीं – उसे नाथ कर उसका रुख पीछे की तरफ मोड़ा है। उसके निर्विकल्पता के ‘टीना’ (कोई विकल्प नहीं) का नैरेटिव को तोड़ा है। इस कदर तोडा है कि अब इसे पुनर्स्थापित करने के लिए मोदी एंड कंपनी को काशी-मथुरा-अयोध्या की याद आ रही है। मगर लगता नहीं कि इस बार ठगों के लिए अपना मजमा ज़माना आसान होने वाला है।
इस किसान आंदोलन का एक महत्वपूर्ण आयाम यह था कि इसने खुद को सिर्फ खेती किसानी के सवालों तक महदूद नहीं रखा। अपने मुद्दों को जनता और देश के सवालों से जोड़ा, देश और जनता के सवालों को अपनी लड़ाई में समाहित किया। हाल के दौर में यह नयी बात थी, जो इसकी सफलता का कारण भी बनी। किसान अवाम के साथ इस कदर घुलमिल गए कि उन्हें अलग-थलग कर पाना सत्तावर्गों के लिए असंभव हो गया। सत्तावर्ग की राजनीतिक ताकतों के बड़े हिस्से को भी इसने अपने पक्ष में रुख अपनाने के लिए विवश कर दिया।
प्रभात पटनायक इसे बेहतर तरीके से बयान कर चुके हैं कि किस तरह इस आंदोलन के जरिये भारत के किसानों ने वह भूमिका निबाही है, जो सामान्यतः मजदूर वर्ग निबाहता रहा है। वह हुआ है, जो दुनिया में या तो हुआ ही नहीं या हुआ, तो कम ही हुआ। सड़क की लड़ाईयों से साम्राज्यवाद को उसके अखाड़े – नीतियों के अखाड़े – में जाकर हराया गया है। ठीक यही वजह है कि 11 दिसम्बर को दिल्ली बॉर्डर्स पर तम्बू समेट कर आंदोलन का अंत नहीं, बड़े आंदोलनों का आरम्भ हो रहा था। एक ऐसा आरम्भ, जिसमें कारपोरेटी-हिन्दुत्व के राज के अंत की शक्ति और क्षमताएं छुपी हुयी हैं।
वह इसलिए कि इस विजय ने जनता का आत्मबल बढ़ाया है। लड़ाई के प्रति भरोसा पैदा किया है। यह विश्वास पैदा हुआ कि लड़ेंगे, तो नतीजे जीत में निकलेंगे। आने वाले दिनों में इसके असर दिखेंगे – बल्कि दिख भी रहे हैं ; इन्हीं से घबराये और सहमे सत्ताधीश नए षडयंत्रों को रचने में जुटे हैं और सारी दिखावटी आड़ को परे हटाकर खुद आरएसएस प्रमुख सहित मैदान में उतर कर अपने पूरे कसबल लगाने में भिड़े हुए हैं।
मगर यह वह ऊर्जा है, जो बाहर आ चुकी है। उत्सर्जित होकर सारे देश को गरमा चुकी है – मुश्किल होगा इसे ठण्डा या गुमराह करना, कठिन होगा इससे पार पाना। और सजग रहे, तो असंभव ही होगा उस बर्फीले युग को वापस लाना – जिसके शीत में इस देश को पूँजी-दानवों की आरामगाह में तब्दील किये जाने के मंसूबे साधे जाते रहे।
23-24 फरवरी की हड़ताल इस माहौल की परीक्षा की पहली घड़ी होगी। किसान आंदोलन के शीर्ष नेता, हड़ताल का फैसला जिस सम्मेलन में लिया गया था, उसमे शामिल थे और इस तरह किसान-मजदूर-कर्मचारियों की इस हड़ताल का समर्थन करने का एलान कर चुके हैं। बदलते माहौल में कहावतें भी बदलती है। ‘हलुए का स्वाद उसके खाने में होता है’ वाली कहावत भी इसी तरह आगे गयी है और अब असली स्वाद सिर्फ खाने भर में नहीं, उसके लिए साधन जुटाने और बनाने में होता है – सुगन्धी फैलाने में होता है।
किसान आंदोलन की सार्थकता इसके समर्थन में चला अभियान था। अभियान इतना सघन और जमीनी था, उसकी भाषा इतनी सरल और सहज थी कि जो इसमें शामिल नहीं हो पा रहे थे, वे भी मानते थे कि किसानो की मांगे जायज हैं, कि तीन कृषि क़ानून किसान ही नहीं, देश और जनता के भी खिलाफ हैं। देश का जनमत इन कानूनों के विरुद्ध था। इस लिहाज से 23-24 फरवरी की हड़ताल की सफलता उसमे होने जा रही 25-30 करोड़ मेहनतकशों की भागीदारी भर में नहीं होगी। उसका सन्देश 100 करोड़ जनता में ले जाने में होगी। इसके लिए एक बड़े, अब तक के सबसे विराट अभियान की – ठण्ड के मौसम में पसीना बहाने की जरूरत होगी। और यह काम सिर्फ ट्रेड यूनियनों का नहीं है – सबका है, क्योंकि यह सबकी बात है। हिंदी के लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज के शब्दों में :
“अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।”
किसान आंदोलन ने यह भाव देश की जनता में पैदा किया है। इसीलिये 11 दिसम्बर आरम्भ का दिन है – अमावस के अंत के आरम्भ का दिन होने की ताब रखने वाला दिन। –बादल सरोज
(लेखक बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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