उत्तर प्रदेश में अब जाति के नाम पर कोई रैली या सम्मेलन नहीं हो सकेगा। योगी आदित्यनाथ सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक हालिया आदेश का पालन करते हुए दस-सूत्रीय शासनादेश जारी किया जिसके तहत प्रदेश में जाति आधारित रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस फैसले ने राज्य की राजनीति में एक नई बहस छेड़ दी है, जहां एक ओर इसे सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इसे शोषित और वंचित जातियों की आवाज दबाने की कोशिश के रूप में भी देखा जा रहा है।
यह आदेश न केवल रैलियों तक सीमित है, बल्कि इसका दायरा कहीं अधिक व्यापक है। अब गाड़ियों पर जातिसूचक शब्द या स्टिकर लगाना गैरकानूनी होगा और ऐसा करने वालों पर सेंट्रल मोटर व्हीकल एक्ट के तहत चालान की कार्रवाई की जाएगी। साथ ही, पुलिस एफआईआर (FIR), गिरफ्तारी मेमो और अन्य सरकारी दस्तावेजों में भी किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा, हालांकि अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) अधिनियम से संबंधित मामलों को कानूनी आवश्यकता के कारण इससे छूट दी गई है।
हाई कोर्ट की टिप्पणी से निकला शासनादेश
इस पूरे मामले की जड़ इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 16 सितंबर का एक ऐतिहासिक फैसला है। एक शराब तस्कर के मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने एफआईआर और जब्ती मेमो में आरोपियों की जाति (माली, पहाड़ी राजपूत, ठाकुर, ब्राह्मण) का उल्लेख करने पर कड़ी आपत्ति जताई। न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की पीठ ने जातिगत महिमामंडन को “राष्ट्र-विरोधी” करार देते हुए कहा कि यदि भारत को 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनना है, तो जाति व्यवस्था को खत्म करना होगा। अदालत ने टिप्पणी की कि जब पहचान के लिए आधार कार्ड, फिंगरप्रिंट और कैमरे जैसी आधुनिक तकनीक उपलब्ध है, तो जाति जैसे प्रतिगामी पहचानकर्ताओं की कोई आवश्यकता नहीं है। अदालत ने इसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ और सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा बताया।
इसी फैसले को आधार बनाते हुए योगी सरकार ने तेजी से कार्रवाई की और एक सप्ताह के भीतर विस्तृत शासनादेश जारी कर दिया। नए नियमों के तहत:-
🔹जाति आधारित रैलियों और सम्मेलनों पर पूर्ण प्रतिबंध।
🔹वाहनों पर जातिसूचक स्टिकर और नारों पर रोक।
🔹पुलिस एफआईआर, अरेस्ट मेमो, क्राइम विवरण फॉर्म आदि से जाति का कॉलम हटाना। 🔹पहचान के लिए अब पिता के साथ मां का नाम भी दर्ज किया जाएगा।
🔹सार्वजनिक स्थानों, साइनबोर्ड्स पर किसी जाति विशेष का महिमामंडन करने वाले संकेतों को तत्काल हटाया जाएगा।
🔹सोशल मीडिया पर जातिगत नफरत फैलाने या महिमामंडन करने वाली सामग्री पर कड़ी निगरानी और कार्रवाई होगी।
राजनीतिक गलियारों में भूचाल और विरोधाभास
सरकार के इस फैसले ने प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों में हलचल मचा दी है। सबसे दिलचस्प प्रतिक्रिया भाजपा के सहयोगी दलों की ओर से आई है, जिनकी राजनीति का आधार ही जातीय अस्मिता है। निषाद पार्टी के अध्यक्ष और योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री डॉ. संजय निषाद ने इस फैसले का खुलकर विरोध किया है। उन्होंने इसे “सही नहीं” बताते हुए कहा कि अगर जातीय आधारित आंदोलन और रैलियां नहीं होंगी तो सामाजिक न्याय कैसे मिलेगा। संजय निषाद ने सवाल उठाया, “अगर सामाजिक जागरूकता के लिए किसी जाति का कार्यक्रम होता है तो उसको कैसे प्रतिबंधित कर सकते हैं? यह तो उनका संवैधानिक अधिकार है जिन्हें सदियों से दबाया-कुचला गया है।” उन्होंने इस फैसले पर पुनर्विचार करने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखने की बात कही है।
विपक्ष भी इस मुद्दे पर सरकार को घेर रहा है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसे एक दिखावा करार देते हुए पूछा कि “5,000 सालों से दिमाग में बसी जातीय गैर-बराबरी को मिटाने के लिए क्या किया जाएगा?” उन्होंने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों (PDA) की एकजुटता को रोकने की एक चाल हो सकती है।
यह फैसला एक बड़े विरोधाभास को भी जन्म देता है। एक तरफ जहां केंद्र सरकार, विपक्ष के दबाव में, देशव्यापी जाति जनगणना कराने की दिशा में बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार जाति की पहचान को मिटाने वाले कदम उठा रही है। पथिक सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुखिया गुर्जर ने इसे “तानाशाही आदेश” बताते हुए कहा, “अगर जाति आधार नहीं रहेगी, तो जाति जनगणना का क्या होगा?”
आम लोगों और सामाजिक संगठनों की मिली-जुली प्रतिक्रिया
इस आदेश पर समाज के विभिन्न वर्गों से मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जाट महासभा और गुर्जर समाज के कुछ नेताओं ने इस फैसले का विरोध करते हुए इसे अव्यावहारिक बताया है। उनका तर्क है कि जब तक राजनीतिक दल टिकट वितरण और मंत्री पद जाति के आधार पर तय करते रहेंगे, तब तक ऐसे प्रतिबंधों का कोई मतलब नहीं है।
वहीं, युवा ब्राह्मण समाज जैसे संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है। उनका मानना है कि जहां भी जाति विद्वेष का कारण बनती है, वहां ऐसे प्रतिबंध आवश्यक हैं।
हालांकि, इस आदेश की टाइमिंग को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। माना जा रहा है कि इसका तात्कालिक उद्देश्य गुर्जर समाज की एक प्रस्तावित महा-रैली को रोकना हो सकता है, जिसे भाजपा के खिलाफ माना जा रहा था।
विराट हिंदू एकता का प्रोजेक्ट या पहचान मिटाने की राजनीति?
आलोचक इस फैसले को भाजपा के वृहत हिंदू एकता के प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में देख रहे हैं, जहां शोषित और उत्पीड़ित जातियों की अस्मिता को एक बड़ी पहचान के नीचे दबाने का प्रयास किया जा रहा है। यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या जातिगत पहचान को मिटा देने से डॉ. अंबेडकर द्वारा वर्णित “वर्गीकृत असमानता” (graded inequality) समाप्त हो जाएगी?
एक बड़ा व्यावहारिक प्रश्न आरक्षण और छात्रवृत्ति जैसी कल्याणकारी योजनाओं के भविष्य को लेकर भी है। यदि सरकारी रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख ही नहीं होगा, तो लाभार्थियों की पहचान कैसे सुनिश्चित की जाएगी? इस कदम से उत्पीड़न के शिकार और उत्पीड़क की जातिगत पृष्ठभूमि का विश्लेषण करना भी मुश्किल हो जाएगा, जिससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर पड़ सकती है।
लोग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनके पुराने बयान भी याद दिला रहे हैं, जब उन्होंने कहा था कि उन्हें क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर गर्व है। फरवरी 2022 में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, “मुझे गर्व है कि मैं क्षत्रिय जाति में पैदा हुआ… मैं एक ‘उत्तम कुल’ (श्रेष्ठ जाति) में पैदा हुआ हूं।” हालांकि, उन्होंने यह भी जोड़ा था कि अब वह एक संन्यासी हैं और उनकी पहचान एक योगी के रूप में है।
और अंत में…
मूल प्रश्न यह नहीं है कि जाति का नाम लिया जाए या नहीं, बल्कि यह है कि क्या समाज में सदियों से व्याप्त जाति आधारित भेदभाव और अन्याय समाप्त हो रहा है। क्या यह कदम वास्तव में एक जातिविहीन समाज की स्थापना की ओर ले जाएगा या फिर यह केवल पहचान की राजनीति पर एक नया पर्दा डालने की कोशिश साबित होगा, इसका उत्तर तो भविष्य ही देगा।
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