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बुधवार, सितम्बर 10, 2025
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कल आज और कल: आरएसएस का हिंदू राष्ट्र बनाम भारत का संविधान

मोहन भागवत की दृष्टि और बाबा साहेब अंबेडकर का विश्लेषण

भारत आज एक गंभीर वैचारिक मोड़ पर खड़ा है। एक ओर संविधान आधारित लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है, तो दूसरी ओर आरएसएस की “हिंदू राष्ट्र” की परिकल्पना। 2025 में संघ अपने 100 वर्ष पूरे करने जा रहा है। ऐसे समय में यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि “कल का भारत” किस दिशा में जाएगा – संविधान के मार्ग पर या हिंदू राष्ट्र की राह पर?

आरएसएस की स्थापना और उसका उद्देश्य

1925 में नागपुर में डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित संघ का उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना और अनुशासन-आधारित “राष्ट्र निर्माण” करना था। परंतु यह दृष्टि केवल हिंदू पहचान तक सीमित रही, जो संविधान की सर्वसमावेशी परिभाषा से एकदम भिन्न है।

हिंदुत्व: विचारधारा की जड़

संघ की वैचारिक नींव सावरकर का “हिंदुत्व” है – “जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारत है वही हिंदू है।” यह परिभाषा स्वतः ही मुस्लिमों और ईसाइयों को “बाहरी” कर देती है। अंबेडकर की दृष्टि में यह विचार लोकतंत्र को कमजोर करता है।

“हिंदू राष्ट्र”: सांस्कृतिक या राजनीतिक?

संघ इसे सांस्कृतिक अवधारणा बताता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह एक राजनीतिक विचार है, जो अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलने का खतरा पैदा करता है। अंबेडकर ने कहा था – “हिंदू राज इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी।”

मोहन भागवत का नेतृत्व और संवाद की भाषा

श्री भागवत ने संघ को अधिक संवादात्मक रूप दिया और अल्पसंख्यकों के साथ बात करने की कोशिश की। उनका कथन कि “हिंदुत्व मुसलमानों के बिना अधूरा है” चर्चा में रहा। लेकिन वास्तविकता में अल्पसंख्यकों की असुरक्षा बनी हुई है।

अल्पसंख्यकों की चिंता: आश्वासन बनाम वास्तविकता

भागवत कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र में सबके अधिकार सुरक्षित रहेंगे। मगर संविधान पहले से ही समान अधिकार देता है। सवाल यह है कि फिर “हिंदू राष्ट्र” की अलग जरूरत क्यों है?

राजनीति में संघ की भूमिका

भले ही संघ स्वयं को “गैर-राजनीतिक” कहे, भाजपा के साथ उसका गहरा रिश्ता है। सरकार की नीतियों पर उसका प्रभाव साफ दिखता है। अंबेडकर ने चेताया था कि धर्म और राजनीति का मेल लोकतंत्र के लिए हमेशा खतरा होता है।

शिक्षा और संस्कार: संघ का सांस्कृतिक प्रभाव

संघ हजारों शाखाओं और सेवा संगठनों के जरिए संघ समाज में गहरी पैठ बना चुका है। शिक्षा और संस्कार के नाम पर यह “एकरूप हिंदू पहचान” गढ़ने का प्रयास करता है। अंबेडकर ने शिक्षा को “विवेक और स्वतंत्रता” का साधन माना था, न कि विचारधारा थोपने का।

जाति और आरक्षण का सवाल

संघ अब आरक्षण का समर्थन करता है और जातिभेद का विरोध करता है। लेकिन जाति आधारित धार्मिक ढांचे की आलोचना से बचता है। अंबेडकर के अनुसार, बिना धर्म और शास्त्र आधारित जाति-व्यवस्था को तोड़े समानता असंभव है।

आर्थिक दृष्टिकोण: स्वदेशी बनाम विकास

संघ “स्वदेशी” और “आत्मनिर्भरता” पर जोर देता है। परंतु अंबेडकर औद्योगीकरण, आधुनिक तकनीक और नियोजित अर्थव्यवस्था को जरूरी मानते थे। सिर्फ स्वदेशी का नारा आर्थिक न्याय नहीं ला सकता।

संविधान और हिंदू राष्ट्र का टकराव

संविधान भारत को “पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” घोषित करता है। हिंदू राष्ट्र की अवधारणा सीधे इस व्यवस्था से टकराती है। अंबेडकर ने संविधान को “कमजोरों का हथियार” कहा था। हिंदू राष्ट्र इस हथियार को निष्प्रभावी बना देगा।

संघ का लचीलापन और “अपरिवर्तनीय सत्य”

मोहन भागवत मानते हैं कि संघ सब बदल सकता है, परंतु “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा कभी नहीं बदलेगी। यही अंबेडकर की दृष्टि में सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि लोकतंत्र लचीलापन चाहता है, कट्टर स्थिरता नहीं।

भविष्य का भारत: दो परिकल्पनाएँ

संघ की दृष्टि में: सांस्कृतिक रूप से हिंदू, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और विश्वगुरु भारत।

अंबेडकर की दृष्टि में: जाति-मुक्त, धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला और सामाजिक न्याय पर आधारित भारत।

कल का भारत किस दिशा में?

मोहन भागवत का “हिंदू राष्ट्र” और अंबेडकर का “संविधान” – ये दो रास्ते आज भारत के सामने हैं।
अगर भारत संविधान की राह पर चलता है, तो समानता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय का राष्ट्र बनेगा। लेकिन यदि हिंदू राष्ट्र की राह पर चला, तो बहुसंख्यक वर्चस्व अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों को हाशिये पर धकेल देगा।

भारत का भविष्य तभी सुरक्षित है जब उसका वर्तमान संविधान की रोशनी में संरक्षित रहे। यही डॉ बाबासाहेब अंबेडकर की सबसे बड़ी चेतावनी और सीख है।

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