पिछले 10 सालों की तुलना किसी और दौर से नहीं की जा सकती!
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला तरह-तरह के विवादों के घेरे में रहे हैं। हाल में लोकसभा अध्यक्ष बतौर अपने दूसरे कार्यकाल में पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद उन्होंने आपातकाल के विरुद्ध एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया। आपातकाल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा 1975 में लगाया गया था। इसकी पृष्ठभूमि में था जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में चल रहा संपूर्ण क्रांति आंदोलन।
गुजरात में कुछ विद्यार्थियों ने अपनी हॉस्टल के मेस के बिल में बढ़ोत्तरी के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। जल्दी ही बिहार के विद्यार्थी भी इसमें शामिल हो गए। आंदोलन गति पकड़ता गया और विद्यार्थियों ने जेपी से राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया। जेपी ने विधानसभाओं और संसद के घेराव का आह्वान किया। दिल्ली के रामलीला मैदान में 15 जून 1975 को आयोजित एक विशाल रैली में जेपी ने पुलिस और सेना का आह्वान किया कि वो सरकार के आदेश न माने। इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती दी गयी और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बहुत मामूली आधारों पर उसे रद्द कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने 24 जून 1975 को इस आदेश पर रोक लगा दी।
देश के बिगड़ते हालात हो देखते हुए इंदिरा गाँधी ने 25 जून 1975 को संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत देश में आपातकाल लगा दिया।
आपातकाल 21 महीने तक लागू रहा और श्रीमती गाँधी ने स्वयं उसे ख़त्म किया। यवतमाल में 24 जनवरी 1978 को एक सभा में बोलते हुए इंदिरा गाँधी ने आपातकाल में हुई ज्यादतियों के लिए खेद व्यक्त किया। राहुल गाँधी भी उस दौरान हुई ज्यादतियों के लिए माफ़ी मांग चुके हैं।
आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया था। लालू प्रसाद यादव आपातकाल की संपूर्ण अवधि में जेल में थे। एक पत्रकार के साथ लिखा गया उनका एक लेख ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में 29 जून 2024 को प्रकाशित हुआ है। “द संघ साइलेंस ऑन इमरजेंसी” शीर्षक इस लेख में उन्होंने कहा कि यद्यपि विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, मगर इंदिरा गाँधी ने उनके साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया।
बीजेपी कई सालों से 25 जून को काले दिवस के रूप में मनाती आ रही
आपातकाल के दौरान एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया कि स्वाधीनता संग्राम के एक शीर्ष सेनानी जयप्रकाश नारायण ने आरएसएस को अपने आंदोलन का हिस्सा बना लिया। आरएसएस के नानाजी देशमुख, जिन्हें बीजेपी सरकार ने हाल में भारत रत्न से नवाज़ा है, आंदोलन के केन्द्रीय संगठक बन गए। इससे आरएसएस, जिसका सूरज संघ के पूर्व प्रचारक गोडसे के हाथों राष्ट्रपिता की हत्या के बाद से अस्त हो गया था, को सम्मान मिला। कुछ लोगों ने जब जेपी से कहा कि आरएसएस एक फ़ासिस्ट संगठन है, तो शायद अपने भोलेपन के चलते या किसी अन्य कारण से उन्होंने जवाब दिया कि अगर आरएसएस फ़ासिस्ट है, तो मैं भी फ़ासिस्ट हूँ।
जेपी का पुलिस और सेना से सरकार के आदेश न मानने का आह्वान बहुत खतरनाक था। इसके बाद आंदोलन ने और जोर पकड़ लिया और संसद और विधानसभाओं के घेराव होने लगे। आरएसएस ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसके कारण जनता में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी। मगर जब आपातकाल लगने के बाद उसके सदस्यों की गिरफ्तारियां शुरू हुईं, तो वे सरकार के सामने झुकने लगे। कई ने माफीनामों पर दस्तखत कर जेल से रिहाई हासिल की।
बीजेपी अपने आप को आपातकाल के प्रतिरोध का नायक सिद्ध करना चाहती हैं। इस मामले में सच क्या है, यह जानेमाने पत्रकार प्रभाष जोशी ने ‘तहलका’ पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में बताया था। उन्होंने लिखा था, “उस समय के आरएसएस मुखिया बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गाँधी को पत्र लिखकर संजय गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम के क्रियान्वयन में सहायता करने का आश्वासन दिया था। यह है आरएसएस का असली चरित्र। आप उसके व्यवहार में एक पैटर्न देख सकते हैं। आरएसएस और जनसंघ के कई कार्यकर्ता माफ़ीनामा देकर जेलों से बाहर आये। केवल उनके कुछ नेता जेलों में बने रहे – अटल बिहारी वाजपेयी (जो अधिकांश समय अस्पताल में रहे), एलके अडवाणी और अरुण जेटली। आरएसएस ने आपातकाल के खिलाफ कोई लड़ाई लड़ी हो, ऐसा बिलकुल नहीं है। ऐसे में बीजेपी आपातकाल के प्रतिरोध के केंद्र में खुद को क्यों रखना चाहती है, यह समझना मुश्किल है।”
देवरस के इंदिरा गांधी को लिखे पत्र एक पुस्तक “हिन्दू संगठन और सत्तावादी राजनीति” में प्रकाशित हैं। यह पुस्तक उन्होंने स्वयं लिखी थी और इसे जागृति प्रकाशन, नोएडा ने प्रकाशित किया था। उस समय आईबी के उप प्रमुख वी. राजेश्वर ने भी पत्र लिखे जाने की पुष्टि की थी।
पिछले दस सालों से हम क्या देख रहे हैं? सार्वजनिक सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियां हो रही हैं, पत्रकारों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लेनेवालों को जेलों में डाला जा रहा है, मुख्यधारा का मीडिया सत्ताधारी सरकार के आगे नतमस्तक है और सरकार की नीतियों के विरोधियों को राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है। हमने यह भी देखा कि 146 सांसदों को लोकसभा से निलंबित कर दिया गया। पिछले दस सालों में जो कुछ हुआ है, उसमें सत्ताधारी दल और उसके पितामह आरएसएस के प्यादों की भूमिका रही है।
पिछला एक दशक घोषित आपातकाल से भी बुरा था। यही कारण है कि 1975 के आपातकाल की कट्टर आलोचक नयनतारा सहगल ने पिछले एक दशक को “अघोषित आपातकाल” बताया है। वे लिखती हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं कि यहां अघोषित आपातकाल लागू है। हमने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बड़े पैमाने पर हमले देखे हैं। हमने देखा है निर्दोष और असहाय भारतीयों को मरते हुए केवल इसलिए, क्योंकि वे आरएसएस के भारत में फिट नहीं बैठते…कुल मिलाकर यह भयावह स्थिति है, यह एक दुस्वप्न है, जो आपातकाल से भी बुरा है…हालात इतने भयावह हैं कि उनकी तुलना किसी और दौर से नहीं की जा सकती।”
यहां तक कि बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी ने भी पिछले एक दशक को अघोषित आपातकाल बताया था। “आज देश में अघोषित आपातकाल है”, वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी ने सरकार के गठन के बाद ऐसा इशारा किया था। मगर फिर आरएसएस के दबाव में उन्होंने चुप्पी साध ली।
जब हम 1975 के आपातकाल की बात करते हैं, तो हमें उस अघोषित आपातकाल पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए, जो भारत में पिछले दस सालों से लागू है।
दया याचिकाएं और माफीनामे पेश करना हिन्दू दक्षिणपंथियों की पुरानी आदत है। सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए पांच दया याचिकाएं प्रस्तुत की थीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने 1942 में अपनी गिरफ़्तारी के बाद, इसी तरह का पत्र लिख कर रिहाई हासिल की थी। उन्होंने लिखा था कि उनका भारत छोड़ो आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है।
इसी तरह, आपातकाल में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गाँधी को दो पत्र लिखकर समर्थन की पेशकश की थी। उन्होंने विनोबा भावे से कहा था कि वे इंदिरा गाँधी से कह कर आरएसएस पर प्रतिबंध समाप्त करवाएं। अरुण जेटली ने आपातकाल की तुलना हिटलर के शासन से की थी। यह सच है कि फ़ासिस्ट ताकतें सड़कों पर लड़ने वाले अपने प्यादों की फ़ौज खड़ी करती हैं। पिछले एक दशक में, जर्मनी में ब्राउन शर्ट्स की तरह, भारत में भी लड़ाकों के कई समूह खड़े हुए हैं।
1975 के आपातकाल की चर्चा के साथ हमें पिछले एक दशक के अघोषित आपातकाल पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए। हिन्दू दक्षिणपंथियों की दया याचिकाएं और माफीनामे की आदत पुरानी है, और यह पिछले एक दशक में भी स्पष्ट रूप से दिखाई दी है।
(आलेख : डॉ. राम पुनियानी)
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