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गुरूवार, सितम्बर 11, 2025
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क्यों आदिवासी लोग धर्म नहीं बल्कि संस्कृति को मानते हैं?

धर्म और संस्कृति : आदिवासी दृष्टिकोण से एक गहन विश्लेषण

मानव सभ्यता के विकास की धारा में दो शब्द सबसे अधिक चर्चा में रहे हैं – धर्म और संस्कृति।
अक्सर दोनों को एक-दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है, जबकि सच यह है कि धर्म और संस्कृति की प्रकृति और भूमिका बिल्कुल अलग है।
धर्म जहाँ संगठित आस्था और सत्ता का औजार है, वहीं संस्कृति जीवन-शैली और सामूहिक स्मृति का रूप है।
विशेषकर आदिवासी समाज में यह फर्क और भी स्पष्ट दिखाई देता है।

धर्म क्या है?
धर्म का उद्भव मुख्यतः सामाजिक और राजनीतिक नियंत्रण के साधन के रूप में हुआ।

इसमें ईश्वर, देवता, ग्रंथ, कर्मकांड और पुरोहित वर्ग की व्यवस्था होती है।

धर्म सत्ता से जुड़कर जनता पर शासन का औजार बनता रहा है।

धर्म व्यक्ति को पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक और भय-आस्था की अवधारणाओं से बांधता है।
इसलिए कहा जा सकता है कि धर्म एक विचारधारात्मक ढांचा है, जो ऊपर से थोपा जाता है।

संस्कृति क्या है?
संस्कृति वह है, जो समाज के दैनिक जीवन में रची-बसी होती है।

भाषा, बोली, नृत्य, गीत, खान-पान, वस्त्र, तीज-त्योहार और सामूहिक मेल-मिलाप संस्कृति के अंग हैं।
संस्कृति किसी ग्रंथ से नहीं, बल्कि समाज के अनुभव और परंपराओं से जन्म लेती है।
यह स्वाभाविक है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती है।
इसीलिए संस्कृति मनुष्य के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी सांस लेना।

धर्म और संस्कृति में मूल अंतर
1. धर्म बदला जा सकता है, संस्कृति नहीं।
2. धर्म बाहरी सत्ता से नियंत्रित होता है, संस्कृति समाज की मिट्टी से उपजती है।
3. धर्म व्यक्ति को ऊपर (ईश्वर, ग्रंथ) की ओर झुकाता है, संस्कृति उसे आसपास (प्रकृति और समाज) से जोड़ती है।
4. धर्म में भय और आस्था है, संस्कृति में अपनापन और सामूहिकता।

आदिवासी समाज और धर्म
आदिवासी जीवन का आधार जल-जंगल-जमीन और प्रकृति है।

वे नदी, पहाड़, पेड़, धरती और आकाश को जीवित और पवित्र मानते हैं।
उनका विश्वास किसी संगठित धर्म या ग्रंथ पर नहीं, बल्कि प्रकृति पर आधारित है।
पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक जैसी अवधारणाएँ उनके जीवन में नहीं पाई जातीं।
आदिवासी समाज का धर्म दरअसल प्रकृति-पूजा (animism) है, न कि कोई संगठित मत।

आदिवासी समाज और संस्कृति
आदिवासी जीवन का हर पहलू उनकी संस्कृति में रचा-बसा है।

जन्म से मृत्यु तक हर रस्म सामूहिक संवेदनाओं के गीत, नृत्य और उत्सव से जुड़ी होती है।
उनके पर्व-त्योहार खेती, वर्षा और फसल से जुड़े हैं।
हाट-बाजार सिर्फ आर्थिक गतिविधि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मेल-मिलाप का केंद्र है।
उनकी संस्कृति ही उनके लिए जीवन का असली आधार है।

धर्म का लेबल और संस्कृति की जड़ें
इतिहास में आदिवासियों पर अलग-अलग धर्मों का लेबल लगाने की कोशिशें हुईं—

औपनिवेशिक काल में मिशनरियों ने उन्हें ईसाई घोषित किया।
स्वतंत्रता के बाद उन्हें “वनवासी” कहकर हिंदू धर्म में मिलाने का प्रयास किया गया।
कुछ जगहों पर इस्लाम या बौद्ध धर्म (धम्म) से भी उनका जुड़ाव हुआ।
लेकिन –
चाहे उन्हें किसी भी धर्म में गिना गया हो, उनकी संस्कृति नहीं बदली।
वे चर्च गए, पर अपने नृत्य और गीत नहीं छोड़े।
वे मंदिर पहुँचे, लेकिन अब भी पहाड़, नदी और प्रकृति को ही अपना देवता मानते रहे।

धर्म का नाम बदल सकता है, लेकिन संस्कृति की जड़ें नहीं हिलतीं।

संस्कृति क्यों धर्म पर हावी होती है?
धर्म बाहर से थोपा गया विचार है, जबकि संस्कृति भीतर से जिए जाने वाली जीवन-धारा है।
धर्म बदलना आसान है—नाम और पूजा-पद्धति बदलते ही धर्म बदल जाता है।
लेकिन संस्कृति बदलना असंभव है, क्योंकि यह भाषा, भोजन, पहनावा, त्योहार और जीवन-शैली में गहराई तक पैठी रहती है।
इंसान धर्म से अलग हो सकता है, पर अपनी संस्कृति से अलग होकर जी ही नहीं सकता।
इसीलिए इंसान की संस्कृति हमेशा उसके धर्म से ऊपर रहती है।

आदिवासी दृष्टि से व्यापक संदेश
आदिवासी समाज हमें यह सिखाता है—
असली पहचान धर्म से नहीं, बल्कि संस्कृति से बनती है।
संस्कृति ही वह धारा है, जो इंसान को समाज और प्रकृति से जोड़ती है।
धर्म बाँट सकता है, लेकिन संस्कृति जोड़ती है।
धर्म सत्ता का औजार है, लेकिन संस्कृति जीवन की आत्मा।

धर्म और संस्कृति का फर्क समझना आज बेहद जरूरी है।
आदिवासी समाज इसका जीवंत प्रमाण है कि संस्कृति ही असली पहचान है, धर्म नहीं।
किसी भी धर्म का लेबल उनके माथे पर चिपका दिया जाए, लेकिन उनकी जड़ें उनकी संस्कृति में ही रहती हैं।

🔹यही कारण है कि धर्म अस्थायी है, पर संस्कृति स्थायी।
🔹धर्म बदल सकता है, पर संस्कृति नहीं।
“और अंततः इंसान की संस्कृति हमेशा उसके धर्म पर हावी हो जाती है।”

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