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शुक्रवार, फ़रवरी 7, 2025
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संविधान और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की रक्षा के लिए एकजुट हों!

28 मई विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन था। यह वही सावरकर हैं जिन्होंने अंडमान के सेलुलर जेल से छूटने के लिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार से छह बार दया की भीख मांगी थी। जेल से उन्हें रिहाई तब मिली थी जब उन्होंने अंग्रेज सरकार से लिखित वायदा किया कि वे हर तरीक़े से उनको सहयोग देंगे और कांग्रेस, महात्मा गांधी और मुसलमानों के विरुद्ध काम करेंगे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने भारतीयों का आह्वान किया था कि भारत के उत्तर-पूर्व में लड़ रही आज़ाद हिंद फौज के विरुद्ध लड़ने के लिए अंग्रेज सेना में ज़्यादा से ज़्यादा भर्ती हों। यह वही सावरकर हैं जिन्होंने सबसे पहले अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ (1923) में यह लिखा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं जो कभी भी एक साथ नहीं रह सकते। उसके सत्रह साल बाद, 1940 में मुस्लिम लीग ने प्रस्ताव पारित कर अलग पाकिस्तान की मांग की थी। लेकिन सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा उससे तीन साल पहले, 1937 में ही अपने अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित कर चुकी थी कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकते।

यह वही सावरकर हैं जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल थे और गांधीजी के हत्यारे नाथुराम गोडसे और नारायण आप्टे जिन्हें अपना मेंटर मानते थे। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के समान लक्ष्यों के लिए समर्पित सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इसी हिंदुत्व की विचारधारा से बंधे हुए हैं और इस बात को याद रखने की ज़रूरत है कि हिंदुत्व की विचारधारा हमारे संविधान के बुनियादी आदर्शों और मूल्यों की विरोधी विचारधारा है। यह कितने शर्म और दुर्भाग्य की बात है कि संसद के नये भवन का उद्घाटन इसी विनायक दामोदर सावरकर के जन्मदिन पर किया गया और इस तरह संविधान की मूल भावना पर कुठाराघात किया गया।

संविधान के जिन मूल्यों और आदर्शों पर भारतीय लोकतंत्र टिका हुआ है, उन पर भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था आरएसएस ने कभी विश्वास नहीं किया। उन मूल्यों की पूरी तरह अवहेलना करते हुए नये संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक हिंदू राजतंत्र के प्रतीक चिह्न सेंगोल (राजदंड) को साधु-संतों और मठाधीशों की उपस्थिति में पूरे हिंदू धार्मिक विधि-विधान के साथ लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित किया है और इस तरह पूरे देश को यह संदेश दिया है कि आगे से संसद की कार्रवाई संविधान के अनुसार नहीं बल्कि हिंदू धर्म की परंपराओं के अनुसार चलेगी।

यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि हिंदू धर्म की परंपरा का अर्थ है, वर्णव्यवस्था आधारित ब्राह्मणवादी परंपरा। शायद यही वजह रही है कि भारत की राष्ट्रपति को, जो एक आदिवासी महिला हैं, संसद भवन के उद्घाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। नये संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर किया गया यह धार्मिक आयोजन एक शर्मनाक कृत्य था और धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक परंपरा पर कुठाराघात।

इस दिन को शर्मनाक बनाने के लिए शायद इतना ही पर्याप्त नहीं था। ठीक जिस दिन और जिस समय नये संसद भवन के उद्धाटन का आयोजन चल रहा था, उसी दिन और उसी समय पिछले 35 दिनों से जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी हमारे देश की महिला पहलवान, जिन्होंने ओलंपिक सहित कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया और तिरंगे झंडे को बुलंद किया, उनको पुलिस बलप्रयोग के साथ वहां से हटा रही थी। उनके साथ जोर-जबर्दस्ती कर गाड़ियों में बैठाकर थाने में ले जाया गया और उन पर दंगा फैलाने का आरोप लगाकर उनके विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज की गयी।

जिस समय हमारे खिलाड़ियों को जंतर मंतर से हटाया जा रहा था, उस समय उनके हाथ में तिरंगा झंडा था जबकि देश का प्रधानमंत्री तिरंगे और राष्ट्रीय चिह्न को भूलकर एक राजदंड के आगे नतमस्तक होकर गौरवान्वित हो रहा था। देश की ये खिलाड़ी सिर्फ यह मांग कर रही थीं कि यौन शोषण के दोषी भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह को, जिस पर यौन शोषण के आरोप है और जिसके विरुद्ध पोक्सो के अंतर्गत नाबालिग के यौन शोषण का भी आरोप है, पुलिस गिरफ़्तार कर जेल भेजे। विडंबना यह है कि यौन शोषण का यह आरोपी नये संसद भवन के उद्धाटन के भव्य आयोजन की शोभा बढ़ा रहा था, तो दूसरी तरफ हमारे देश को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाली खिलाड़ी पुलिस की जोर-जबर्दस्ती की शिकार बनाकर गिरफ्तार की जा रही थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस नये भारत की उद्घोषणा कर रहे थे, वह नया भारत कैसा होने जा रहा है, वह जंतर मंतर पर घटी घटना ने साबित कर दिया है।

आज हर भारतवासी को सोचने की ज़रूरत है कि जिस आज़ादी को हासिल करने के लिए हमारे देश के लाखों-लाख लोगों ने कुर्बानी दी और जिन्होंने विभिन्नताओं वाले इस देश के नागरिकों की एकता और आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संघात्मक गणराज्य की स्थापना की, क्या उसे ऐसे ही नष्ट हो जाने देंगे? स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों पर आधारित संविधान को एक ऐसी पुस्तक में तब्दील हो जाने देंगे जिसमें लिखी किसी बात का कोई मूल्य न रहे? जनवादी लेखक संघ की स्थापना जिस जनवाद की रक्षा के महत् उद्देश्य से प्रेरित होकर की गयी थी, वह जनवाद आज पहले के किसी भी समय से अधिक खतरे में हैं। केवल जनवाद ही नहीं, वे सभी मूल्य और आदर्श जो लोकतांत्रिक भारत की पहचान रहे हैं, उन पर आक्रमण किया जा रहा है।

यह समय लेखकों के एकजुट होने और लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए संघर्ष करने का है। जनवादी लेखक संघ लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों का आह्वान करता है कि वह इस सांप्रदायिक फासीवाद सरकार के विरुद्ध जनता के संघर्ष के साथ न केवल अपनी एकजुटता प्रदर्शित करे बल्कि लोकतंत्र की रक्षा केवल लिखकर ही नहीं बल्कि जनता के संघर्षों में शामिल होकर भी करे। (प्रस्तुति: जनवादी लेखक संघ)

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