गुरूवार, नवम्बर 21, 2024
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UAPA लगने के बाद: पत्रकार श्याम मीरा सिंह

न्यूज़ क्लिक पोर्टल में कार्यरत पत्रकार श्याम मीरा सिंह पर त्रिपुरा सरकार ने यूएपीए लगा दिया है। वह भी महज इसलिए कि उन्होंने त्रिपुरा दंगों पर टिप्पणी करते हुए ट्विटर पर tripura is burning लिख दिया था। त्रिपुरा की पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दायर की गयी एफआईआर में यही बात लिखी गयी है। श्याम मीरा अकेले नहीं हैं इसी तरह से 68 लोगों के खिलाफ यूएपीए लगाया गया है। यहां तक कि त्रिपुरा दंगों की जांच के लिए गए वकीलों के एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों पर भी यूएपीए लगा दिया गया है।

ऐसे में समझा जा सकता है कि त्रिपुरा की बीजेपी सरकार ने न सिर्फ अपने होश खो दिए हैं बल्कि वह किसी पागलपन का शिकार हो गयी है जिसके चलते वह इस तरह की ऊल-जुलूल हरकतों पर उतर आयी है। बहरहाल श्याम मीरा ने एफआईआर हासिल करने के बाद अपना पक्ष रखा है। जिसे उनके फेसबुक वाल से लेकर सीधे यहां दिया जा रहा है-संपादक)

त्रिपुरा में चल रही घटनाओं को लेकर, मेरे तीन शब्द के एक ट्वीट पर त्रिपुरा पुलिस ने मुझ पर UAPA के तहत मुक़दमा दर्ज किया है, त्रिपुरा पुलिस की FIR कॉपी मुझे मिल गई है, पुलिस ने एक दूसरे नोटिस में मेरे एक ट्वीट का ज़िक्र किया है। ट्वीट था- Tripura Is Burning”। त्रिपुरा की भाजपा सरकार ने मेरे तीन शब्दों को ही आधार बनाकर UAPA लगा दिया है।

पहली बार में इस पर हंसी आती है। दूसरी बार में इस बात पर लज्जा आती है, तीसरी बार सोचने पर ग़ुस्सा आता है। ग़ुस्सा इसलिए क्योंकि ये मुल्क अगर उनका है तो मेरा भी। मेरे जैसे तमाम पढ़ने-लिखने, सोचने और बोलने वालों का भी। जो इस मुल्क से मोहब्बत करते हैं, जो इसकी तहज़ीब, इसकी इंसानियत को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अगर अपने ही देश में अपने नागरिकों के बारे में बोलने के बदले UAPA की सजा मिले तब ये बात हंसकर टालने की बात नहीं रह जाती।
बोलने और ट्वीट करने भर पर UAPA जैसे चार्जेज लगाने की खबर पढ़ने वाले हर नागरिक को एक बार ज़रूर इस बात का ख़्याल करना चाहिए कि अगर पूरे मुल्क में एक नागरिक, एक समूह, एक जाति, एक मोहल्ला या एक धर्म असुरक्षित है तो उस मुल्क का एक भी इंसान सुरक्षित नहीं है। देर सबेर, एक न एक दिन इंसानियत और मानवता के हत्यारों के हाथ का चाकू आपके बच्चे के गर्दन पर भी पहुँचेगा।

मेरा इस बात में पक्का यक़ीन है कि अगर पूरा मुल्क ही सोया हुआ हो तब व्यक्तिगत लड़ाइयां भी अत्यधिक महत्वपूर्ण बन जाती हैं। कुछ भी बोलने कहने से पहले हज़ार बार विचार किया कि मैं अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हूँ कि नहीं। संविधान और इसके मूल्यों के लिए लड़ने वाली लड़ाई किसी ख़ास समाज को बचाने की लड़ाई नहीं है बल्कि अपने खुद के अधिकार, घर, परिवार, खेत खलिहानों, पेड़ों, बगीचों, चौराहों को बचाने की लड़ाई है। इसलिए अगर सामूहिक रूप से लड़ने का वक्त ये देश अभी नहीं समझता है तो व्यक्तिगत लड़ाई ही सही।

नफ़रत के ख़िलाफ़ संवैधानिक तरीक़े से बात रखना भी अगर जुर्म है, जो कि नहीं है। पर फिर भी अगर इंसानियत, संविधान, लोकतंत्र और मोहब्बत की बात करना जुर्म है तो ये जुर्म बार बार करने को दिल करता है। इसलिए कहा कि UAPAलगने की खबर सुनते ही पहली दफ़ा यही ख़्याल आया कि अगर इंसानियत की बात रखना जुर्म है तो ये जुर्म मैं बार बार करूँगा। इसलिए मुस्कुरा दिया।

मुझ पर लगाए निहायत झूठे आरोपों को मैं सहर्ष स्वीकारूँगा। अपने बचाव में न कोई वकील रखूँगा, न कोई अपील करूँगा। और माफ़ी तो कभी न मांगूंगा। लड़ाई सिर्फ़ मेरी नहीं है, मैं उन लाखों-अरबों लोगों में से एक हूँ जिन्हें एक न एक दिन लड़ते-भिड़ते मर ही जाना है, फिर किसी बात का दुःख करने का जी नहीं करता।

लेकिन ऐसे तमाम निर्दोष लोग हैं जो बीते वर्षों में UAPA के तहत फंसाए जा रहे हैं। ये शृंखला बढ़ती जा रही है, जिसकी डोर एक दिन अदालतों के दरवाज़ों से होती हुई अदालत में रखी “न्याय की देवी”तक पहुंच ही जाएगी। जिसे बचाने की ज़िम्मेदारी संविधान ने अदालतों में बैठने वाले न्यायाधीशों को दी है, जिन्होंने शपथ लेते हुए कहा था “मैं इस संविधान और इस देश के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करूंगा।” अगर इन न्यायाधीशों को लगता है कि इस मुल्क के साथ कोई भारी गड़बड़ है तो वो सोचेंगे। और संविधान प्रदत्त अपनी ताक़तों का इस्तेमाल इस मुल्क को बचाने के लिए करेंगे। इससे अधिक कुछ नहीं कहना।सत्यमेव जयते! (जनचौक से साभार)

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