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बस्तर का सच: विकास के नाम पर दमन या सुरक्षा? 50 से ज़्यादा संगठनों ने सरकार से की शांति वार्ता की पुरजोर अपील

– उत्तर प्रदेश के 50 से अधिक नागरिक संगठनों ने केंद्र सरकार से आदिवासी क्षेत्रों में सैन्य अभियान रोकने की मांग की।

– पत्र में बस्तर को “खुली जेल” बताते हुए मानवाधिकार उल्लंघन और कॉरपोरेट लूट के गंभीर आरोप लगाए गए।

– माओवादियों द्वारा शांति वार्ता की पेशकश के बावजूद सरकार पर हमले तेज करने का आरोप।

– नागरिक समाज ने कहा- माओवाद सामाजिक-आर्थिक समस्या है, कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं।

नई दिल्ली/लखनऊ (पब्लिक फोरम)। देश के आदिवासी बहुल इलाकों, विशेषकर छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में बढ़ती हिंसा और सैन्यीकरण को लेकर चिंता की एक गंभीर लहर उठी है। उत्तर प्रदेश के 50 से अधिक लोकतांत्रिक और प्रगतिशील जन संगठनों, छात्र समूहों और प्रतिष्ठित नागरिकों ने एक संयुक्त पत्र जारी कर केंद्र सरकार से इन क्षेत्रों में “आदिवासियों के खिलाफ छेड़े गए युद्ध” को तत्काल रोकने और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ शांति वार्ता के लिए एक सार्थक माहौल बनाने की जोरदार अपील की है।

यह अपील उस समय आई है जब केंद्र सरकार ने माओवाद को खत्म करने के लिए ‘ऑपरेशन कगार’ जैसे आक्रामक अभियान चला रखे हैं, और गृह मंत्री अमित शाह ने इसके लिए 31 मार्च, 2026 की समय सीमा तय की है।

विकास के नाम पर सैन्यीकरण और विस्थापन का आरोप

इस विस्तृत पत्र में नागरिक संगठनों ने दावा किया है कि छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और अन्य राज्यों के आदिवासी इलाके अभूतपूर्व सैन्यीकरण का सामना कर रहे हैं। पत्र के अनुसार, अकेले बस्तर संभाग में 2019 के बाद से 60,000 से अधिक सशस्त्र कर्मियों की तैनाती की गई है और 280 से ज़्यादा सैन्य कैंप स्थापित किए गए हैं। यह आँकड़ा बस्तर को दुनिया के सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक बनाता है, जहाँ औसतन हर नौ आदिवासियों पर एक सैनिक तैनात है।

संगठनों का आरोप है कि यह सैन्यीकरण माओवादियों से निपटने के नाम पर वास्तव में खनिज संपन्न भूमि को कॉर्पोरेट घरानों को सौंपने के लिए किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर, मार्च 2025 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 44 खनन ब्लॉकों की ई-नीलामी का जिक्र किया गया, जिसमें दंतेवाड़ा की बैलाडीला लौह अयस्क खदानें भी शामिल थीं। इस नीलामी में आर्सेलर मित्तल और रूंगटा स्टील्स जैसी दिग्गज कंपनियों ने बोली लगाई।

पत्र में एक विरोधाभास की ओर भी ध्यान खींचा गया है। छत्तीसगढ़, जो भारत के एक-तिहाई लौह और टिन अयस्क का भंडार है और सालाना लगभग 30,000 करोड़ रुपये का खनिज उत्पादन करता है, वह मानव विकास सूचकांक में 28 राज्यों में 26वें स्थान पर है। यहाँ गरीबी दर राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है, जो इस बात का सबूत है कि इस “विकास” का लाभ स्थानीय आदिवासियों तक नहीं पहुँच रहा है।

मानवाधिकार उल्लंघन और डर का खौफनाक माहौल

पत्र में मानवाधिकारों के हनन की दर्दनाक कहानियों का भी खुलासा किया गया है। यह आरोप लगाया गया है कि सैन्य अभियानों की आड़ में आम नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है।

निर्दोषों की हत्या: पत्र में दावा किया गया है कि केवल 2023 से अब तक 140 से अधिक आदिवासी महिलाओं को माओवादी बताकर मार दिया गया या प्रताड़ित किया गया।

हवाई हमले: 2021 से 2024 के बीच नागरिक इलाकों पर हवाई बमबारी की चार घटनाओं का उल्लेख है, जिसमें 2024 में मोर्टार फटने से दो बच्चों की मौत हो गई।

लोकतांत्रिक आवाजों का दमन: कॉर्पोरेट लूट का शांतिपूर्ण विरोध करने वाले आदिवासी कार्यकर्ताओं जैसे सुनीता पोट्टम, सुरजू टेकाम और रघु मिडयामी की गिरफ्तारी को लोकतांत्रिक आवाजों को चुप कराने की कोशिश बताया गया है।

प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी के एक मार्मिक कथन का हवाला देते हुए पत्र में लिखा गया “अगर किसी आदिवासी माँ के दो बेटे हैं, तो सरकार एक को सिपाही बनाकर बंदूक थमा देती है। दूसरा अपनी ज़मीन की रक्षा करता है। सरकार के लिए लड़ने वाला मारा जाए तो तिरंगे में लपेटा जाता है, लेकिन ज़मीन की रक्षा करने वाला मारा जाए तो उसके शव पर कीड़े होते हैं।” यह कथन क्षेत्र की भयावह मानवीय त्रासदी को दर्शाता है।

शांति की पेशकश पर ‘ऑपरेशन’ का जवाब

इन नागरिक संगठनों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि यह हिंसा एकतरफा नहीं है। सीपीआई (माओवादी) ने पाँच प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी कर शांति वार्ता की इच्छा जताई है। 3 अप्रैल, 2025 को जारी एक बयान में उन्होंने कहा था कि अगर सरकार सैन्य अभियान रोक दे तो वे युद्धविराम के लिए तैयार हैं।

लेकिन, इस पेशकश के जवाब में केंद्र सरकार ने 21 अप्रैल को ‘ऑपरेशन संकल्प’ शुरू कर दिया, जिसमें 25,000 से अधिक जवान तैनात किए गए। पत्र में आरोप है कि सरकार शांति वार्ता की बजाय माओवादी नेताओं को मारकर जश्न मना रही है, जो बातचीत की संभावनाओं को कमजोर करता है।

नागरिक समाज की मांग: बातचीत ही एकमात्र रास्ता

इस संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान सभा, आइसा, भीम आर्मी, नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स (NAPM) जैसे प्रमुख संगठनों के साथ-साथ कई शिक्षाविद, छात्र और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।

उनकी अंतिम और स्पष्ट मांग है कि केंद्र सरकार को यह समझना होगा कि माओवाद केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं, बल्कि यह दशकों के सामाजिक-आर्थिक अन्याय, विस्थापन और शोषण का परिणाम है। सरकार को सुप्रीम कोर्ट की 2010 की उस टिप्पणी को याद रखना चाहिए जिसमें कहा गया था, “एक गणतंत्र को अपने ही बच्चों को नहीं मारना चाहिए।”

इन संगठनों ने तत्काल सैन्य अभियान रोककर, माओवादियों के साथ बिना शर्त बातचीत शुरू करने का आग्रह किया है, ताकि मध्य भारत में स्थायी शांति स्थापित हो सके और आदिवासियों का रक्तपात बंद हो।

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