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गुरूवार, सितम्बर 11, 2025
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बूढ़ादेव तालाब पर गूंजी आदिवासियों की आवाज़: ‘हमारी धरोहर हमें लौटाओ’, भूमका समूह ने उठाई अपनी पहचान बचाने की मांग

रायपुर (पब्लिक फोरम)। विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर, जब पूरा विश्व जनजातीय संस्कृति और अधिकारों का जश्न मना रहा था, तब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आदिवासी समाज का एक समूह अपनी ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा था। भूमका समूह के नेतृत्व में गोंडवाना के आदिवासी समाज ने रायपुर के बूढ़ा तालाब स्थित ऐतिहासिक बूढ़ादेव ठाना में विशेष ‘सेवा गोगो’ (पूजा-अर्चना) का आयोजन किया। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य उस पवित्र स्थल की ओर ध्यान खींचना था, जो उनके पुरखों की निशानी है और जिसे वे अपनी ‘आन, बान और शान’ मानते हैं।

यह आयोजन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि अपनी पहचान और इतिहास को बचाने की एक भावुक अपील थी। समाज का आरोप है कि उनके गौरवशाली ऐतिहासिक धरोहर को मिटाने और खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है, जो उनके लिए गहरे खेद का विषय है।

उपेक्षित विरासत का दर्द

कार्यक्रम में शामिल आदिवासियों ने इस बात पर गहरा दुख व्यक्त किया कि राजधानी रायपुर में आदिवासियों के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन तो होते हैं, लेकिन इस मूल स्थल पर कोई चर्चा तक नहीं होती। उनका मानना है कि समाज के किसी भी सामाजिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए, क्योंकि यह स्थल उनकी जड़ों से जुड़ा है।

इस दर्द को और गहरा करने वाली एक घटना का भी उल्लेख किया गया। जब आदिवासी समाज अपनी पारंपरिक पूजन सामग्री, जैसे ‘बाना पेन शक्ति’, लेकर पूजा स्थल पर पहुंचे, तो गेटकीपर के द्वारा उनके वाहन को अंदर जाने से रोक दिया गया और इस बात को लेकर काफी झड़प भी हुई, ऊपर तक बात भी हुई। इस घटना ने उन्हें महसूस कराया कि अपनी ही धरती पर आज वे कितना उपेक्षित और बाहरी महसूस कर रहे हैं।

अस्मिता की पुनर्स्थापना के लिए प्रमुख मांगें

समाज के भूमका समूह ने अपनी भावनाओं को केवल शब्दों तक सीमित न रखते हुए शासन और प्रशासन के सामने कुछ ठोस मांगें रखी हैं। ये मांगें उनके अस्तित्व और संस्कृति के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं:-

नाम की पुनर्स्थापना: तालाब का नाम बदलकर पूर्ववत ‘बूढ़ादेव तालाब’ रखा जाए। वर्तमान में इसे आधिकारिक तौर पर स्वामी विवेकानंद सरोवर के नाम से घोषित कर दिया गया है, लेकिन स्थानीय समुदाय और आदिवासी समाज इसे आज भी बूढ़ा तालाब के नाम से ही जानता है।

सामाजिक भवन का निर्माण: स्थल पर एक सामाजिक भवन की तत्काल आवश्यकता है, ताकि पूजा-अर्चना (गोगो) से जुड़ी सामग्री को सुरक्षित रखा जा सके और बाहर से आने वाले लोगों को रात्रि विश्राम की सुविधा मिल सके।

मूर्ति का स्थानांतरण: बूढ़ादेव स्थल पर स्थित शंकर जी की मूर्ति को किसी अन्य उचित स्थान पर सम्मानपूर्वक स्थानांतरित किया जाए, ताकि स्थल का मूल स्वरूप बना रहे।

धरोहर की सुपुर्दगी: पूरे तालाब परिसर को आदिवासी समाज की धरोहर मानते हुए, इसके संरक्षण और प्रबंधन की जिम्मेदारी आदिवासी समाज को सौंपी जाए।

भूमका-सेवइकों के लिए जारी हो पास: सभी भूमका, सेवईक और बैगा (आदिवासी पुजारी) को शासन द्वारा विशेष पास जारी किए जाएं, ताकि वे बिना किसी रोक-टोक के पूजा-अर्चना के लिए आ-जा सकें।

कंकालिन दाई स्थल पर पूजा की अनुमति: कंकालिन दाई का संबंध भी जनजातीय समाज से रहा है और पूर्व में उनके पुरखे वहां सेवक हुआ करते थे। इसलिए, उन्हें वहां भी ‘सेवा गोगो’ की अनुमति दी जाए।

बूढ़ा तालाब का ऐतिहासिक संदर्भ
रायपुर का बूढ़ा तालाब सिर्फ एक जल निकाय नहीं, बल्कि इतिहास का एक जीता-जागता पन्ना है। गोंडवाना साहित्यों के अनुसार, इसका निर्माण 13वीं शताब्दी में राजा रायसिंह जगत ने करवाया था और इसका नामकरण अपने ईष्टदेव “बूढ़ादेव” के नाम पर किया गया था। हालांकि कुछ अन्य स्रोत इसका निर्माण 1402 के आसपास कलचुरी राजाओं द्वारा बताते फिरते हैं। उनके बताए अनुसार, बाद में, स्वामी विवेकानंद जी के रायपुर प्रवास के दौरान यहां आकर स्नान करने की याद में भाजपा के रमन सिंह सरकार द्वारा इसका नाम स्वामी विवेकानंद सरोवर कर दिया गया, लेकिन आदिवासी समाज इसे अपनी पहचान पर एक आघात के रूप में देखता है।

इस कार्यक्रम को सफल बनाने में तिरुमाल तरुण नेताम, दीनू नेताम और उनके समूह का विशेष सहयोग रहा। इस ऐतिहासिक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए आदिनिवासी गण परिषद का अत्यंत प्रेरक एवं अनोखा योगदान रहा। जिसने छत्तीसगढ़ सरकार को इस संबंध में ज्ञापन सौंप कर सिर्फ एक दिन के लिए, एक आयोजन मात्र नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति, इतिहास और पहचान को बचाने के लिए एक सतत संघर्ष की शुरुआत की है, जिसकी गूंज आने वाले समय में भी सुनाई देगी।

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