शनिवार, जुलाई 27, 2024
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ईरान की संघर्षरत महिलाएं ये जंग जरूर जीतें

कथित ‘ड्रेस कोड’ से गुस्ताखी के लिए ईरान की मॉरल पुलिस के हाथों हुई महसा अमिनी की मौत ने ईरान में एक खालिस बगाबत को जन्म दे दिया है. दमनकारी मज़हबी हुकूमत और जिंदगी की ज्यादा खराब होते हालात के खिलाफ ईरान की महिलाओं और मेहनतकश लोगों के बीच उभरती नाराजगी अब पूरे ईरान में विरोध प्रदर्शनों में फूट पड़ा है. हुकूमत द्वारा पहले ही पचास से अधिक लोगों के मारे जाने की घोषणा और कठोर दमन के बाबजूद भी बगाबत का फैलना जारी है।

महसा अमिनी एक 22 वर्षीय कुर्द महिला थी जो अपने परिवार से मिलने तेहरान आई थी. 13 सितंबर को उसे ईरान की कुख्यात मॉरल पुलिस द्वारा हिरासत में लेकर सही तरीके से हिजाब पहनने की ब्रीफिंग के लिए एक ‘पुनर्शिक्षण केंद्र’ भेजा गया था. जब उसका भाई पुलिस थाने में उसका इंतजार कर रहा था तभी परिवार को बताया गया कि उसे दिल के इलाज लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, जहां 16 सितंबर को उसकी मौत हो गई. चश्मदीदों की रिपोर्ट के मुताबिक उसे बुरी तरह से मारा-पीटा और जलील किया गया था।

महसा अमिनी की मौत की खबर से ईरान की महिलाओं के बीच सुलगता गुस्सा फूटकर थोड़े ही वक्त में सड़को पर उतर जनउभार और अंतरराष्ट्रीय महिला आंदोलन के इतिहास में हौसलादायी विरोध-प्रदर्शनों का एक नया अध्याय जोड़ दिया. उनके नारे ‘औरत, जिंदगी, आज़ादी’, ‘आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी’, ‘हम सभी महसा’ और ‘हम सब मिलकर लड़ेंगें’, दुनिया भर में गूंज रहे हैं. अपने कटे बालों को आंदोलन के झंडे के रूप में फहराने का उनका साहसिक काम आज़ादी के दीवानों और अपने अधिकारों के लिए लड़ने वालों की आने वाली कई पीढ़ियों के ख्यालों को रौशन करता रहेगा।

ईरान एक विविधताओं से भरा देश है और महसा अमिनी की दहला देने वाली मौत ने अलग-अलग पृष्ठभूमि के ईरानियों को उनके सामूहिक गम, गुस्से और विरोध-प्रदर्शन में एकजुट कर दिया है. अपनी निजी जिंदगी और मर्जी पर मज़हबी पाबंदी के खिलाफ ईरानी महिलाओं की लड़ाई के इर्दगिर्द अब हम राज्य व राज्य समर्थित निगरानी समूहों और क्रूर ताकत के जोर से आंदोलन को कुचलने के उनके प्रयासों को धता बताते हुए लोगों के विरोध की व्यापक लहरों को देख सकते हैं. अतीत के कई ऐतिहासिक उदाहरणों की तरह आज ईरान की महिलाएं जुल्मी मज़हबी हुकूमत के खिलाफ एक बड़े क्रांतिकारी आंदोलन में रहनुमा की भूमिका निभा रही हैं. और यही कारण है कि ईरान की संघर्षरत महिलाओं और लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय एकजुटता भी बढ़ रही है।

निश्चित रूप से धार्मिक कट्टरपंथियों और अमेरिकी हस्तक्षेप का समर्थन करने वालों द्वारा महसा अमिनी की मौत और इसके कारण ईरान में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों का उपयोग अपने इस्लामोफिबिक आख्यान का प्रचार करने और ईरान की हुकूमत में बदलाव के लिए शोर मचाने में किया जा रहा है. भारत में हिजाब पहनने के लिए महिलाओं को प्रताड़ित और अपमानित करने वाली ताकतें ईरान की प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए घड़ियाली आंसू बहा रही हैं. हिजाब मुद्दा नहीं है, मुद्दा निरंकुश और पितृसत्तात्मक ड्रेसकोड महिलाओं पर थोपने का है. जिस तरह ईरान या अफगानिस्तान में महिलाओं को उस ड्रेस कोड को अस्वीकार करने का पूरा अधिकार है जो हिजाब या इसे पहनने का एक विशेष तरीका को जरूरी बनाता है, उसी तरह भारत की महिलाओं को भी किसी भेदभावपूर्ण हुक्मनामे को अस्वीकार करने का पूरा अधिकार है जो उन्हें इसे पहनने से रोकता है।

महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों की लड़ाई फासीवादी प्रभुत्व वाले भारत में उतनी ही जरूरी है जितनी कि मज़हबी ईरान या यहां तक कि लोकतंत्र के स्वयंभू चैंपियन और निर्यातक संयुक्त राज्य अमेरिका में है, जहां महिलाओं को एक बार फिर से गर्भपात जैसे बुनियादी अधिकार के लिए लड़ना पड़ रहा है. अगर आज ईरान को मज़हबी नियंत्रण से मुक्त लोकतंत्र की खातिर संघर्ष करना पड़ रहा है, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि किस तरह साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने विभिन्न दौर में आधुनिक ईरान की तरक्की को धीमा किया है. यह सभी जानते हैं कि किस तरह से 1950 के दशक की शुरुआत में ईरान की लोकतांत्रिक मोहम्मद मोसद्देग की सरकार को सीआईए ने ऑपरेशन अजाक्स के तहत तख्तापलट कर ईरान को राजवंश पहलवी के राजशाही के मातहत करने का काम किया था. मोसद्देग की सरकार को प्रगतिशील राजनीति और खास तौर से ईरान में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करने के साहसिक कदम के लिए गिरा दिया गया था।

1979 की क्रांति में अंततः मज़हबी ताकतों ने हावी होकर ईरान को एक इस्लामी गणराज्य में बदल डाला, लेकिन अयातुल्ला खुमैनी के तहत ईरान की विदेश नीति के संदर्भ में पहलवी युग की इजरायल और अमेरिका के समर्थन की नीति पर वापस नहीं गया. यदि हम ईरान के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं को सुनें तो समझ आएगा कि ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और यूएस-इज़राइल एक्सिस द्वारा लगातार निशाना बनाने की नीतियां वास्तव में ईरान की दमनकारी हुकूमत को घरेलू समर्थन जुटाने और इसे वैध बनाने में मददगार है. अफगानिस्तान में अमेरिका ने दशकों तक सैन्य कब्जा रखने के बाद तालिबान को सत्ता हस्तांतरित कर बाहर निकल गया जो इस्लामी दुनिया में महिलाओं के अधिकारों और लोकतंत्र के नाम पर अमेरिकी आक्रमण और हस्तक्षेप की भयावह नीति के विनाशकारी नतीजे का एक और उदाहरण है।

भारत के भीतर भी हम इस बात से वाकिफ हैं कि कैसे संघ ब्रिगेड बहुरुपिए के माफिक मुस्लिम महिलाओं के लिए घड़ियाली आंसू बहाकर अपनी औरतों के प्रति नफरत और धर्मान्धता को छुपाता है. इसके तीन तलाक और अब हिजाब के खिलाफ चलाये गए मुहिम को मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण की फिक्र के सबूत के बतौर पेश किया जाता है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं के प्रति इसका रवैया समान नागरिकता के अधिकार के लिए चलाए जा रहे शाहीन बाग आंदोलन के दौरान स्पष्ट हो गया. इनके साथ दुर्भावनापूर्ण फरेब, साइबर बुल्लयिंग (ऑनलाइन डराना धमकाना) और बुल्ली बाई जैसे जहरीले ऐप्स के जरिए डिजिटल हमलों से लेकर कठोर कानूनों के तहत उत्पीड़न और साफ तौर से मुस्लिम महिला कार्यकर्ताओं के घर को बुलडोजर से नेस्तनाबूद कर देने की कारवाई संघ ब्रिगेड के उत्पीड़न और लगातार नफरत भरे व्यवस्थित मुहिम का परिणाम है. जकिया जाफरी की पुनर्विचार याचिका को अवमानना से खारिज करने, सह-याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की इंतकाम भरी गिरफ्तारी और बिलकिस बानो मामले में बलात्कारियों और हत्यारों को बेशर्मी से इनाम देने के साथ अब खुले तौर पर मुस्लिम महिलाओं के इंसाफ मांगने के हक से भी इंकार किया जा रहा है।

हमें ईरान की संघर्षरत महिलाओं को पूरे हक़-हक़ूक़ को हासिल करने और मज़हबी हुकूमत और पितृसत्ता से आजादी के लिए लड़ाई को गर्मजोशी और बिना शर्त समर्थन देना चाहिए. हम किसी भी प्रकार के पश्चिमी हस्तक्षेप से मुक्त ईरानी अवाम के अपने रास्ते खुद तय करने के अधिकार का भी समर्थन करते हैं. पितृसत्ता और स्त्री-द्वेष के खिलाफ संघर्ष सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी है और इसे लोकतंत्र की हर लड़ाई में एक बड़ी ताकत के बतौर देखा जाना चाहिए. ईरान की संघर्षरत महिलाएं ये जंग जरूर जीतें!

(Courtesy of the weekly news magazine ML Update)

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