शुक्रवार, नवम्बर 22, 2024
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बामसेफ के लोग मरे हुए बछड़े के भाव बिक गए, जबकि उन्हें उस भैंस के भाव बिकना चाहिए था जिसने ताज़ा बच्चा जना हो -साहेब कांशी राम

बात 26 फरवरी 1986 की है. सुबह के 6-7 बजे होंगे. साहेब कांशी राम चंडीगढ़ स्थित सरदार फ़तेह जंग सिंह के घर ठहरे हुए थे. एक कोआर्डिनेशन कमेटी जिसमें दस के करीब बामसेफ के कार्यकर्ता थे (राम खोब्रागड़े और डी. के. खापर्डे समेत) साहेब को मिलने पहुँचे. लेकिन साहेब ने यह कहकर मिलने से मना कर दिया की, ‘जाओ! मैं तुमसे किसी भी तरह की कोई बात ही करना नहीं चाहता.’ जब महाराष्ट्र के राम खोब्रागड़े ने यह कहा कि, ‘साहेब जी, हम आपके द्वारा तैयार किये हुए लोग ही हैं. आप मीटिंग में चलिए.’ तो साहेब ने मीटींग में यह कहकर चलने से साफ़ इंकार कर दिया कि, ‘मैंने आप लोगों को कोई तैयार नहीं किया.’

यह मीटिंग पंजाब के बामसेफ यूनिट ने साहेब की नाराज़गी को दूर करने के लिए बुलाई थी. इस मीटिंग में पूरे भारत से 15 राज्यों के बामसेफ-कार्यकर्ता पहुँचे थे, जो साहेब को मिलने से पहली वाली रात को इस बात का मंथन करते रहे कि आखिर बामसेफ और साहेब के बीच में जो खाई पैदा हो गई है उसे कैसे भरा जाए. लेकिन साहेब इस कद्र नाराज़ थे कि उन्होंने चंडीगढ़ में होते हुए भी मीटिंग में आने से इंकार कर दिया. साहेब शायद इस मीटिंग में आ भी जाते लेकिन उनका पंजाब के बामसेफ पदाधिकारियों से यह शिकवा था कि उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों को क्यूँ बुलाया है. साहेब का मानना था कि पंजाब के बामसेफ के लोगों को इतनी समझ ही नहीं कि महाराष्ट्र के कुछ लोग इनके कंधे पर बन्दूक रखकर चलाना चाहते हैं ताकि बामसेफ को पंजाब से छीनकर महाराष्ट्र ले जाया जा सके.

बामसेफ के एक नाराज़ लीडर जिसका संबंध लुधियाना शहर से है, ने मेरे साथ उसका नाम ना लेने की शर्त पर यह बताया कि जिस दिन बहुजन समाज पार्टी का गठन होना था उससे चंद दिन पहले ही चर्चा करने के लिए बामसेफ के लगभग सौ खास कार्यकर्ता दिल्ली के बिरला मंदिर में साहेब सहित इकट्ठे हुए थे. साहेब ने जब भविष्य की पूरी योजना बताई तो महाराष्ट्र के एक सीनियर बामसेफ कार्यकर्ता ने बिरला मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर अपने माथे पर हाथ मरते हुए कहा था कि *आज से बाबा साहेब का मिशन बहुत पीछे छूट जायेगा, क्यूंकि आज से कांशी राम का युग शुरू होने जा रहा है.* अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस कार्यकर्ता के यह कहने का अर्थ क्या था.

खास बात यह भी निकलकर आई कि बसपा की स्थापना से पहले ही साहेब के मिशन को तारपीडो करने के प्रयास शुरू हो गए थे. साहेब की यह बात सौ फ़ीसदी सच साबित हुई कि यदि ऐसी बात न होती तो महाराष्ट्र के लोग पटना के गाँधी मैदान में फिर अपनी ही बामसेफ से अलग क्यूँ हो गए थे? हालाँकि चंडीगढ़ की मीटिंग में हाज़िर होने के लिए कार्यकर्ताओं को जो निमंत्रण पत्र भेजे गए थे, उनपर साफ़ लिखा हुआ था कि मीटिंग को साहेब कांशी राम संबोधन करेंगे. सरदार गुरबचन सिंह पटियाला के मुताबिक जब साहेब इस मीटिंग में नहीं आये तो उस वक़्त पंजाब का वह बामसेफ नेता जो साहेब की ताकत को कमतर आंकने की भूलकर बैठा था, ने मीटिंग में सरेआम कहा कि, ‘आपमें से कोई ऐसा है जो कांशी राम को चुनौती दे.’ जब किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो उसने कहा कि, ‘फिर मैं कांशी राम को चुनौती दूँगा!’

दरअसल उस व्यक्ति की पर्दे के पीछे वाली मंशा यह थी कि कांशी राम, मायावती को राजनीतिक तौर पर कुछ ज्यादा ही प्रोमोट कर रहा है. उस व्यक्ति ने बामसेफ में यह भ्रम भी खड़ा किया कि मायावती का आन्दोलन में हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है. लेकिन यह एक भ्रम ही था, सच नहीं था. मायावती अपना मुकाम साहेब की रहनुमाई में खुद बना रही थी.

बामसेफ में एक यह भ्रम भी खड़ा करने का प्रयास किया गया कि बिजनौर, कैराना, और हरिद्वार आदि से कांशी राम, मायावती को ही बार-बार चुनाव क्यूँ लड़वा रहे हैं. असलियत यह थी कि साहेब देश के किसी भी कोने से मायावती को जिताकर पार्लियामेंट में भेजना चाहते थे. इस बात के पीछे साहेब का उद्देश्य यह था कि वह मायावती को संसद मेंबर बनाकर पूरे देश में उसकी सेवाएं ले सकें और अधिक से अधिक बहुजन समाज को तैयार कर सकें. सितम्बर 1985 में साहेब, मायावती को पंजाब के फिल्लौर संसदीय (पंजाब के फिल्लौर को चमारों की राजधानी कहा जाता है) चुनावी क्षेत्र से चुनाव-मैदान में उतारना चाहते थे, लेकिन यहाँ भी पंजाब-बामसेफ यूनिट ने अड़ंगा खड़ा कर दिया कि पंजाब के बारे में केवल पंजाब के लोग ही फैसला करेंगे. ये कुछ कारण हैं जिनकी वजह से साहेब का मन पंजाब बामसेफ से खट्टा हो गया था और दूरियाँ कम होने की बजाये और बढ़ती गईं.

पूरी की पूरी पंजाब बामसेफ ने साहेब को चैलेंज किया कि- कांशी राम हमारी इजाज़त के बगैर पंजाब की धरती पर पैर रखकर तो दिखाए! हम कांशी राम को पंजाब की धरती पर घुसने भी नहीं देंगे.

दरअसल, कुंठा में घिरे इन लोगों को कांशी राम साहेब का काम करने का तरीका समझ नहीं आया. साहेब ब्राह्मणवादी विपक्ष को समझने और अपने समाज में घूम घूमकर कई तरह के अनुभवों को हासिल कर चुके थे. समाज को आगे बढ़ाने के उनके प्रयास या कदम इन बड़े आसमानी अनुभवों से निकलते थे, जिसे शायद एक जल्दबाजी या निजी अहम् के चलते यह लोग समझ नहीं पाए. शायद यह एक ऐसा मुकाम था जहाँ पूरी की पूरी बामसेफ ही कांशी राम को ठीक से समझने में भूल कर बैठी.

बामसेफ की बाँट ने जलती हुई आग में तेल डालने का काम किया.

आखिर 9 और 10 जून 1986 को बामसेफ के नाराज़ गुट की और से एक मीटिंग दिल्ली की अग्रवाल धर्मशाला में बुलाई गई. यह वो जगह थी जहाँ 1973 में बामसेफ की संकल्पना की गई थी. इसमें बामसेफ को रजिस्टर करवाने का मता पास किया गया. इस मीटिंग ने जलती हुई आग में तेल डालने का काम किया जिसके परिणामस्वरूप सारी की सारी बामसेफ साहेब से अलग हो गई. उस समय के बहुत से बामसेफ के कार्यकर्ता साहेब ने अलग होने वाली बात पर आज भी सफाईयाँ देते हुए कहते हैं कि- उस समय दरअसल हमारी उम्र अल्हड़ थी और हम सीनियर कार्यकर्ताओं के कहने में आकर गुमराह हो गए. जिसका हमें अफ़सोस है.

1986 से 1996 तक उत्तर प्रदेश बामसेफ के अध्यक्ष रहे अजीत सिंह ने भी मुझसे मुलाकात में साहेब का साथ छोड़ना, अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती माना. इन सभी का मानना था कि हम तो उस वक़्त अल्हड़ उम्र में थे. *दरअसल हम बामसेफ के सीनियर बेईमान लोगों की चालों को समझ नहीं सके, और, जिसके परिणामस्वरूप आन्दोलन को एक बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी.* अगर बामसेफ के टाप मोस्ट लोगों ने ने यह गलती न की होती तो आन्दोलन का नक्शा आज कुछ और ही होता.

एक साथी ने साहेब को चंडीगढ़ स्थित दफ्तर में मिलकर दुःख ज़ाहिर करते हुए पूछा कि, ‘साहेब जी, यह क्या हो गया?’ तो साहेब ने जवाब में कहा, ‘मुझे बामसेफ के अलग हो जाने का दर्द नहीं है, दर्द इस बात का है कि इस बामसेफ में पंजाब के एक-दो साथी ऐसे हैं जिन्हें मैंने बहुत मेहनत से तैयार किया था. वह किसी भी काम को बढ़िया से संभाल लेते थे. मैं उनमें अपना अक्स देखता था. मैं ज़िन्दगी के किसी पड़ाव पर पहुँच कर उन्हें संगठन की बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपने के सपने देखता था. लेकिन अफ़सोस कि वह मुझे समझने में असमर्थ रहे. जिसका दर्द मुझे है. लेकिन ऐसा भी नहीं कि मैं इस दर्द को ही पकड़ के बैठा रहूँगा. भविष्य में मैं अपने समाज के हित में बहुत सारे बदलाव और तैयारी भी करूँगा और चौकन्ना भी रहूँगा.

आप लोग यहाँ से चले जाओ!

चंडीगढ़ के 24 सेक्टर में पी.जी.आई. के डॉक्टर क्लब में 27 जुलाई 1986 को एक भरी-पूरी मीटिंग थी, जिसे संबोधन करने के लिए साहेब विशेष तौर पर पहुँचे थे. साहेब ने कुछ लोगों की तरफ सरेआम उँगली का इशारा करते हुए कहा कि, ‘आप लोग यहाँ से चले जाओ. मैं मिशन को अपने तरीके से चलाऊँगा. जिस किसी ने भी मेरे साथ चलना है वह चले, वर्ना वह अपने घर वापिस चला जाये.’

इस मीटिंग में वह लोग बैठे थे जिन्होंने अग्रवाल धर्मशाला, दिल्ली में 9 और 10 जून 1986 को बामसेफ को रजिस्टर करवाने का समर्थन किया था. साहेब इस बात से काफी ख़फा थे. साहेब को वहाँ चार-पाँच लोग मिले भी लेकिन साहेब ने साफ़ कह दिया कि, ‘जिसने भी मेरे साथ चलना है, चले, वर्ना पीछे हट जाए.’ इस अवसर पर काफी बहस-मुबाहिसा भी हुआ. आखिर साहेब ने उन्हें यह कहकर वापिस मोड़ दिया कि, ‘मैं अब आपके साथ किसी भी सूरत में काम ही नहीं करना चाहता.’
बामसेफ को रजिस्टर करवाने वाला गुट यह दावा करता रहा कि हम लोगों ने कांशी राम को कहा था कि हम आपको 25 साल का समय देते हैं. 25 साल तक हम आपके रास्ते में नहीं आयेंगे. कोई भी नया राजनीतिक संगठन खड़ा नहीं करेंगे. आपके वोट नहीं काटेंगे. हाँ, हम थोड़ा-बहुत जो भी मिशन का काम करेंगे, वह भी आपके खाते में ही गिना जायेगा.

लेकिन उस अवसर पर मौजूदा एक चश्मदीन गवाह ने यह खुलासा किया कि 25 साल का समय देने जैसी कोई बात हुई ही नहीं थी. दूसरी बात कि बामसेफ के उन लोगों का यह दावा कि हम आज के बाद किसी भी राजनीतिज्ञ को बामसेफ का इस्तेमाल किसी राजनीतिक मंच के तौर पर नहीं करने देंगे. “जबकि बामसेफ के यही लोग अपने ही दावों के खिलाफ समय समय पर शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, राजनाथ सोनकर शास्त्री, राम लाल कुरील, राम सरूप वर्मा, राम विलास पासवान, छेदी लाल साथी और मुलायम सिंह यादव जैसे राजनीतिज्ञों को राष्ट्रिय सम्मेलनों में मुख्य मेहमान के तौर पर आमंत्रित करते रहे और यूँ, यह लोग बामसेफ को राजनीतिक मंच के तौर पर भी इस्तेमाल करते रहे.”

फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी भी फेल हो गई

बामसेफ और साहेब के बीच संबंधों को लेकर एक फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी का गठन किया गया था जिसमें फ़तेह जंग सिंह, गुरदेव भारती बाहड़ोवाल, मास्टर दौलत राम नकोदर और दो साथी और थे. इस कमेटी को भी साहेब की सहमती नहीं थी. आखिर यह कमेटी भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकी. यह कमेटी जब पहली बार साहेब को मिलने दिल्ली गई तो साहेब ने बामसेफ के खिलाफ बेहद सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया.
उसके बाद एक 16 सदस्यों वाली कमेटी भी बनाई गई जो साहेब और बामसेफ में तालमेल करवाने के मामले में अपने हाथ खड़े कर गई.

बामसेफ को खरीदने के लिए राजीव गाँधी ने रखा था 45 करोड़ का फण्ड

बामसेफ के टूट जाने के बाद साहेब ने बामसेफ के 125 के करीब ऊँचे कद वाले कार्यकर्ताओं पर बिक जाने का आरोप लगाया था. साहेब ने इस खरीदो-फरोख्त के पीछे महाराष्ट्र के एक बड़े कद के बामसेफ के नेता को ज़िम्मेदारी ठहराया था. इस साजिश का ‘हेड’ साहेब ने राजीव गाँधी को ठहराया. और, इस साजिश के दलाल होने का आरोप पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल अर्जुन सिंह को ठहराते हुए कहा था कि, *‘पूरी बामसेफ को खरीदने के लिए राजीव गाँधी ने 45 करोड़ का फण्ड रखा था.’* साहेब ने इस साजिश में अरुण नेहरु और एस.बी.चवान को भी राजीव गाँधी के साथ शामिल बताया था. साहेब ने इस घटनाक्रम के बाद बामसेफ के लोगों पर व्यंग कसते हुए कहा था कि, ‘ मेरे तैयार किये हुए लोग इतने सस्ते में बिक जायेंगे, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. मतलब जिन लोगों को उस भैंस के भाव बिकना चाहिए था जिसने ताज़ा बच्चा जना हो, वह लोग मरे हुए बछड़े के भाव बिक गए.’ साहेब ने आगे व्यंग करते हुए कहा कि, ‘बामसेफ नाम के आम को मैंने जितना चूसना था चूस लिया है, बाकि बची हुई गुठली को अब कोई भी अपने घर लेजा सकता है.’

जब साहेब ने बामसेफ के लोगों पर बिक जाने का आरोप लगाया तो सतनाम सिंह कैंथ दो-ढाई सौ कार्यकर्ताओं को लेकर बामसेफ के एक जाने-माने नेता के फगवाड़ा (पंजाब) स्थित दफ्तर के सामने धरने पर बैठ गया. शर्म के मारे उस नेता की हालत इतनी ख़राब हो गई कि वो शराब पी पी कर अपना हाल बद से बदतर कर बैठा. फिर उस नेता ने साहेब को दिल्ली में जाकर मिलने का इरादा किया. वह साहेब को मिला और सवाल किया, ‘साहेब जी, आपने पूरी बामसेफ पर ही बिक जाने का आरोप लगा दिया है. बताईये, क्या मैं बिका हुआ हूँ?’ साहेब का जवाब था, “कौन बिका है, कौन नहीं बिका, मेरे लिए सवाल यह नहीं है. जिस बामसेफ ने मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की कोशिश की है वह लोग अब जनता को सारी ज़िन्दगी अपने ‘न बिके होने का’ स्पष्टीकरण देते ही मर जाएंगे. ये लोग अब जहाँ भी जाएंगे, लोग इन्हें पीटने तक जायेंगे, और अब इन लोगों का कुछ बनना या संवरना भी नहीं.” अब अमेरिका में बस गए इस व्यक्ति का कहना है कि, ‘साहेब की दोनों बातें सौ-फ़ीसदी सच साबित हुई हैं. आज भी हम कहीं पर जाते हैं, लोग हम पर विश्वास करना तो दूर की बात है, वो हमें आखें दिखाते हुए पीटने तक जाते हैं. दूसरी बात, हमारे लाख प्रयासों के बावजूद हमारा कुछ भी नहीं बन पाया. आजकल पैगाम के साथ जुड़े बामसेफ के एक व्यक्ति ने मेरे पास खुलासा करते हुए कहा कि साहेब में बहुजन समाज का भरोसा ही इतना पैदा हो गया था कि कोई अनपढ़ से अनपढ़ बंदा भी हमारी किसी भी बात पर भरोसा करने को तैयार न हुआ. यहाँ तक के हमारे माँ बाप मरनी तो मर गए लेकिन वो एक बात हमें मरते दम तक बोलते रहे के आप लोग जरूर ही बिके होंगे. कयोकि साहेब कभी झूठ बोल ही नहीं सकते.

बामसेफ में से भी एक और बामसेफ निकलकर अलग हो गई

9-10 जून, 1986 में बामसेफ तो अलग हो गई. लेकिन आखिर में क्या कारण रहा कि बामसेफ के वह टाप मोस्ट लोग जिन्होंने साहेब के ऊपर तरह-तरह के आरोप लगाकर इतने बड़े आन्दोलन को हाशिये पर धकेलने का काम किया, वह खुद भी आपस में इकट्ठे होकर नहीं रह सके? इसकी वजह यह थी कि न तो उस बामसेफ में कोई कांशी राम था न ही कोई मायावती. आखिर 1990 में पटना के गाँधी मैदान में डी.के.खापर्डे, वामन मेश्राम, बी.डी.बोरकर, ( तीनों नागपुर के रहने वाले) खुद उस बामसेफ का दामन छोड़कर चले गए जिस बामसेफ की खातिर उन्होंने साहेब से अलग होना बेहतर समझा था . ऐसे में सरदार अजीत सिंह लुधियाना ने बामसेफ के इन ‘चौधरियों’ से दुखी होकर अलग होना ही बेहतर समझा. उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि, बामसेफ के इन ‘चौधरियों’ का मानना था कि बामसेफ के नेता को अपने हर कार्यकाल (तीन साल का एक कार्यकाल) में कम से कम तीन लीडर पैदा करने चाहिए. मगर वह नेता तीन बार कुर्सी पर बैठे रहने के बावजूद यानि लगभग दस साल बाद भी 9 लीडर तो क्या एक भी लीडर पैदा नहीं कर पाया. जब अजीत सिंह ने चंडीगढ़ के उस नेता को कुर्सी छोड़ने के लिए कहा तो उसका जवाब बड़ा हल्का था- ‘अभी तक तो कोई लीडर ही तैयार नहीं हुआ, तो मैं कुर्सी कैसे छोड़ दूँ?’ अजीज सिंह, साहेब के साथ छोड़ ने को अपना जिनदगी का सबसे बड़ा मुर्ख फैसला मानते हैं.गुजरात के पी.एल . राठौड़ ने कहा कि दिल्ली में बामसेफ के नराज लोगों ने मेरे सामने सरेआम अमन कुमार नागरा को कमीज़ के कालर से पकड़ के यह कहते हुए मीटिंग से बाहर कर दिया था कि आप कांशी राम के जासूस के रूप में यहाँ भी पहुँच गए हो.

मैं अपने विरोधियों को खुली चुनौती देता हूँ, कि वह बहुजन समाज को बाँटकर उनपर राज करें. लेकिन यह मेरा अधिकार है कि मैं उन्हें संगठित करके उनके छीने गए अधिकारों को वापिस दिलाऊँ -साहेब कांशी राम

-पंमी लाल़ो मजारा (बंगा, नवांशहर, पंजाब)

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