कोरबा (पब्लिक फोरम)। कोयले की चमक के नीचे कोरबा का एक स्याह सच दबा है, जहां लगातार फैलती खदानें, हसदेव के कटते जंगल और दशकों से न्याय की बाट जोहते विस्थापितों का दर्द भविष्य पर एक गंभीर चिंता की लकीर खींच रहा है। यह संकट सिर्फ जमीन और मुआवजे का नहीं, बल्कि लाखों लोगों की आजीविका, पर्यावरण और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व का है। इसी पीड़ा को आवाज देते हुए ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ ने भू-विस्थापितों के संघर्ष को अपना समर्थन देते हुए एक बड़े और निर्णायक आंदोलन का ऐलान किया है।
जड़ें उजाड़ता विकास: कृषि भूमि और आजीविका पर संकट
एक प्रेस वार्ता में ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक और गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित आलोक शुक्ला ने सामाजिक कार्यकर्ता शालिनी गेरा, लखन सुबोध और रमाकांत बंजारे के साथ मिलकर कोरबा की भयावह तस्वीर पेश की।
उन्होंने बताया कि 1960 के दशक से शुरू हुआ कोयला खदानों के विस्तार का सिलसिला आज भी जारी है, जिसने हजारों परिवारों को उनकी जड़ों से उजाड़ दिया है। एक तरफ साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) विस्थापन के नाम पर लोगों की जीवनरेखा छीन रहा है, तो दूसरी तरफ हसदेव जैसे जीवनदायी जंगल का विनाश पर्यावरण और जल संकट को गहरा कर रहा है, जिसका सीधा असर बची-खुची खेती पर भी पड़ रहा है। हसदेव के जंगल, जिन्हें ‘छत्तीसगढ़ का फेफड़ा’ भी कहा जाता है, न केवल जैव विविधता से समृद्ध हैं, बल्कि हाथियों और अन्य वन्यजीवों का महत्वपूर्ण निवास स्थान भी हैं।
कानून की अनदेखी और अधिकारों का हनन
“भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 की धारा 101 में यह स्पष्ट नियम है कि अगर अधिग्रहित भूमि पांच साल तक अनुपयोगी रहती है, तो उसे मूल किसानों को लौटा दिया जाना चाहिए। लेकिन इस नियम का पालन करने के बजाय, किसानों के मौलिक अधिकारों पर ही प्रहार किया जा रहा है।”
रोजगार नीति में बदलाव: छोटे किसानों पर दोहरी मार
पहले नियम था कि प्रत्येक खाते पर एक व्यक्ति को रोजगार मिलेगा, लेकिन एसईसीएल ने इसे बदलकर प्रति दो एकड़ पर एक रोजगार का प्रावधान कर दिया। इस बदलाव ने छोटे और सीमांत किसानों को रोजगार से वंचित कर दिया है, जो विस्थापन का सबसे बड़ा दर्द झेल रहे हैं। वे अपनी आजीविका से पूरी तरह वंचित हो गए हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि एक मामले में उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद एसईसीएल एक छोटे खातेदार को रोजगार देने को तैयार नहीं है।
भविष्य की ओर एक भयावह सवाल
विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी चिंता यह है कि आज जो कोयला खदानें विकास का इंजन मानी जा रही हैं, वे 20 से 40 सालों में धीरे-धीरे बंद हो जाएंगी। तब उन लाखों लोगों की आजीविका का क्या होगा जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन खदानों पर निर्भर हैं? उस समय न तो उपजाऊ कृषि भूमि बचेगी और न ही कोयला उद्योग। कोरबा के युवाओं का भविष्य किस ओर जाएगा, यह सवाल हर किसी को झकझोर रहा है।
कोरबा में अपनी जमीन और भविष्य के लिए संघर्ष करते भू-विस्थापित
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने साफ कर दिया है कि यह लड़ाई अब केवल मुआवजे या नौकरी की नहीं, बल्कि कोरबा के अस्तित्व को बचाने की है। जल्द ही जिले में पूरे प्रदेश के विस्थापितों का एक महासम्मेलन आयोजित किया जाएगा, जिसमें देश के बड़े किसान नेता और सामाजिक कार्यकर्ता जुटेंगे।
इस सम्मेलन में आंदोलन की भावी रणनीति तैयार की जाएगी, ताकि एसईसीएल को उसकी जिम्मेदारियों का एहसास कराया जा सके और विस्थापितों को न्याय मिल सके। यह आंदोलन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने की दिशा में एक निर्णायक कदम साबित होगा।










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