शनिवार, अक्टूबर 4, 2025
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व्यवस्था का यह चमकता चेहरा: जब शोषक ही बन जाए आपके आयोजनों का मुख्य अतिथि

विडंबनाओं का महोत्सव

कल्पना कीजिए, एक भव्य मंच सजा है। अवसर है न्याय, समानता और उत्थान के सिद्धांतों का उत्सव मनाने का। दर्शकों में वे लोग बैठे हैं, जिनकी आँखें उम्मीदों से भरी हैं, जो व्यवस्था से मरहम की आस लगाए हैं। तभी मंच पर मुख्य अतिथि का आगमन होता है। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच एक ऐसी शख्सियत का सम्मान किया जाता है, जिसकी पहचान उन सिद्धांतों के ठीक विपरीत है, जिनके लिए यह आयोजन हो रहा है। यह वह चेहरा है जिसने अनगिनत लोगों का शोषण किया है, अधिकारों को कुचला है और न्याय का गला घोंटा है। यह महज़ एक कल्पना नहीं, बल्कि हमारे समाज का एक कड़वा और नग्न सत्य है। यह उस व्यवस्था का बदसूरत चेहरा है, जहाँ शोषक को ही मसीहा बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है और पीड़ित मूकदर्शक बनकर अपने ज़ख्मों पर नमक छिड़कते देखने को विवश होता है। यह स्थिति केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक प्रवृत्ति है, जो राजनीति के दोगलेपन, सामाजिक पाखंड और सत्ता के क्रूर चरित्र को उजागर करती है।

राजनीति का दोगलापन: अपराधी का महिमामंडन

सत्ता और राजनीति की अपनी एक अलग नैतिकता होती है, जो अक्सर मानवीय मूल्यों और न्याय के सिद्धांतों से मेल नहीं खाती। इस दुनिया में शक्ति ही सबसे बड़ा सत्य है। एक व्यक्ति जो आज शोषक या अपराधी है, कल सत्ता के गलियारों में पहुँचकर “सम्मानित” जननेता बन सकता है। ऐसे व्यक्तियों को सार्वजनिक मंचों पर मुख्य अतिथि बनाना इसी दोगलेपन का जीवंत प्रमाण है। आयोजक जानते हैं कि ऐसे व्यक्ति को बुलाने से उन्हें संरक्षण मिलेगा, आर्थिक लाभ होगा और उनके आयोजन को “ऊँचा” दर्जा प्राप्त होगा। पहले के समय में किसी भी क्षेत्र के संभ्रांत और शालीन व्यक्ति को मुख्य अतिथि बनाया जाता था, लेकिन आज पैसे और भौकाल को ही सबसे बड़ी योग्यता मान लिया गया है।

यह प्रक्रिया एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जहाँ अपराधी अपनी छवि को साफ-सुथरा करने के लिए ऐसे आयोजनों का उपयोग करता है। मंच पर उसे मिला सम्मान, उसके गले में डाली गई मालाएँ और उसके पक्ष में पढ़े गए कसीदे, सब मिलकर उसके अपराधों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। यह एक तरह का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक खेल है, जहाँ जनता की याददाश्त को कमजोर करने की कोशिश की जाती है। जब लोग अपने शोषक को ही सम्मानित होते देखते हैं, तो उनके मन में एक भ्रम पैदा होता है। वे सोचने लगते हैं कि शायद वे ही गलत थे या समय के साथ सब कुछ बदल गया है। मीडिया और सोशल मीडिया इस खेल में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जहाँ अपराधियों और गैंगस्टरों का महिमामंडन करके युवाओं के मन में उनके प्रति एक झूठा आकर्षण पैदा किया जाता है।

पीड़ित के दृष्टिकोण से: न्याय का सार्वजनिक उपहास
इस पूरी प्रक्रिया का सबसे त्रासद और हृदयविदारक पहलू पीड़ित पर पड़ने वाला प्रभाव है। उस व्यक्ति के लिए यह कैसा अनुभव होगा, जिसने उस तथाकथित “मुख्य अतिथि” के हाथों सब कुछ खोया हो? यह उसके लिए न्याय की दूसरी मौत के समान है। यह एक ऐसा तमाचा है जो उसे यह एहसास दिलाता है कि इस व्यवस्था में उसके दर्द और उसकी पीड़ा का कोई मूल्य नहीं है। जब समाज उसी व्यक्ति को सम्मान देता है जिसने उसे तोड़ा है, तो उसका व्यवस्था पर से विश्वास पूरी तरह उठ जाता है।

यह केवल अपमान नहीं, बल्कि एक गहरा मनोवैज्ञानिक आघात है। यह पीड़ितों को यह संदेश देता है कि शक्ति और पैसा न्याय से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। कई बार यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर मामलों में भी, आरोपी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सम्मानित बने रहते हैं, जबकि पीड़ित न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होते हैं।यह स्थिति समाज में एक खतरनाक मिसाल कायम करती है। यह अन्य शोषकों को यह संदेश देती है कि वे कुछ भी कर सकते हैं और अपने धन और बल से किसी भी अपराध से बच सकते हैं।

विडंबना की पराकाष्ठा: जब रक्षक ही भक्षक बन जाए

यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब शोषक को ऐसे मंच पर सम्मानित किया जाता है, जिसका उद्देश्य ही शोषण का विरोध करना हो। उदाहरण के लिए:-

🔻भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेता का किसी ईमानदारी और पारदर्शिता पर आयोजित सेमिनार में मुख्य अतिथि बनना।
🔻मजदूरों के अधिकारों का हनन करने वाले उद्योगपति का मजदूर दिवस या मजदूरों के द्वारा आयोजित उत्सवों में सम्मान पाना।
🔻पर्यावरण को नष्ट करने वाली फैक्ट्री के मालिक का पर्यावरण संरक्षण के लिए आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन करना।
🔻महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्ति का महिला सशक्तिकरण के मंच से भाषण देना।

ये उदाहरण केवल हास्यास्पद नहीं, बल्कि व्यवस्था के नैतिक दिवालियेपन को दर्शाते हैं। यह दिखाता है कि हमारे समाज में प्रतीकों और सिद्धांतों का मूल्य खत्म हो गया है और अवसरवादिता ने हर चीज़ पर कब्जा कर लिया है। जब बहस और असहमति की आवाज़ को दबा दिया जाए और अन्याय के खिलाफ बोलने वालों को चुप करा दिया जाए, तो यह लोकतंत्र के लिए एक खतरे की घंटी है।

सामाजिक स्वीकृति और मौन की संस्कृति
सवाल यह उठता है कि समाज इस तरह के पाखंड को स्वीकार कैसे कर लेता है? इसके कई कारण हैं। पहला, एक बड़ा वर्ग उदासीन है। उसे लगता है कि यह सब राजनीति का हिस्सा है और वे इसे बदल नहीं सकते। दूसरा, डर का माहौल। सत्ता और शक्तिशाली लोगों के खिलाफ बोलने का साहस हर कोई नहीं कर सकता। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है, पहचान और अस्मिता की राजनीति का उदय। आज के समय में अपराध की गंभीरता से ज़्यादा अपराधी की जाति, धर्म या क्षेत्र को महत्व दिया जाने लगा है। लोग अपने समुदाय के शोषक नेता को भी “अपना” मानकर उसका समर्थन करते हैं और उसके अपराधों को नजरअंदाज कर देते हैं।

इस सामाजिक स्वीकृति के कारण, शोषक और भी मजबूत होता है। उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह कुछ भी गलत नहीं कर रहा है और समाज उसके साथ है। यह एक खतरनाक चक्र है जो समाज को नैतिक रूप से खोखला बना देता है।

चेतना का आह्वान
जब एक शोषक को मुख्य अतिथि की कुर्सी पर बैठाया जाता है, तो यह केवल एक व्यक्ति का सम्मान नहीं होता, बल्कि यह न्याय, नैतिकता और मानवीय गरिमा का अपमान होता है। यह उस व्यवस्था के चेहरे पर एक तमाचा है, जो समानता और न्याय का वादा करती है। यह उस समाज के पतन का संकेत है, जो अपने नायकों और खलनायकों के बीच का अंतर भूल चुका है।

(Author)

इस अँधेरे से निकलने का रास्ता सामाजिक चेतना और साहस से होकर जाता है। हमें यह समझना होगा कि चुप रहना भी एक तरह की स्वीकृति है। हमें सवाल पूछने होंगे। हमें ऐसे आयोजनों का बहिष्कार करना होगा। हमें उन पीड़ितों के साथ खड़ा होना होगा, जिनकी आवाज को दबाया जा रहा है। जब तक समाज अपने शोषकों को उनकी सही जगह, यानी न्याय के कटघरे में, नहीं दिखाता, तब तक ऐसे “मुख्य अतिथि” हमारे ज़ख्मों पर नमक छिड़कते रहेंगे और न्याय का उपहास करते रहेंगे। इतिहास गवाह है कि सत्य को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है, लेकिन उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। असली बदलाव तभी आएगा जब आम नागरिक इस पाखंड को अस्वीकार कर देगा और व्यवस्था को उसका असली चेहरा दिखाने के लिए मजबूर कर देगा।

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