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रविवार, अक्टूबर 5, 2025
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नन्हें कंधों पर “हिंदू राष्ट्र” का भार: कोरबा में एक वर्षीय शिशु संघ के गणवेश में, RSS के शताब्दी वर्ष पर भविष्य की झलक?

कोरबा (पब्लिक फोरम)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने स्थापना के सौ साल पूरे होने का जश्न मना रहा है। देशभर में शताब्दी वर्ष को लेकर उत्साह का माहौल है और भविष्य के “हिंदू राष्ट्र” की नींव को मजबूत करने की तैयारियां जोरों पर हैं। इसी उत्साह और तैयारी की एक दिलचस्प और उतनी ही विचारणीय तस्वीर छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले से सामने आई है। शहर की पुरानी बस्ती में आरएसएस के एक कार्यवाहक अध्यक्ष के एक वर्षीय पुत्र को संघ के पूर्ण गणवेश, यानी हाफ पैंट में देखकर हर कोई हैरान है। इस नन्ही सी उम्र में संघ की विचारधारा का चोला पहनाना क्या भविष्य के भारत की एक झलक है या फिर बचपन पर विचारधारा का एक अनावश्यक बोझ?

यह तस्वीर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। क्या एक साल का बच्चा, जो अभी ठीक से दुनिया को समझ भी नहीं पाया है, किसी राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा को समझने में सक्षम है? क्या यह बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं है? और सबसे बड़ा सवाल, क्या “हिंदू राष्ट्र” के मिशन को पूरा करने के लिए हमें अगली पीढ़ी को इस तरह तैयार करने की जरूरत है?

शताब्दी वर्ष और “हिंदू राष्ट्र” का एजेंडा

आरएसएस की स्थापना 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। इसका घोषित उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित और मजबूत करना है। संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर, देशभर में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें पथ संचलन और शस्त्र पूजन शामिल हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी अपने कई संबोधनों में “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा पर जोर दिया है। उनका कहना है कि एक सशक्त और एकजुट हिंदू समाज ही देश की सुरक्षा और अखंडता की गारंटी है।

हालांकि, “हिंदू राष्ट्र” की यह अवधारणा अक्सर विवादों में रही है। आलोचकों का मानना है कि यह भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए खतरा है और यह देश के अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा करता है। ऐसे में एक छोटे बच्चे को संघ के गणवेश में देखना, इस बहस को और हवा देता है।

गणवेश का बदलता स्वरूप और विचारधारा का प्रतीक

आरएसएस का गणवेश हमेशा से उसकी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। शुरुआत में खाकी हाफ पैंट, सफेद शर्ट और काली टोपी संघ की पहचान थी। हालांकि, समय के साथ इसमें बदलाव हुए और 2016 में खाकी हाफ पैंट की जगह भूरे रंग की फुल पैंट ने ले ली। यह बदलाव युवाओं को आकर्षित करने और अपनी छवि को आधुनिक बनाने के प्रयास के रूप में देखा गया। लेकिन आज भी कई मौकों पर, खासकर छोटे बच्चों के लिए, हाफ पैंट का ही इस्तेमाल किया जाता है, जो संघ की पारंपरिक छवि को बनाए रखता है।

यह गणवेश सिर्फ एक पहनावा नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा का प्रतीक है। इसे धारण करने वाला व्यक्ति संघ के अनुशासन, राष्ट्रप्रेम और संस्कारों को अपनाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एक साल के बच्चे पर इस विचारधारा का बोझ डालना उचित है?

बचपन का राजनीतिकरण: एक चिंताजनक प्रवृत्ति

यह घटना बचपन के राजनीतिकरण की एक बड़ी और चिंताजनक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है। राजनीतिक दल और संगठन अक्सर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल करते हैं। चाहे वह चुनावी रैलियों में बच्चों को शामिल करना हो या फिर उन्हें अपनी विचारधारा के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना हो, यह सब बच्चों के कोमल मन पर गहरा और स्थायी प्रभाव डाल सकता है।

मनोवैज्ञानिकों का मानना ​​है कि बचपन सीखने और दुनिया को अपनी नजरों से देखने का समय होता है। इस उम्र में बच्चों पर किसी खास विचारधारा को थोपना उनके प्राकृतिक विकास में बाधा डाल सकता है और उनकी सोचने-समझने की क्षमता को सीमित कर सकता है।

लगन हो तो ऐसी, पर किस कीमत पर?

कोरबा की यह घटना इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि हम अपने बच्चों को कैसा भविष्य देना चाहते हैं। क्या हम उन्हें एक ऐसी दुनिया देना चाहते हैं, जहां उन्हें बचपन से ही राजनीतिक और वैचारिक खेमों में बांट दिया जाए, या फिर एक ऐसी दुनिया जहां वे स्वतंत्र रूप से सोच सकें और अपने रास्ते खुद चुन सकें? संघ के “हिंदू राष्ट्र” के उनके अपने एजेंडे को पूरा करने की लगन सराहनीय हो सकती है, लेकिन इसकी कीमत हमारे बच्चों के बचपन और उनकी स्वतंत्रता से नहीं चुकानी चाहिए। यह समय है कि हम सब मिलकर इस पर विचार करें और यह सुनिश्चित करें कि हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित और उज्ज्वल हो, किसी विचारधारा के बोझ तले दबा हुआ नहीं।

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