प्रोफ़ेसर साईबाबा को बरी करने के हाईकोर्ट के फैसले को स्थगित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कानून के जो सवाल उठाए हैं, वे दिलचस्प भी हैं और फैसलाकुन भी।
हाई कोर्ट का तर्क यह है कि किसी आरोपी के खिलाफ चाहे कितना ही गंभीर मामला बनाया गया हो, कानून के अनुपालन के मामले में किसी भी तरह की प्रक्रियागत छूट नहीं ली जा सकती।
कानून का राज कानून के निर्धारित प्रक्रिया के पालन करने में ही है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि चूंकि आरोप बेहद गंभीर हैं, इसलिए प्रक्रिया के अनुपालन जैसी मामूली बातों के आधार पर आरोपी को बरी नहीं किया जा सकता।
यानी अगर आरोप गंभीर हैं तो आरोपी को बिना समुचित कानूनी प्रक्रिया के ही आठ 10 साल जेल में बंद रखा जा सकता है।
यहां बहस का बुनियादी मुद्दा यह है कि कानून किसके लिए है, राज्य की दमनकारी शक्ति से नागरिक की रक्षा के लिए या नागरिक से राज्य की सुरक्षा के लिए?
याद रखने की जरूरत है कि कानून का राज की अवधारणा नागरिक की अवधारणा के साथ बुनियादी रूप से जुड़ी हुई है।
कानून के राज के बिना कोई नागरिकता नहीं हो सकती। यानी कानून का राज की बात राजकीय दमन के खिलाफ नागरिक की सुरक्षा के लिए ही सामने लाई गई थी।
अगर आप मानते हैं कि कानून नागरिक की रक्षा के लिए है तो आप कानून के राज और लोकतंत्र के पक्षधर हैं।
इसके विपरीत अगर कोई मानता है कि कानून राज्य की सुरक्षा के लिए है तो निस्संदेह वह सर्वसत्तावादी राज्य और फासीवाद के पक्ष में है।
जाहिर है कि इन सवालों के जवाब पर केवल प्रोफ़ेसर साईबाबा की रिहाई ही नहीं, देश में लोकतंत्र का भविष्य भी निर्भर करता है।
यह भी जाहिर है यह लड़ाई केवल अदालतों में नहीं लड़ी जाएगी। यह आखिरकार हिंदुस्तान की आवाम के दिमाग में ही लड़ी जाएगी।
-शंकर लाल चौधरी : ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम
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