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‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम पर विवादों का सिंदूर: युद्ध के नाम पर व्यापार और राजनीति का खेल? मुकेश अंबानी की कंपनी पर नाम के दावे की खबर ने उठाया तूफान

भारत और पाकिस्तान के बीच संभावित सैन्य कार्रवाई को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम दिए जाने की चर्चा ने जहां एक ओर राष्ट्रीय सुरक्षा के संवेदनशील मामले को सुर्खियों में ला दिया है, वहीं इस नाम से जुड़ा एक चौंकाने वाला घटनाक्रम सामने आया है। खबर है कि देश के एक बड़े व्यापारिक घराने, मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज, ने इस नाम के ‘ट्रेडमार्क’ या पंजीकरण के लिए आवेदन किया है। युद्ध जैसे गंभीर दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े किसी संभावित मिशन के नाम पर एक निजी कंपनी के दावे की इस खबर ने देश भर में हैरानी, आक्रोश और गंभीर सवालों की लहर पैदा कर दी है। यह घटना राष्ट्रवाद, व्यापारिक अवसरवादिता और सत्ता-व्यापार के कथित गठजोड़ पर नई बहस छेड़ रही है।

नाम का चुनाव और उसके निहितार्थ
‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम के चयन को लेकर शुरुआत से ही कई तरह की बातें हो रही हैं। कुछ विशेषज्ञ इसे पितृसत्तात्मक प्रतीक के तौर पर देख रहे हैं, तो कुछ का मानना है कि यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विरासत को चोट पहुंचा सकता है। यहां तक कि कुछ आलोचक इसे एक ‘हिंदू राष्ट्र’ के घरेलू मॉडल के अंतरराष्ट्रीय विस्तार की तरह भी देख रहे हैं। यह नाम, जिसने मशहूर फिल्मी डायलॉग ‘एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू’ की याद दिला दी है, अब एक गंभीर रणनीतिक चर्चा से हटकर एक नए किस्म के विवाद में फंस गया है।

हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह नामकरण सरकार की ओर से हुआ है या किसी अन्य स्तर पर। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सेनाध्यक्षों के सामने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचार के तौर पर सुझाया गया था। नाम की सार्थकता और आवश्यकता पर बहस हो सकती है, लेकिन जिसने भी इस नाम को चुना है, उसने निश्चित रूप से एक ऐसा कदम उठाया है जो अप्रत्याशित परिणामों को जन्म दे रहा है।

युद्ध के मुहाने पर व्यापार का अवसरवाद?
सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि जब पूरा देश संभावित युद्ध की स्थिति में एकजुट है और सैनिक से लेकर आम नागरिक तक हर बलिदान के लिए तैयार हैं, ऐसे समय में कोई व्यावसायिक घराना किसी सैन्य अभियान के नाम पर सर्वाइवल लेने के बारे में कैसे सोच सकता है? और यदि ऐसी खबर सही है, तो इसे किस श्रेणी में रखा जाए? क्या यह सिर्फ राष्ट्रभक्ति की भावनाओं का उल्लंघन ही नहीं है, बल्कि मानवीय और नैतिक मूल्यों का पतन भी है?

इससे भी बढ़कर, एक राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े नाम या प्रतीक पर, जो केवल और केवल सरकार और अंततः देश की जनता का अधिकार क्षेत्र है, कोई निजी कंपनी कैसे दावा कर सकती है? राष्ट्रीय चिन्हों, नामों और प्रतीकों पर सरकार का एकाधिकार होता है और उनका उपयोग जनता के हित के लिए ही होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति या कंपनी उन पर निजी दावा करती है, तो यह न केवल लोकतांत्रिक-संवैधानिक विचारधारा के खिलाफ है, बल्कि एक गंभीर अपराध भी है, जिस पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। कहीं कल को कोई अशोक स्तंभ या अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों का भी व्यवसायिक लाभ उठाने के लिए पंजीकरण न करवा ले?

सत्ता और व्यापार का कथित गठजोड़
दरअसल, आलोचकों का मानना है कि यह घटनाक्रम वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान से अपनी करीबी का फायदा उठाने की एक कोशिश हो सकती है। उनका तर्क है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौरान बड़े व्यावसायिक घराने सरकारी मामलों से एक निश्चित दूरी बनाए रखते थे, लेकिन मौजूदा सरकार के साथ उनकी नजदीकी इस स्तर तक पहुंच गई है कि वे राष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी व्यावसायिक अवसर तलाश रहे हैं।

इस संदर्भ में, प्रधानमंत्री द्वारा स्थापित पीएम केयर्स फंड का उदाहरण भी दिया जा रहा है, जिसे सरकारी कोष होने के बजाय एक निजी ट्रस्ट के रूप में स्थापित किया गया, जिस पर सरकार का सीधा नियंत्रण नहीं है। आलोचकों का कहना है कि यह मानसिकता दर्शाती है कि सरकार को एक ‘कामधेनु’ गाय की तरह देखा जा रहा है, जिसका उपयोग अपने और करीबियों के फायदे के लिए किया जा सकता है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम पर कथित व्यावसायिक दावा इसी मानसिकता का विस्तार प्रतीत होता है।

शौर्य पर राजनीति और वोट का खेल
इस घटनाक्रम का एक और चिंताजनक पहलू सैन्य शौर्य के राजनीतिकरण का है। पाकिस्तान पर संभावित कार्रवाई अभी पूरी तरह से अमल में भी नहीं आई है, लेकिन विभिन्न विचारधाराओं के पोस्टरों और सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की तस्वीरें दिखने लगी हैं। इनमें कहीं नेता फौजी वर्दी में दिख रहे हैं, तो कहीं सैन्य कार्रवाई का श्रेय उन्हें दिया जा रहा है। सैनिकों के बलिदान और शौर्य का महिमामंडन करने के बजाय, इसे नेताओं के पक्ष में भुनाने की कोशिश साफ दिखाई दे रही है। यह तब है जब वास्तविक कार्रवाई करने वाले सैनिक और उनके अधिकारी पृष्ठभूमि में हैं।
वहीं दूसरी ओर, जो भी नेता या दल इस संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दे पर सरकार से कोई वाजिब सवाल उठाने की कोशिश करता है, उसे तुरंत ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दे दिया जाता है। क्या वोट की राजनीति सिर्फ एक दल का अधिकार है? क्या बाकी दल और उनके नेता देशहित के बारे में नहीं सोचते?

लोकतंत्र की अनदेखी?
राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने के लिए सभी राजनीतिक दल सरकार के साथ सहयोग कर रहे हैं, यहां तक कि संभावित कमियों और कमजोरियों के बावजूद सरकार से सीधा सवाल करने से बच रहे हैं। सर्वदलीय बैठकें इसी सहयोग और आम सहमति बनाने का मंच होती हैं। संभावित सैन्य कार्रवाई के मुद्दे पर अब तक दो सर्वदलीय बैठकें हो चुकी हैं। हालांकि, यह देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी इनमें से किसी भी बैठक में शामिल होना जरूरी नहीं समझते। दुबई से वापस आकर बिहार में चुनावी रैली के लिए उनके पास समय था, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अति गंभीर मुद्दे पर राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलना उन्होंने जरूरी नहीं समझा।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक दल और उनके नेता संसदीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। युद्ध जैसी स्थिति में सरकार के मुखिया की प्राथमिक जिम्मेदारी सभी दलों को विश्वास में लेना और उन्हें हर अपडेट से अवगत कराना होता है। प्रधानमंत्री का इन बैठकों से नदारद रहना यह संदेश दे सकता है कि वे खुद को सभी दलों से ऊपर मानते हैं और उनका समर्थन प्राप्त करना उनकी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि बाकी दलों का कर्तव्य है।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ – भावनाओं का दोहन?
अंततः ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम का चयन, जिसे कुछ लोग शहीदों या पीड़ितों (जैसे पहलगाम में मारे गए सैलानियों की विधवाएं, जैसा कि मूल लेख में अप्रत्यक्ष रूप से जिक्र है) से जुड़ी भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, कहीं न कहीं एक दिखावा या भावनाओं का दोहन ही प्रतीत होता है। यदि इस नाम का चयन वास्तव में किसी पवित्र भावना के तहत किया गया होता, तो इसका इस तरह से व्यावसायिक इस्तेमाल रोकने के लिए तत्काल सरकारी स्तर पर कदम उठाए जाते। लेकिन ऐसा कोई प्रयास न सरकार की ओर से हुआ और न ही कथित तौर पर नाम पर दावा करने वालों को तुरंत रोका गया।
कुल मिलाकर, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम से जुड़ा यह पूरा घटनाक्रम, संभावित सैन्य कार्रवाई की गंभीरता के बावजूद, व्यापारिक अवसरवादिता, राजनीतिक फायदे और सत्ता के कथित दुरुपयोग के गंभीर सवालों को सामने ला रहा है। यह दर्शाता है कि कैसे राष्ट्रीय भावना को भी व्यावसायिक और राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, और जब व्यापार खून में शामिल हो जाता है, तो ऐसे घटनाक्रमों के लिए देश को शायद तैयार भी रहना चाहिए।

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