गुरूवार, दिसम्बर 5, 2024
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हुड़दंग का बेशर्म ढंग, फासी गिरोह की नई तरंग

फिल्म पठान के जिस गाने को लेकर यह सारा प्रपंच रचा गया है, उसमें कुछ भी नया नहीं है.

फिल्म को जनवरी में रिलीज होना है और हुड़दंगियों ने अभी से तूमार खड़ा करना शुरू कर दिया है। पूरे का पूरा गिरोह टूट पड़ा है। स्वयंभू साधुओं से लेकर सांसद, मंत्रियों से लेकर बजरंगियों तक सब के सब एक ही काम पर लगे हैं। “तोड़ दो, फोड़ दो, मिटा दो, जला दो” के उकसावे भरे आव्हान किये जा रहे हैं। भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने हिन्दू होने की परिभाषा पुनर्परिभाषित कर दी है। उनके हिसाब से “सच्चा हिन्दू वही है जो न इस फिल्म को देखेगा, न चलने देगा।” एक कथित साधु महाराज ने, जिन थियेटरों में यह फिल्म दिखा जाएगी, उन्हें जलाने का युद्धघोष ठोक मारा है। गुजरात की विहिप और बजरंग दल ने गुजरात में इस फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग उठाई है और ऐसा न होने पर उन थियेटर मालिकों को परिणाम भुगतने की चेतावनी सुनाई है। शुरुआत मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने की और फिल्म के गाने को हिन्दू संस्कृति, मान मर्यादा, धर्म और न जाने किस–किस के विरुद्ध बता डाला। इसके बाद दीमकों की सारी बाम्बियां खुल गयी और सब कुछ कुतरने और हजम करने के लिए निकला पड़ी हैं।

जो बात सारे फ़साने में जिसका जिक्र नहीं / वो बात फासी घराने को बहुत नागवार गुजरी है। फिल्म पठान के जिस गाने को लेकर यह सारा प्रपंच रचा गया है, उसमें कुछ भी नया नहीं है ; ना ऐसा नृत्य भारत की फिल्मों में पहली बार हुआ है, न ऐसे वस्त्र पहली बार उतारे या पहने गए हैं, ना ऐसे बोल – अगर गाने में कोई बोल हैं तो – पहली बार बोले गए हैं। भारत और दुनिया की फिल्मों में ऐसे और इससे भी ज्यादा इरोटिक गीत और नृत्य इससे भी पहले हुए हैं। इस एक गाने में पहनी गयी अभिनेत्री की अनेक पोशाकों में से जिस भगवा पोशाक को लेकर यह बिरादरी आकाश-पाताल एक किये है, उस भगवा रंग में इससे भी ज्यादा अंतरंग दृश्य और नृत्य सोशल मीडिया पर वायरल हुए पड़े हैं, जिनमें भाजपा के सांसद अभिनेता मनोज तिवारी, रविकिशन और निरहुआ और इनकी सांसद महोदयायें हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी और इन दिनों संघ गिरोह की ब्रांड एम्बेसडर कंगना राणावत अदाकार और अदाकारा हैं। भारत के विश्वख्यात मूर्तिशिल्प के केंद्र खजुराहो से लेकर बीसियों मंदिरों में इस तरह की, इससे भी ज्यादा दिखाने वाली भावभंगिमाओं की मूर्तियां सजी पड़ी हैं। मगर आपत्ति इसी गाने को लेकर है और उन्हें भी है, जिन्होंने इस तरह के दृश्यों से ही अपना कैरियर बनाया है।

जिस गाने के बहाने यह उत्पात हो रहा है, वह भारत के प्रतिष्ठित फिल्म निर्माता समूह यशराज फिल्म्स के लिए आदित्य चौपड़ा ने बनाई है। इसकी कहानी और निर्देशन सिद्धार्थ आंनद का है, संगीतकार विशाल शेखर हैं और गीत लिखा है कुमार ने – इसकी कोरियोग्राफी की है वैभवी ने और आवाज दी है शिल्पा राव, विशाल शेखर आदि ने। इतने सारे नामों का जिक्र इसलिए कि ये सारे के सारे हिन्दू नाम हैं। मगर इसके बावजूद यह बात फिल्म बनाये जाने की शुरुआत से ही तय थी कि इसे निशाने पर लिया जाएगा। वजह सार में एक रूप में कई थीं ; एक तो फिल्म का नाम ही पठान है, ऊपर से इसका मुख्य नायक शाहरुख खान है। आजाद हिन्द फ़ौज के नायक-त्रय में से एक शाहनवाज़ खान का नवासा, जिसने न कभी अहमदाबाद में पतंग उड़ाई, न “आप आम काटकर खाते हैं या चूसकर” जैसे इंटरव्यूज किये, ना ही दरबार में जाकर ठुमके लगाए। “माय नेम इज खान” जैसी फिल्में बनाकर चिढ़ाने का काम किया, सो अलग। नायिका भी दीपिका पादुकोण है, जिन्होंने भीषण दमन के बीच निडरता के साथ जेएनयू जाकर वहां की छात्राओं और छात्रों के साथ एकजुटता व्यक्त की। इस फिल्म को संघियों से भरे भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड ने पास किया है तो क्या हुआ, शाहरुख इन दिनों भारतीय फिल्म और संस्कृति के विश्वदूत हैं तो क्या हुआ, अमरीकी राष्ट्रपति भी भारतीय जनता को संबोधित करते में शाहरुख की फिल्म का संवाद उपयोग में लाता है तो क्या हुआ, गाने में पहने गए बहुरंगी परिधानों में हर तरह के रंग हैं तो क्या हुआ, गाने के बोल के वक़्त भगवा परिधान नहीं है तो क्या हुआ, भक्तों की निगाह में तो शाहरुख मुसलमान और दीपिका टुकड़े–टुकड़े गैंग की राष्ट्रद्रोही हैं — इसलिए विरोध तो होना ही है। फासी गिरोह को विरोध के लिए किसी कारण, किसी तर्क, किसी बहाने की जरूरत ही कहाँ है! हाल ही में रिलीज़ हुयी आमिर खान की “लालसिंह चड्ढा” में भी तो कुछ नहीं था, मगर बॉयकॉट गैंग द्वारा नफ़रती युद्ध उसके खिलाफ भी छेड़ा गया। आमिर खान की ही 2014 की पीके फिल्म की तुलना में परेश रावल की 2012 की फिल्म “ओह माय गॉड” में कहीं ज्यादा तीखे नास्तिक संवाद थे – मगर विरोध सिर्फ पी के का ही हुआ। बाबाओं और मठों की आपराधिक कारगुजारियों पर आधारित आश्रम नाम की वेब सीरीज तो इन्ही के राजनीतिक समर्थक प्रकाश झा बना रहे थे और उसके एक नायक भी इन्ही की पार्टी के सांसद धर्मेंद्र के सुपुत्र बॉबी देओल थे।

इसलिए यह बेशर्म हुड़दंग न इस फिल्म या एक गाने से शुरू हुआ है, न यहीं रुकने वाला है। रामायण और भारतीय साहित्य के धार्मिक कहे जाने वाले महाआख्यानों – रामायण और महाभारत – को थीम बनाकर अद्भुत कलाकृतियां रचने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन और उनकी पेंटिंग्स से लेकर किताबों, कहानियों, उपन्यासों, कविताओं, सृजनात्मक अभिव्यक्ति के सभी रूपों के साथ इस गिरोह ने यही किया है। धीरे–धीरे इसे एक उन्माद की तरह उभारा जा रहा है। यह अनायास नहीं है। यह इस गिरोह की सुविचारित रणनीति और निर्धारित लक्ष्य का हिस्सा है। एक फ़िल्मी गाने में भगवा परिधान इस गिरोह को धर्म और संस्कृति के विरुद्ध लगता है, मगर अपनी ही पार्टी का पूर्व मंत्री चिन्मयानंद, जो इन दिनों फरार है, जब भगवा पोशाक पहन कर बलात्कार करता है, तब इन्हे बुरा नहीं लगता। ऐसे साधुओं की एक पूरी सूची है ; ठग अनंत ठग कथा अनंता है, जो भगवा पहन कर बलात्कार और हत्याओं को अंजाम देती है, अनेक तो अपराधी करार दिए जाकर जेलों में बंद बैठे हैं, तब इन्हे कोई परेशानी नहीं होती। जाहिर है इस रंग को ईश्वरीय दर्जा देकर वे इन अपराधियों को क़ानून और आलोचनाओं से परे पहुंचाना और इनके अपराधों को उजागर करना ईशनिंदा बनाना चाहते हैं। “गलती न देखो साधु की – देखो भगवा परिधान” की नयी कसौटी गढ़ना चाहते हैं। यह सिर्फ एक फिल्म या एक गाने या उसमे इस्तेमाल किये गए एक शब्द का मामला नहीं है। यह उससे आगे, बहुत आगे की और कुछ ज्यादा ही खतरनाक क्रोनोलॉजी का हिस्सा है। यह हिटलर की नाज़ी पार्टी के आजमाए तरीकों को हूबहू आजमा कर पहले कला, साहित्य, संस्कृति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बाकी सभी रूपों को खामोश कर देने और उसके बाद उसी की तरह का राज कायम करने के मंसूबे को आगे बढ़ाना है।

नाज़ी जानते थे कि उन्हें अपना बर्बर राज लाना और चलाना है, तो लोगों के सोचने–विचारने के तरीके को नियमित और नियंत्रित करना जरूरी होगा। नाज़ियों ने इसकी शुरुआत 1930 में बनी ऑस्कर विजेता हॉलीवुड फिल्म ‘ऑल क्वाइट ऑन वेस्टर्न फ्रंट” (पश्चिमी मोर्चे पर पूरा अमनचैन है ) के खिलाफ उन्माद भड़काने से की। जब यह फिल्म रिलीज़ हुयी, तब तक नाजी पार्टी सत्ता में नहीं आयी थी, अलबत्ता जर्मन संसद राइख़्स्टाग में उसके सांसदों की संख्या 27 से बढ़कर 100 से ज्यादा हो गयी थी। इस फिल्म के पहले शो में ही नाजियों ने करीब सौ टिकिट्स खरीद कर टॉकीज में दाखिला लिया और जैसे ही फिल्म में प्रथम विश्वयुद्द में फ्रांस की सीमा से हारकर वापस लौटती जर्मन सेना का दृश्य आया, वैसे ही उत्पात शुरू कर दिया – सिनेमा के परदे फाड़ दिए। इस उत्पात के बीच कुख्यात प्रोपगैंडा मंत्री गोयबेल्स मौजूद था, उसने बाद में वहीँ खड़े होकर एक उन्मादी भाषण भी दिया। इसका जो असर हुआ और हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी द्वारा जर्मनी में जर्मन और हॉलीवुड की फिल्मों के साथ किये गए सलूक, उन्हें अपने मुताबिक़ ढालने के लिए जो तरीके अपनाये गए थे, उस पर हुयी शोध को 2013 में ’हॉलीवुड रिपोर्टर’ नाम की पत्रिका ने “चिलिंग स्टोरी ऑफ़ हाउ हॉलीवुड हेल्प्ड हिटलर” (हॉलीवुड ने किस तरह हिटलर की मदद की, की डरावनी कहानी) शीर्षक से प्रकाशित किया है। इस विवरण के मुताबिक़ 250 फिल्में निष्कासित कर दी गयीं और सिर्फ जर्मन फिल्म उद्योग ही नहीं, हॉलीवुड के निर्माताओं को भी फिल्म बनाने के पहले नाज़ियों को अपनी फिल्म की पटकथा दिखाना, बनी हुयी फिल्में दिखाना, जहां वे कहें वहां डायलॉग्स और सीन हटाना और बदलना अनिवार्य कर दिया गया। जर्मनी हॉलीवुड फिल्मों का दूसरा सबसे बड़ा मार्केट था – अपने मुनाफे के लिए निर्माताओं ने न सिर्फ अपनी फिल्मो के जर्मन संस्करणों में बदलाव किये, बल्कि खुद भी ऐसी कोई फिल्म बनाना बंद कर दिया जिससे हिटलर या उसके गुंडा गिरोह की “भावनाएं आहत” हो जाएँ। खुद को दुनिया भर के लोकतंत्र का दरोगा मानने वाले अमरीका और हॉलीवुड का समर्पण इस कदर शर्मनाक था कि 1940 तक नाज़ी विरोधी या नाज़ियों के अपराधों को उजागर करने वाली एक भी फिल्म नहीं बनी। इस भय और सन्नाटे को महान चार्ली चैप्लिन की ने 1940 में अपनी कालजयी फिल्म “द ग्रेट डिक्टेटर” से तोड़ा ; यह फिल्म आज भी फासिस्टों और तानाशाहों के विरुद्ध सर्वश्रेष्ठ फिल्म में शुमार की जाती है।

ठीक यही कहानी हिटलर और मुसोलिनी को गुरु और आचार्य मानने वाले भारत में दोहराना चाहते हैं। गोडसे को प्राण प्रतिष्ठित और पूजनीय बनाने के बाद अब वे हिटलर के महिमामंडन तक आ गए हैं। इन दिनों वायरल हुए एक वीडियो में विहिप के एक आयोजन में हिटलर का गुणगान है। पठान और शाहरुख खान, गाना और उसके बोल तो बहाना है – असली मकसद संविधान और लोकतंत्र को निबटाना है। नाज़ियों की तरह एक बर्बर राज और घुटन भरा समाज बनाना है। फर्क सिर्फ इतना है कि नाज़ियों की किताब मीनकाम्फ़ (हिटलर की आत्मकथा) थी, इनके हाथ में मनुस्मृति है। उसका नारा नाज़ीवाद था, इनका नारा हिंदुत्व है।

बहरहाल एक सकारात्मक और गुणात्मक अंतर और भी है और वह यह कि अगर उनके पास हिटलर की सीखें हैं, तो अवाम के पास भी हिटलरी हुकूमतों से जूझने के सबक हैं। इसी भावना को स्वर देते हुए 28 वे कोलकता इंटरनॅशनल फिल्म फेस्टीवल का उद्घाटन करते हुए शाहरुख खान ने ठीक ही कहा था कि “अपनी कुर्सी की पेटी बाँध लीजिये, मौसम बदलने वाला है……. दुनिया कुछ भी कर ले, मैं और आप लोग जितने भी पॉजिटिव लोग हैं, सब के सब ज़िंदा हैं।” जाहिर सी बात है कि सिर्फ पॉजिटिव सोच रखना और ज़िंदा रहना अच्छी बात है, मगर काफी नहीं है। ज़िंदा होने का सबूत भी देना होगा, सकारात्मक और समावेशी सोच को फैलाना भी होगा।
आलेख : बादल सरोज

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)
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