बस्तर, छत्तीसगढ़ (पब्लिक फोरम)। देश के एक संवेदनशील हिस्से, बस्तर से एक ऐसा दिल दहला देने वाला दावा सामने आया है, जिसने सरकारी दावों और जमीनी हकीकत के बीच की भयावह खाई को उजागर किया है। आदिवासी नेता और मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी ने एक मार्मिक पत्र लिखकर सुरक्षा बलों के कथित नक्सल विरोधी अभियान पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका आरोप है कि इस अभियान की आड़ में निर्दोष आदिवासियों को निशाना बनाया जा रहा है और हाल ही में हुई एक घटना में मारे गए आदिवासियों की लाशों के साथ जो हुआ, वह मानवता को शर्मसार करने वाला है।
सोनी सोरी ने बस्तर संभाग के सर्व आदिवासी समाज और देश की आम जनता के नाम लिखे अपने पत्र में 6-7 मई, 2025 के आसपास बस्तर के कर्रेगुट्टा जंगल में हुई एक घटना का विस्तृत ब्योरा दिया है। उनका कहना है कि जब देश पाकिस्तान पर हमले की ख़बरों में उलझा था, ठीक उसी समय बस्तर में केंद्र सरकार के सुरक्षा बल आदिवासियों को निशाना बना रहे थे। प्रशासन द्वारा ‘मुठभेड़’ बताई जा रही इस घटना में कई आदिवासियों की मौत हुई, लेकिन सोनी सोरी जब खुद मौके पर पहुंचीं और पीड़ितों के परिवारों से मिलीं, तो सच्चाई कुछ और ही निकली।
गांव वालों का दावा: नक्सलियों से नहीं, जवानों की आपसी क्रॉस फायरिंग में हुई मौतें
सोनी सोरी 12 मई को बीजापुर जिला अस्पताल पहुंची थीं, जहां मारे गए लोगों के परिवार वाले और ग्रामीण शवों को लेने के लिए परेशान थे। उन्होंने ग्रामीणों से बातचीत की और चौंकाने वाला खुलासा हुआ। ग्रामीणों ने सोनी सोरी को बताया कि प्रशासन ‘मुठभेड़’ की बात कह रहा है, जो कि पूरी तरह ‘फर्जी’ है। उनका दावा है कि 7 मई की सुबह लगभग 7-8 बजे सीआरपीएफ की कोबरा, डीआरजी और तेलंगाना के ग्रे-हाउंड जवानों के बीच गलतफहमी में क्रॉस फायरिंग हुई, जिसमें तीन पुलिस जवान भी मारे गए और कई घायल हुए। ये चोटें नक्सलियों द्वारा लगाए गए आईईडी या गोला बारूद से नहीं, बल्कि जवानों की आपसी फायरिंग से लगी थीं। ग्रामीणों ने बताया कि डीआरजी में शामिल उनके गांव के कुछ लोगों ने ही फोन करके उन्हें बताया कि उनके परिवार के लोगों को ‘मार दिया गया है’ और वे लाशें लेने आएं।
लाशों के लिए दो दिन तक भटकते रहे परिजन, प्रशासन की आनाकानी
ग्रामीणों ने बताया कि वे 8 मई को ही लाशें लेने आ गए थे और 9 मई की रात तक रुके रहे, लेकिन पुलिस-प्रशासन ने उन्हें शव नहीं दिए। दो दिन तक भूखे-प्यासे रहकर वे शव मांगते रहे। भूख, प्यास और गर्मी से हालत बिगड़ने पर वे 10 मई को वापस गांव चले गए। 12 मई को वे फिर से शवों को लेने पहुंचे थे। सोनी सोरी की मौजूदगी में जब उन्होंने शवों को लेने के लिए दबाव बनाया, तब जाकर प्रशासन ने आनाकानी के बाद शव देना शुरू किया।
लाशों पर रेंगते कीड़े: दिल दहला देने वाला मंज़र
सोनी सोरी ने अपने पत्र में शवों की हालत का जो वर्णन किया है, वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकता है। उन्होंने लिखा, “जब मैं शवों की ओर बढ़ी तो देखा कि लाशों पर हजारों की संख्या में कीड़े चल रहे थे। हर एक लाश पर कीड़े थे। हर आदिवासी का मृत शरीर कीड़ों से ढका हुआ था। कीड़े मृत शरीर को पूरी तरह से घेर कर खा रहे थे।” यह मंज़र उस बयान की याद दिलाता है, जिसका जिक्र सोनी सोरी ने अपने पत्र की शुरुआत में किया था। उन्होंने लिखा कि कुछ साल पहले पुलिस विभाग के एक उच्च अधिकारी ने उनसे कहा था कि आदिवासियों का कोई अस्तित्व नहीं है, कोई औकात नहीं है और उन्हें कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचलना और मारना है। लाशों की यह हालत देखकर उन्हें लगा जैसे उस अधिकारी की बातें सच साबित हो रही हैं।
कौन मरा? नक्सली या निर्दोष आदिवासी?
सोनी सोरी सवाल उठाती हैं कि सवाल यह नहीं होना चाहिए कि मरने वाला व्यक्ति नक्सली था या निर्दोष आदिवासी। उनका कहना है कि जो मारे गए, वे सब इंसान थे और वे बस्तर के आदिवासी थे। आदिवासियों के मृत शरीर को इस तरह कीड़ों के हवाले कर देना, ताकि परिवार वाले शायद उन्हें पहचान भी न सकें, यह बेहद अमानवीय है।
सरकारी और जमीन बचाने वाले आदिवासियों के बीच का फर्क
पत्र में एक और मार्मिक पहलू सामने आता है। सोनी सोरी लिखती हैं कि अगर एक आदिवासी मां के दो बेटे हैं, तो उनमें से एक को सरकार अपनी तरफ से सिपाही बनाकर बंदूक थमा देती है, जबकि दूसरा भाई अपनी जमीन की रक्षा करता है। अगर सरकार की तरफ से लड़ने वाला आदिवासी मारा जाता है, तो उसे तिरंगे झंडे में लपेटकर अंतिम संस्कार किया जाता है। लेकिन जो आदिवासी कथित तौर पर अपनी जमीन बचाने के लिए मारा जाता है (और जिसे अक्सर नक्सली बता दिया जाता है, चाहे वह निर्दोष हो), उसकी लाश को कीड़ों की चादर से ढक दिया जाता है।
सोनी सोरी के इस पत्र ने बस्तर में चल रहे कथित नक्सल विरोधी अभियान की क्रूर सच्चाई और इसके निर्दोष आदिवासी आबादी पर पड़ रहे भयानक प्रभाव को सामने रखा है। यह घटना और लाशों की भयावह स्थिति प्रशासन के दावों पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाती है और इस पूरे मामले की निष्पक्ष उच्च-स्तरीय जांच की मांग को जन्म देती है। आदिवासियों की लाशों के साथ हुआ यह अमानवीय व्यवहार, बस्तर की जटिल और दुखद कहानी का एक और काला अध्याय है, जिस पर पूरे देश का ध्यान जाना बेहद ज़रूरी है।
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