दीपंकर भट्टाचार्य से खास मुलाकात: खास चर्चा
कम्युनिस्ट आंदोलन में कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य का नाम चिर-परिचित है। विगत 25 वर्ष से दीपंकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन के जनरल सेक्रेटरी है। उन्होंने राजनीति, संस्कृति और सामाजिक क्षेत्र में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। पिछले दिनों वे नागपुर में प्रगतिशील लोकतांत्रिक मंच द्वारा आयोजित ‘फासीवाद के बढ़ते कदम और प्रतिरोध की संभावना’ विषय पर आयोजित व्याख्यान माला में शिरकत की। इस अवसर पर उनसे बातचीत करने का मौका मिला। इन सवालों पर वे बहुत ही सरल और साफ शब्दों में जवाब देते हैं।
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प्रश्न : हम फासीवादी निजाम के दौर में जी रहें, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है। सोच की प्रक्रिया को कुंद करने की साजिश रची जा रही है। इसे आप कैसे देखते हैं?
जवाब : आपने सही कहा कि हम फासीवादी दौर से गुजर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी सत्ता पर काबिज है। उसकी कोशिश है कि भारत के समाज और राज्य दोनों को बदलने की। इस मकसद को हासिल करने के पीछे आर.एस. एस॰ है। 2024 में आर.एस॰एस॰ के 100 वर्ष पूरे होने जा रहे है। शुरू से आर॰एस॰एस॰ की विचारधारा फासीवादी है। पहले इस विचार के साथ कुछ ज्यादा ताकत नहीं थी। 2014 के बाद बी॰जे॰पी॰ का पूरे राजसत्ता पर जबरदस्त कब्जा हो गया है। राजसत्ता पर कब्जे के साथ साथ हिंदुस्तान के बड़े पूँजीवादी बनियां, कॉर्पोरेट घराने, अंबानी, अदानी, टाटा, आदि, का सम्पूर्ण समर्थन राजसत्ता के साथ है। वाइब्रेंट गुजरात के दौर में वहाँ के लोगों कि आवाज थी मोदीजी को देश का प्रधानमंत्री बनाना चाहिए। इस तरह जबरदस्त सत्ता का पावर बी॰जे॰पी॰ के पास है। इतना ही नहीं स्टेट पावर के साथ साथ संघ परिवार के पास स्ट्रीट पावर भी है। सड़कों पर इनके गुंडों की कई तरह के स्क्वाड हैं। इन सबको मिलाकर एक फासीवादी निजाम चल रहा है।
प्रश्न : इस संदर्भ में एक कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी होने के नाते आपकी भूमिका क्या है ?
उत्तर : इसके खिलाफ़ हमारे सामने जो सवाल है कि एक सार्वजनिक प्रतिरोध कैसे खड़ा किया जाय? इसको हम कई धरातल पर देखते है।
पहला – फासीवाद एक विचार है। लोकतन्त्र विरोधी है। इसके बरक्स वैचारिक प्रतिरोध खड़ा करना होगा। फासीवाद भय और आतंक का शासन है। इसके बल पर वे डराना चाहते हैं। दबाना चाहते हैं । जायज है कि हमें बेखौफ इस डर और आतंक के खिलाफ़ साहस के साथ खड़े होना होगा। महाराष्ट्र में ‘भीमा कोरेगांव’ मामले में तमाम साथियों को जेल में डाल दिया गया। दिल्ली दंगे का फर्जी केस बनाकर, नागरिकता आंदोलन में फँसाकर जेल में डाला गया। आज शाहीन बाग का आंदोलन एक संघर्ष का प्रतीक बन गया है। यह एक साहस की मिसाल है। हम महसूस करते हैं कि कम्यूनिस्ट पार्टी के विचार और हिम्मत दोनों को संजोते हुए आगे बढ़ना है।
दूसरा – फासीवाद के खिलाफ बड़े जन-आंदोलन की जरूरत है। जहां भी दुनिया में फासीवाद काबिज हुआ, उसकी कोशिश सिर्फ लाठी गोली और राजसत्ता के बल पर दमन करना और समाज को गुमराह करना ही था। दिग्भ्रमित लोगों को फासीवादी मुहिम में ‘फुट सोल्जर्स’ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। फासीवाद का यही परिदृश्य भारत में हम देख रहे हैं। गुजरात का जनसंहार हो, मॉब लिंचिंग हो, विस्थापन हो, धर्म और जाति के नाम पर दंगे हो, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर गुमराह कर राष्ट्रवाद को खड़ा करना, आदि।
तीसरा : सत्ता इस साजिश को उनके पक्ष में करने के लिए मीडिया पर कब्जा कर आम लोगों को गुमराह करती है। इसी तरह पत्रकार, सिविल सोसाइटी के लोग, कार्यकर्ताओं आदि की सत्ता विरोधी आवाज को जेल की सलाखों में कैद किया जा रहा है।
प्रश्न : बेशक, मुल्क की आजादी आंदोलन का इतिहास में बड़ा योगदान है। उसके बाद जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन हुआ। वहीं नक्सलवादी आंदोलन भी चर्चा के केंद्र में है। नक्सलवाद का उभार अगर यूरोप में घटित होता तो इसे एक बहुत बड़ी गरिमा के रूप में नोटिस किया जाता। प्रश्न उठता है कि इन आंदोलनों के दौरान जाति निर्मूलन और धर्म के सवाल पर लड़ाई लड़नी चाहिए थी। नहीं लड़ी गई, जिसका दुरुपयोग आज फासीवादी सत्ता उठा रही है। इस पर आपकी राय क्या है?
उत्तर : पहले हम अपना पहला सवाल समाप्त कर लें। फासीवाद का एक रूप जन आंदोलन भी है। यह एक प्रतिक्रियावादी जन आंदोलन है। इसके जवाब में हमें भी एक जबरदस्त प्रगतिशील जन उभार पैदा करना चाहिए। इसलिए आपने जो आजादी आंदोलन की बात की या दूसरे दौर के आंदोलन की चर्चा की, इस पर बाद में बात करेंगे। पहले हम आज के दौर के आंदोलन की चर्चा करेंगे। जैसे नागरिकता कानून में संशोधन के खिलाफ किया गया आंदोलन। यह आंदोलन शाहीन बाग से शुरू हुआ। मैं इस आंदोलन को मानता हूँ कि यह संघर्ष ‘ईक्वल सिटिजनशिप’ का है। फिलहाल ही किसानों का प्रभावकारी आंदोलन हुआ। इन आंदोलनों ने देश में एक इतिहास रच दिया है। यह हमें बहुत ही सामान्य मुद्दा लगेगा, लेकिन ऐसा नहीं है। इन आंदोलनों ने सामान्य लोगों के मन में फासीवाद का जो डर बैठा हुआ था उस डर से मुक्त किया है।
इसी तर्ज पर हम हमारे देश के महिला पहलवानों के आंदोलन को देखते हैं। उन्होने एक शक्तिशाली बी॰जे॰पी॰ नेता पर शारीरक और मानसिक शोषण का आरोप लगाया है। बावजूद एफ. आई॰ आर॰ और पॉस्को कानून के तहत उस नेता पर केस दर्ज हुआ। फिर भी कोई कारवाई नहीं हुई। अब धीरे-धीरे यह आंदोलन फैलते जा रहा है। हमें लगता है कि यह आंदोलन फासीवाद के खिलाफ प्रगतिशील जन-आंदोलन में तब्दील होता जा रहा है। इसीलिए प्रतिक्रियावादी आंदोलन के खिलाफ साहस के साथ प्रगतिवादी सामाजिक बदलाव के लिए एक बड़े जनांदोलन की गरज है।
और तीसरी बात – अभी भी हमारे देश में एक पार्लियामेंट्री सिस्टम है। हालांकि मौजूदा निजाम इस सिस्टम को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश में है। पार्लियामेंट इमारत का उद्घाटन सावरकर के जन्मदिन के मौके पर हुआ। इस प्रक्रिया से राष्ट्रपति को दरकिनार कर दिया गया। प्रधानमंत्री खुद उदॄघाटन कर रहे है। इस तरह देश में अमेरिकी स्टाइल के तर्ज पर प्रेसिडेंट सिस्टम की प्रक्रिया को लागू करने की ओर बढ़ रहे हैं। अमित शाह लगातार कहते हैं, पचास साल राज करेंगे। एक सिंगल पार्टी रूल कायम करेंगे। जब तक पार्लियामेंट्री सिस्टम है, इसे बचाने की पूरी कोशिश होनी चाहिए। इस देश में जब 1975 में आपातकाल आया था। इस देश की जनता ने चुनाव के जरिए 1977 में आपातकाल को समाप्त किया था। यह एक उदाहरण है। फिलहाल ही हिमाचल और कर्नाटक में चुनाव का इस्तेमाल करते हुए परिवर्तन हुआ। कर्नाटक की जनता, नागरिक समाज और गरीब-गुरबों ने जबर्दस्त जनादेश दिया। इसकी भी संभावना जहाँ तक और जब तक है, बिलकुल इसको तलाशने की जरूरत है। इसीलिए फासीवाद के खिलाफ़ प्रगतिशील विचार और जन-संस्कृति के धरातल पर एक जबरदस्त क्रांतिकारी जन उभार की आवश्यकता है। वहीं जहाँ तक चुनाव का प्रश्न है। इस मैदान में भी व्यापक विपक्षी एकता की गरज है। चूंकि फासीवाद जब से सत्ता पर काबिज हुआ, तभी से आर॰एस॰एस॰ के एजेंडे को लागू कर रहा है। इसीलिए बेहद ज़रूरी है, इनको सत्ता से बाहर किया जाए। सत्ता से बेदखल करने से ही फासीवाद समाप्त नहीं हो जाएगा। लंबी लड़ाई लड़नी होगी। लेकिन सत्ता से बाहर करना इस समय की फौरी जरूरत है। इसलिए इन तीनो मोर्चे पर साथ साथ हम लोग लड़ सकते हैं। और अन्य मुद्दों को भी जोड़ सकते हैं।
प्रश्न : आपातकाल के समय तमाम राजनीतिक पार्टियों के साथ साथ संस्कृतिकर्मियों ने भी बहुत बड़ा रोल अदा किया था। उस समय संस्कृतिकर्मियों को भी गिरफ्तार किया गया था। उसी वक्त सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर॰ के॰ लक्ष्मण का एक कार्टून प्रकाशित हुआ था – ‘घोड़े के सिर की जगह मोरारजी देसाई की आकृति थी। वहीं कॉमरेड राजेश्वर राव और हरकिशन सुरजीत घोड़े के पूंछ को पकड़े हुए है। आपस में एक-दूसरे को कह रहे हैं, जितना दूर जा सकते हैं, चले चलो।‘ यह कार्टून इस ओर इशारा करता है – क्या चुनाव में इस तरह जाना चाहिए या जन-आंदोलन के जरिये ?
उत्तर : देश तब तक चुनाव लड़ेगा जब तक संभावना है। चुनाव कैसे और किस तरह लड़े जा रहे है, वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। चुनाव आयोग मौन है। ईवीएम मशीन पर प्रश्नचिन्ह है। विधायक और संसद सदस्यों की खरीद-फरोख्त खुले आम हो रही है। हम सब यह देख रहे हैं। इसलिए चुनाव के बारे में बाबासाहेब अंबेडकर खुद बोलते थे – हमारे संविधान में एक एलेक्ट्रोल पॉलिसी का प्रावधान है। गरीब से गरीब व्यक्ति को एक वोट का अधिकार है। जो वोट अमीरों के बराबर है। जैसे ही चुनाव या वोट की परिधि से हम बाहर निकलते हैं तो समाज में गैर बराबरी का नजारा है। गैर बराबरी बढ़ती रहेगी। इसीलिए उसी समय उन्होने आगाह किया था – इस वोट की बराबरी का कोई खास मतलब नहीं रहेगा। हमारे जेहन में यह सवाल अब भी मौजूद है।
आपने एक सवाल यह भी किया कि आज़ादी आंदोलन के दौरान इस देश में बहुत सारी संभावना थी। हम यह मानते हैं। आज़ादी आन्दोलन से हमें आज़ादी मिली। आज़ादी के साथ-साथ देश का बंटवारा भी हो गया। लेकिन हम आजादी आंदोलन की विरासत की बात करते हैं। Iआज़ादी आंदोलन के भीतर बहुत सारी ऐसी संभावना छिपी हुई थी। यह साकार नहीं हो पाई। इसीलिए आजादी आंदोलन में जो घटित हुआ है, उसे उसी दायरे में नहीं देखते – जैसे अगर हम कहें कि आजादी आंदोलन के दौर में दोनों बातें साथ साथ चल रही थी, मसलन आजादी कैसे मिलेगी और अंग्रेजों के राज को कैसे समाप्त किया जाएगा। इसके समकक्ष यह सोच भी थी कि कैसे हिन्दुस्तानी लोगों के हाथ में सत्ता आएगी। लेकिन आजाद हिंदुस्तान कैसा होगा। आधुनिक भारत कैसा होगा। उसका स्वरूप कैसा होगा। उस समय फुले ने कहा था कि गुलामगिरी है। सामाजिक गुलामी हमारे देश में है। उस गुलामी को खत्म करके सामाजिक आजादी, सामाजिक बराबरी लोगों को कैसे मिलेगी। यह केवल राजनीतिक आज़ादी से नहीं मिलेगी। आज़ादी आन्दोलन में ये तमाम धाराएं साथ-साथ चल रही थी। हम देखते हैं कि 1936 में, हिंदुस्तान के इतिहास में जबरदस्त एक मोड़ आया था। ठीक 1936 में किसान सभा का सम्मेलन हो रहा था। किसान मेनिफेस्टो निकाला गया। किसान मेनिफेस्टो में जमींदारी प्रथा को समाप्त करने, किसानों के कर्ज को खत्म करने की घोषणा हुई। इसी तरह 1936 में बाबासाहेब अंबेडकर जाति उन्मूलन की बात कर रहे थे। इस संदर्भ में उनका भाषण है। वे यह भाषण नहीं दे पाए। अगर आज़ादी आंदोलन के दौरान जाति, धर्म, सामंतवाद और जमींदारी उन्मूलन की दिशा में आगे बढ़ते तो इसकी पूरी संभावना थी। जब बाबासाहब इन्डिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी चला रहे थे। उस समय इन्डिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी साथ मिलकर कोंकण में किसान मोर्चा और कपड़ा मिल मजदूरों के बड़े-बड़े मोर्चे निकाले जा रहे थे। यह दौर बहुत लंबा नहीं चल पाया। हमारे आजादी आंदोलन के अंदर ऐसी बहुत सारी संभावना थी। जिसका एक नजारा और झलक हमें दिखाई पड़ी। लेकिन ये मुद्दे आगे नहीं बढ़ पाए ।
प्रश्न : इस संभावना पर आपके पार्टी की क्या रूप-रेखा है ?
उत्तर : हिंदुस्तान के आजादी आंदोलन की समूची विरासत की संभावनाएँ साकार नहीं हो पायी। जायज है कि हमें उस विरासत को लेकर चलना है। आज इस पर एक बड़ी लड़ाई है। इसीलिए हमारा मत है कि भारत में आज़ादी आंदोलन के दौर में जो सपने पनपे थे। उसे साकार करने के लिए हमारे नौजवान साथियों ने नारा दिया है – ‘नए भारत के वास्ते भगत सिंह-अंबेडकर के रास्ते’। भगत सिंह का नारा था साम्राज्यवाद का नाश हो। एक आधुनिक हिंदुस्तान का निर्माण हो। इस नारे के तहत काम कर रहे हैं। नौजवानों के सामने एक दिशा रख रहे हैं। अगले बीस साल तक झुग्गी-झोपड़ी में काम करना है। यही बात 1967 में नक्सलबारी के दौर में चारु मजूमदार कह रहे थे। गाँव के भूमिहीन गरीबों के साथ एकरूप और एकजुट होना है। उस दौर में भगत सिंह ने भी कहा था गरीब-गुरबों के साथ, झुग्गी झोपड़ियों में, मलिन बस्तियों में रह रहे सर्वहारा के बीच कार्य करो। लेकिन आजादी आंदोलन से निकला हुआ संविधान और संसदीय प्रणाली के भी मायने है। इस धरातल पर भी सभी को साथ लेकर चलना है।
प्रश्न : आप आज़ादी के विरासत और संभावना की ओर इशारा कर रहे है लेकिन आर॰एस॰एस॰ और बीजेपी दोनों मिलकर उस विरासत के इतिहास को बदल रहे हैं। इस परिघटना को आप कैसे देख रहे हैं?
उत्तर : ठीक 1923 में प्रकाशित सावरकर की पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ और उनके जन्मदिन के मौके पर संसद भवन के उदघाटन के पीछे छुपी मंशा का अर्थ गहरा है। इससे साफ जाहीर है कि भाजपा के लोग सचेत रूप से इतिहास के धरातल पर लड़ रहे हैं। पूरे दम-खम के साथ इतिहास को बदल रहे हैं। आजादी आंदोलन से पूरी संभावना साकार नहीं हुई है। वहीं ये फासीवादी ताक़तें पूरी कोशिश कर रहे हैं कि आज़ादी आन्दोलन की रही-सही संभावना को पूरी तरह से काट दिया जाय। आज़ादी के नाम पर एक दूसरा इतिहास थोपा जा रहा है। गड़ा जा रहा है। जी-20 के मौके पर ये ताक़तें कह रही हैं, ‘भारत इज मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ है। इस डेमोक्रेसी को इन्होंने कहा कि यह ‘हिंदू सभ्यता’ की उपज है। यह ‘हिंदू इंटिटी’ है। वहीं अंबेडकर ने कहा, ‘जब कभी इस देश में वास्तव में हिंदू राष्ट्र बनेगा तो उससे बड़ी कोई विपत्ति, बड़ी आफत नहीं हो सकती। इस देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाने की संभावना है। अंबेडकर ने यह आगाह किया था। अंबेडकर ने आजादी, बराबरी और भाईचारा, (फ्रांसीसी क्रांति के नारे) हमारे देश के संविधान में शामिल किया है। हिन्दू राष्ट्र का विचार इन मूल्यों के ठीक विपरीत है। इसके खिलाफ है। यह संविधान अभी भी है। उसके प्रियमबल को अभी भी बदला नहीं गया। लेकिन उस प्रियमबल को जस का तस रखते हुए, उसकी धज्जियां उड़ाई जा रही है। संविधान में जो दोनों बातें है, उसके मैक्रो लेवल पर भारत की कल्पना है जो भारत की संप्रभुता, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य की। और उसमें मैक्रो रिपब्लिक के साथ माइक्रो लेवल पर उसकी इकाई के रूप में – एक नागरिक की है। जाहिर है कि एक अधिकार सम्पन्न नागरिक की कल्पना है। संविधान ने नागरिक को कुछ अधिकार दिया गया है। उस अधिकार का और विस्तार हो सके। अंग्रेजों के दौर में हम प्रजा थे। वहाँ प्रजा लॉयल सब्जेक्ट है। जहाँ बोलने और सोचने की आजादी नहीं थी। लड़ने की आजादी नहीं थी। लेकिन आज आजाद भारत के आजाद नागरिक पर हमारा संविधान टिका हुआ है। इधर संविधान पर हमले हो रहे हैं। भारत के नागरिक के अधिकार की जो कल्पना है वह नेस्तनाबूत हो रही है। वहीं मोदी कहते हैं, अधिकार की बात बहुत हो गई। इसको भूल जाओ। मोदी केवल अमृतकाल की बात कर रहे हैं। आप भी सिर्फ अमृतकाल की बात करो। अमृतकाल को कर्तव्यपथ कहते है। इसकी बात करो। कुल मिलाकर आज एक आजाद नागरिक, अधिकार सम्पन्न नागरिक को एक गुलाम प्रजा में तब्दील कर देने की गंभीर साजिश चल रही है।
प्रश्न : आपने इतिहास की चर्चा करते हुए 1936 का जिक्र किया। ठीक 1936 में महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ बनाया। आज वो लेखक संघ कई हिस्सों में विभाजित हो गया है। इस टूटन के पीछे कम्युनिस्ट पार्टियों का विभाजन है। इस संदर्भ में हम नेपाल में सांस्कृतिक संगठनों की मिसाल देख सकते है। वहाँ भी कई कम्युनिस्ट पार्टियां है। सभी पार्टियों के अपने-अपने सांस्कृतिक मंच है। ये सांस्कृतिक संगठन अपनी-अपनी पार्टी के कार्रवाई के रूप में काम करते हैं। देश के मसले पर राष्ट्रीय स्तर पर गठित सांस्कृतिक मंच से आंदोलन करते हैं। इस संदर्भ में आपका क्या कहना है?
उत्तर : आपने ठीक कहा है। हाँ, सांस्कृतिक संगठन अलग अलग हो सकते है। बहुत सारे लोग किसी भी संगठन से जुड़े नहीं हो सकते हैं। संस्कृति की क्रिया या कार्यवाही हमेशा किसी संगठन के जरिए ही होती हो, यह जरूरी नहीं हैं। सांस्कृतिक आंदोलन, सांस्कृतिक सृजन की प्रक्रिया है। अवाम के बीच में जन संस्कृति की जो प्रक्रिया है, इसमें पहले से ज्यादा एकजुटता बन रही है। और व्यापक एकजुटता की गरज है। बेशक अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियां हैं । कुछ लोग कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी का एकीकरण क्यों नहीं हो पाता है। याने एक कम्युनिस्ट पार्टी बन जाए । अगर बन जाए तो अच्छी बात है। कैसे और कब बनेगी हम कह नहीं सकते। लेकिन निश्चित तौर पर कार्रवाई के स्तर पर कम्युनिस्टों और पूरे देश में जनवादी शक्तियों के बीच एकता कि ओर कदम बढ़ रहे हैं। जनवादी ताकतों के साथ-साथ तमाम संविधान पर आस्था रखने वालों लोगों के बीच भी एकता की ओर कदम बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। उनकी कार्रवाई में एकता जरूरी है। इसी तरह संस्कृति के धरातल पर भी एकता होनी चाहिए। एकजुटता की गरज है।
प्रश्न : आपने कर्तव्यपथ और राजपथ का जिक्र किया। ये सत्ता कर्तव्यपथ को गीता से जोड़ कर रख रही है। और ये फासीवाद आर॰ एस॰ एस॰ के मनोसत्ता के रूप में उभरकर आ रहा है। एक राष्ट्र, एक भाषा, आदि, के बीज अवाम के बीच पिरो रहा है। हिटलर के खिलाफ विजय, सैनिक विजय है। लेकिन संस्कृति के धरातल पर फासीवादी मूल्य बरकरार है। सांस्कृतिक परिधि में श्रेष्ठता के बोध की मनोसत्ता कायम है। भारत में भी हजारों सालों से सनातनी फासीवाद है। सनातनी फासीवाद और मौजूदा फासीवाद को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर : कास्ट सिस्टम अपने आप में हैं बहुत पीड़ादायक है। नायाब तरीके से लोगों को गुलाम बनाया गया और बनाया जा रहा है। आर॰एस॰एस॰ जो नियतिवाद, अंधविश्वास, दक़ियानूसी आदि, आदि विचारों का जहर समाज में फैला रही है। बस काम करो और रिज़ल्ट की चिंता मत करो, जो हुआ है वो भी अच्छा, जो होगा वो भी अच्छा, इस तरह के भ्रम में उलझाकर रख रही है। यह एक ऐसा माहौल है। एक कल्चरल एनवायरनमेंट है। एक फ़ाउंडेशन है, जो शायद फासीवाद के लिए ज्यादा माकूल है। लेकिन फिर भी कास्ट सिस्टम लंबे समय से बरकरार है। बावजूद इसके खिलाफ़ लड़ते हुए इस देश में आजादी भी आयी। लड़ते हुए आधुनिक विचार भी पनपे, इस देश में संविधान का भी निर्माण हुआ। इसीलिए इसी वजह से भारत में जो कुछ हो रहा है…
प्रश्न : हस्तक्षेप कर रहा हूँ कास्ट सिस्टम है। यह गंभीर मसला है।
उत्तर : बिलकुल है। भारत में कास्ट सिस्टम है। इस पर बात करेंगे। अंबेडकर ने कहा, कास्ट एक गुलामी की व्यवस्था है। उसके खिलाफ़ सामाजिक बराबरी और आज़ादी की लड़ाई लड़ना है। यह लड़ाई फासीवाद के खिलाफ एक बड़े संघर्ष का हिस्सा है। आपने कहा कि संस्कृति की लड़ाई है। कास्ट सिस्टम के खिलाफ़ एंटी कास्ट की लड़ाई है। जैसे अभी कर्नाटक चुनाव की बात है जो लोग कल तक कास्ट की बात करते थे लेकिन इस बार क्लास की चर्चा कर रहे हैं। मैं योगेंद्र यादव को सुन रहा था। उन्होंने कहा कि कर्नाटक में बॉटम ऑफ पिरामिड के लोगों ने खुद को अससर्ट किया है। इसी तरह शहर के खिलाफ़ गांव, बैंगलोर के खिलाफ़ ग्रामीण कर्नाटक, महिलाओं और दलितों ने भी अस्सेर्ट किया है। कुल मिलाकर के गरीबों ने अस्सेर्ट किया है । इस देश में एक जबरदस्त बड़े जन दावेदारी, जनता के भागीदारी की संभावना बन रही है। ऐसे ही क्रांतिकारी जन-उभार की संभावना भी नजर आती है।
इसलिए संविधान बचाव और लोकतन्त्र बचाव की आवाज ज़ोरों से उठ रही है। क्योंकि हमारे देश के लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है ताकि फासीवाद को लागू करने में आसानी हो। इस कमजोरी को सबसे पहले अंबेडकर ने पहचाना। उन्होंने इसकी पहचान की और चिन्हित किया कि यह जमीन अलोकतांत्रिक है। ऐसे अलोकतांत्रिक जमीन पर हम ऊपरी तौर पर संविधान याने टॉप ड्रेसिंग ऑफ डेमोक्रेसी ऑफ कॉन्सटिट्यूशन के रूप में है। इसका अर्थ है कि इस लोकतंत्र को अगर मजबूत करना है तो जमीन को बदलना होगा। उसका डेमोक्रेटाइजेशन करना होगा। उस सोशल सॉइल को बदलना होगा। इस तरह सनातन फासीवाद के खिलाफ एक रोबस्ट डेमोक्रेसी, वाइब्रेंट डेमोक्रेसी के लिए संघर्ष की जरूरत है। और भारत जैसे देश की बात हो तो उसके डाइवर्सिटी के बिना डेमोक्रेसी संभव नहीं हो सकती। देश में इतने सदियों से दलितों को दबाकर रखा गया। उनके सामाजिक न्याय और बराबरी के बगैर डेमोक्रेसी आगे नहीं बढ़ सकती। जब हम डेमोक्रेसी की बात कर रहे तो एक रोबस्ट डेमोक्रेसी की बात कर रहे हैं । एक वाइब्रेंट डेमोक्रेसी की बात कर रहे हैं। निश्चित तौर पर अभी तक जो कमजोर डेमोक्रेसी है – उससे कहीं ज्यादा मजबूत, व्यापक, जीवंत और ऊर्जा से भरी डेमोक्रेसी की बात करनी चाहिए। इस पहल के जरिए हम फासीवाद को जवाब दे सकेंगे।
प्रश्न : महिला पहलवानों के आंदोलन के बारे में क्या उम्मीद है।
उत्तर : हमारे देश में पुरुष-सत्ता है। इस संदर्भ में यह किस्सा कितना दिलचस्प है। अभी खाप पंचायत के लोग पूरे पहलवानों के पक्ष में हैं। फिलवक्त यह लड़ाई कैसे ऑब्जेक्टिव दुनिया में किस तरह से बढ़ रही है। 28 तारीख को महिला पंचायत का ऐलान किया गया। संसद के बाहर प्रदर्शन और धरना देने की घोषणा की गई। सभी बेटियों को न्याय मिले, इसके लिए आवाज़ उठ रही है। यह आवाज उस इलाके से उठ रही है जहाँ सबसे ज्यादा जकड़न है। ऑनर किलिंग है। लड़कियों और महिलाओं को कैद करके रखा जाता है। उन पर तरह तरह के अंकुश है। लेकिन अब ऐसे इलाके से इस तरह की परिस्थिति विकसित हो रही है जहां महिलाओं के अधिकार और इंसाफ के पक्ष में विमर्श हो रहा है। समय समय पर ऐसी संभावना निर्मित होती रहती है। इसलिए हम लोगों को अधिक सजग रहकर, इसे एक व्यापक लड़ाई में कैसे तब्दील कर सकते हैं। इस पर कार्य करना चाहिए।
प्रश्न : अंत में एक प्रश्न है। फासीवाद के दौर में देश के तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों को गोलबंद करने का सवाल महत्वपूर्ण है। आप इस पर क्या सोचते है? क्या उम्मीद बनती है ?
उत्तर : उम्मीद बिल्कुल है। लेकिन इसमें पहले किसी शर्त को रखकर आगे बढ़ नहीं सकते। इस फासीवाद के खिलाफ़ प्रतिरोध जैसे जैसे बढ़ेगा, इसी के भीतर से आंदोलनों की एकता, विचारों की एकता, कम्युनिस्टों की एकता, और आपस में ज्यादा सार्थक एकता का निर्माण होगा। कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के बारे में अक्सर बहुत सारे लोग बात करते हैं, मार्क्स ने कहा, पहले आपको डेमोक्रेसी की लड़ाई लड़ना है। सर्वहारा के सामने विन द बैटल ऑफ डेमोक्रेसी का प्रश्न है। उसी बैटल ऑफ डेमोक्रेसी को हम लोग लड़ रहे हैं। इसी बैकलॉग डेमोक्रेसी के ऊपर फासीवाद हावी होने की कोशिश कर रहा है। यह डेमोक्रेसी की लड़ाई है। इसीको एक कम्युनिस्ट एजेंडा के रूप में देखना होगा।
हमारे सामने फासीवाद की बड़ी रुकावट है। इस रुकावट को बिना हटाए हम आगे बढ़ नहीं पाएंगे। । संविधान के जरिये समाज, विचार और राज्य मशीनरी के धरातल पर, हमारे सारे नागरिक अधिकार और हमारी आजादी मिली है। उसे खत्म किया जा रहा है। हमारे तमाम सिविल लिबर्टीज को छीन रहे हैं। इसीलिए हमें इस फासीवाद को शिकस्त देना होगा। इसको कोई डायवर्शन नहीं मानता हूँ। मैं यह नहीं मानता कि जैसे-तैसे या किसी भी तरह हो जाएगा। आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने फर्स्ट अँड फोर मोस्ट टास्क डेमोक्रेसी की लड़ाई है। भारत यह देखना चाहता है – कौन और कैसे फासीवाद को शिकस्त देगा। फासीवाद पर विजय पाने से ही भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक नए कम्युनिस्ट उभार की संभावना है। अगर हम फासीवाद की संस्कृति, सामाजिक और राजनीति के पटल पर जबर्दस्त शिकस्त दे सके तो कम्युनिस्टों के सामने आगे बढ़ने के रास्ते खुल जाएंगे। इसलिए आज यह एक चुनौती है। यह बहुत ही कठिन दौर है। ऐसा दौर आजादी आंदोलन के 75 साल में पहले कभी नहीं आया। आप कह सकते हैं कि समय समय पर बहुत सारे ऐसे एनकाउंटर हुए, जनसंहार हुए। ऐसे कठिन समय को हम लोगों ने देखा है। ये सब कभी बंगाल में, कभी गुजरात में, कभी आंध्रा में हुआ है। इन सभी को अगर जोड़ दिया जाय और इसे स्थायी रूप से देश के उपर थोप दिया जाय तो का माहौल बनेगा। आज वह माहौल है। हमारे सामने बड़ी संभावना भी है।
-गोपाल नायडू
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