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राठीखेड़ा एथेनॉल फैक्ट्री विवाद: भूजल संकट की आशंका, किसान आंदोलन में हिंसा और राजनीतिक संकट- पूरा विश्लेषण

राजस्थान/हनुमानगढ़ (पब्लिक फोरम)। हनुमानगढ़ ज़िले के राठीखेड़ा गांव में निर्माणाधीन एथेनॉल फ़ैक्ट्री के विरोध में हुई उग्र हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ की घटना एक गंभीर राष्ट्रीय प्रश्न खड़ा करती है: क्या औद्योगिक विकास नागरिकों के जीवन और पर्यावरण की कीमत पर होना चाहिए? यह विवाद केवल स्थानीय मुद्दा नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक पहलुओं को छूने वाला एक जटिल संकट बन गया है।

1. पर्यावरण बनाम विकास: अस्तित्व का संघर्ष

आंदोलन की मुख्य जड़ें गहरे अस्तित्व के डर में हैं। किसान और स्थानीय निवासी स्पष्ट रूप से दो प्रमुख आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं:

-भूजल संकट: सादुलशहर से विधायक गुरवीर सिंह बराड़ द्वारा विधानसभा में रखे गए आँकड़ों के अनुसार, 1320 केएलपीडी (किलोलीटर प्रति दिन) की यह संभावित रूप से एशिया की सबसे बड़ी एथेनॉल फ़ैक्ट्री प्रतिदिन लगभग 54 लाख लीटर पानी ज़मीन से निकालेगी। हनुमानगढ़ जैसे कृषि प्रधान ज़िले में, जहाँ भूजल का स्तर अच्छा है, किसानों को आशंका है कि यह निकासी पूरे इलाक़े को ‘डार्क ज़ोन’ में बदलकर उनकी उपजाऊ ज़मीन और खेती को बर्बाद कर देगी।
    – वैज्ञानिक आधार: पंजाब जैसे पड़ोसी राज्यों में एथेनॉल फ़ैक्टरियों के कारण भूजल स्तर में आई गिरावट और प्रदूषण के अनुभव इस डर को बल प्रदान करते हैं।
– प्रदूषण और स्वास्थ्य: स्थानीय लोगों का मानना है कि यह फ़ैक्ट्री दमा, चर्म रोग और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों को जन्म देगी, जिससे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो जाएगा।

यह विरोध दर्शाता है कि स्थानीय समुदाय अब केवल सरकारी आश्वासन पर भरोसा करने को तैयार नहीं है, बल्कि वे ठोस पर्यावरणीय सुरक्षा (Environmental Safeguards) की मांग कर रहे हैं।

2. राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और संवैधानिक नैतिकता

इस विवाद ने राजनीति को भी गर्मा दिया है:

– सत्ता बनाम विपक्ष: वर्तमान BJP सरकार के कैबिनेट मंत्री डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ने हिंसा के लिए सीधे कांग्रेस (अशोक गहलोत, सचिन पायलट) को ज़िम्मेदार ठहराया है, उनका आरोप है कि विपक्ष उस प्रोजेक्ट पर जनता को बरगला रहा है जिसे वे 2022 में स्वयं लेकर आए थे।
– कांग्रेस का बचाव: कांग्रेस, वहीं, इस मुद्दे को किसानों के पक्ष में ‘निडरता से उठाने’ की बात कहकर अपनी राजनीतिक साख बचाने की कोशिश कर रही है और पुलिस के बलप्रयोग की निंदा कर रही है।

– संवैधानिक और नैतिक प्रश्न: निरंतरता का अभाव: यह राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों को कमज़ोर करता है। एक सरकार द्वारा शुरू की गई परियोजना को, यदि उसमें गंभीर पर्यावरणीय दोष हैं, तो दूसरी सरकार को राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर जनहित में समीक्षा करनी चाहिए। विपक्ष द्वारा अपने ही पूर्ववर्ती निर्णय का विरोध करना राजनीतिक अवसरवादिता को दर्शाता है।
– अधिकारों का उल्लंघन: उग्र प्रदर्शन के बाद 107 नामजद लोगों पर मामला दर्ज करना और 40 लोगों को गिरफ़्तार करना विरोध करने के नागरिक अधिकार (Right to Protest) पर दबाव डालता है। हालाँकि हिंसा और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना अक्षम्य है, लेकिन आंदोलनकारियों को डराने की प्रियंका चहर और संघर्ष समिति की शिकायतें न्यायपूर्ण प्रक्रिया की मांग करती हैं।

3. प्रशासनिक अक्षमता और आगे की रणनीति

प्रशासनिक स्तर पर कई गंभीर चूकें सामने आईं:

– संचार की विफलता: डेढ़ साल से चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बावजूद, प्रशासन ग्रामीणों को पर्यावरण एनओसी और फ़ैक्ट्री के सुरक्षा उपायों के बारे में समझाने में विफल रहा। संघर्ष समिति का आरोप है कि ज़िला प्रशासन फ़ैक्ट्री का प्रतिनिधि बनकर काम कर रहा था।
– हिंसा का प्रबंधन: एसपी द्वारा दिए गए बयान और आंदोलनकारियों के आरोपों (कि पुलिस ने जानबूझकर भीड़ को फ़ैक्ट्री तक जाने दिया और फिर पथराव हुआ) से लगता है कि क़ानून व्यवस्था के प्रबंधन में गंभीर त्रुटियाँ थीं।
– प्रशासनिक आश्वासन: डिविज़नल कमिश्नर और कलेक्टर ने फ़िलहाल निर्माण कार्य रोकने और आशंकाओं की जांच कराने का आश्वासन दिया है। यह एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह आश्वासन तब आया जब बड़े पैमाने पर हिंसा हो चुकी थी।

राठीखेड़ा का संघर्ष इस बात का प्रतीक है कि भारत में विकास की परिभाषा बदलनी होगी। विकास का मतलब वह नहीं हो सकता जो जनता के जीवन को सीधे खतरे में डालता हो। 17 दिसंबर को राकेश टिकैत और अन्य बड़े किसान नेताओं की प्रस्तावित सभा इस आंदोलन को एक राष्ट्रीय स्वरूप दे सकती है।

सरकार को अब राजनीतिक बयानबाजी छोड़कर, वैज्ञानिक विशेषज्ञ समिति के माध्यम से इस एशिया की सबसे बड़ी फ़ैक्ट्री के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) की सार्वजनिक समीक्षा करानी चाहिए और इस बात की गारंटी देनी चाहिए कि भूजल और स्वास्थ्य पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। जन-सहमति ही विकास का संवैधानिक आधार होना चाहिए।
(रिपोर्ट: प्रदीप शुक्ल)

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