शनिवार, नवम्बर 23, 2024
होमदेशराहुल महज एक सहयात्री: चल तो भारत रहा है

राहुल महज एक सहयात्री: चल तो भारत रहा है

हिन्दुस्तान एक परिघटना को प्रत्यक्ष होता देख रहा है- कन्याकुमारी से कश्मीर तक कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की पैदल यात्रा के रूप में। ‘भारत जोड़ो’ के नाम से होने वाली यह यात्रा भीषण राजनैतिक कटुता तथा अभूतपूर्व सामाजिक वैमनस्यता के बीच होने के कारण अनेक संशयों के साथ देखी जा रही है, विभिन्न आरोप लग रहे हैं और कई तरह के कटाक्ष (लग्जरीदार कंटेनर, महंगी टीशर्ट आदि को लेकर) हो रहे हैं।

शंका जाहिर की जा रही है कि 2024 का चुनाव जीतने तथा राहुल को ‘रिलांच’ करने का यह आयोजन है; और आरोप यह कि विवेकानंद के पांव पड़े बिना ही यह यात्रा हो रही है। तंज तो इतने कि गिना नहीं सकते। बहरहाल, अभी तो पहला हफ्ता ही पूरा हो रहा है। आगे और भी बड़े आरोप लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

कुछ समय पहले उदयपुर (राजस्थान) में कांग्रेस के हुए संकल्प चिंतन शिविर की बैठक में लिये गये एक निर्णय के अनुसार यह यात्रा निकली है। तब से लेकर इस यात्रा की शुरुआत तक अनेक ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनके कारण यह यात्रा टल सकती थी, बढ़ाई जा सकती थी। उन विषम परिस्थितियों के बावजूद राहुल निकल पड़े हैं। प्रमुख व्यक्तिगत कारण रहे- उनकी मां व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी खासी बीमार हैं और अभी-अभी अपनी मां का निधन होने के कारण वे अपने परिवार के पास इटली में हैं।

हाल ही में राहुल और सोनिया नेशनल हेराल्ड मामले में प्रवर्तन निदेशालय की लम्बी पूछताछ से गुजरे हैं और कभी भी फिर से बुलाए जा सकते हैं। पार्टीगत कारकों की बात करें, तो नेतृत्व को लेकर कई दिग्गज सहयोगी नेता राहुल पर हमलावर हैं। कुछ उन्हें पार्टी अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते हैं तो कुछ सोनिया को और कई गांधी परिवार से बाहर के किसी को प्रमुख बनाने की बात कह रहे हैं। सभी सूरतों में कांग्रेस व उन पर (सपरिवार) भारतीय जनता पार्टी आलोचना के तमाम मौके भुना रही है।

कांग्रेस में रहकर बड़े बने कपिल सिब्बल पार्टी छोड़ गये हैं और आधी सदी इसी दल में रहे गुलाम नबी आजाद एक लम्बी चिट्ठी सौंपकर निकल लिये हैं। मन न भरा तो एक प्रेस कांफ्रेंस भी कर ली। निशाना राहुल ही हैं। असंतुष्टों का खेमा ‘जी-23’ लगातार हमलावर है। देश यह भी नहीं भूलेगा कि राहुल जब एक बड़ा राजनैतिक-सामाजिक प्रयोग करने जा रहे हैं, तभी उनकी अपनी पार्टी के भीतर के 5 बड़े नेता आंतरिक चुनावों की प्रक्रिया को लेकर आपत्तियां दर्ज करा रहे हैं। खैर!

आखिर क्या इस यात्रा में सिर्फ यही है कि राहुल ‘रिलांच’ हो रहे हैं। हालांकि ऐसा कहने वाले यह नहीं बताते कि आखिर वे किस बात के लिये रिलांच हो रहे हैं? पार्टी अध्यक्ष के लिये? वे तो अभी भी उस पद को पाने की हैसियत रखते हैं। तो फिर क्या प्रधानमंत्री बनने के लिये? इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि कोई उन्हें कितना भी ‘पप्पू’ समझें, वे जानते हैं कि महज 3 दर्जन से कुछ ज्यादा सीटों के साथ और बहुमत (अकेले या समर्थकों से मिलकर) के बिना वे नहीं बन सकते। फिर, यह भूलना चालाकी व उनके प्रति अन्यायपूर्ण होगा क्योंकि दो बार यह पद उनकी सहज पकड़ में था।

यह भी कहा जा रहा है कि “देश तो पहले से ही जुड़ा हुआ है, तो राहुल आखिर किसे जोड़ रहे हैं?” सच तो यह है कि ये सवाल या तो विरोधी दल, खासकर भाजपा कर रही है अथवा वे जो देश की टूट-फूट में या तो भाजपा के ही सहयोगी हैं अथवा इस विखंडन का लाभ ले रहे हैं। वरना सब जानते हैं कि देश कहां-कहां से व कैसे विभाजित हो रहा है; और कौन कर रहा है। आज सब कुछ साफ है कि मोदी राज में क्या-क्या टूटा है और क्या-क्या जोड़े जाने की आवश्यकता है।

केन्द्र एवं भाजपा शासित राज्यों के पिछले 8-9 वर्षों का घटनाक्रम देखें तो साफ होता है कि भारत के सदियों से समरस समाज में बडी दरारें पड़ी हैं। अधिकार प्रदत्त सारी संवैधानिक संस्थाएं एवं राजनैतिक शक्तियां इस बहुलतावादी देश के लोकतंत्र, साम्प्रदायिक सद्भाव, समानता, बन्धुत्व जैसे मूल्यों को बहुमत के बल पर धराशायी कर रही हैं। आर्थिक व सामाजिक विषमताएं बढ़ी हैं।

राज्य शक्तिशाली व केन्द्र निरंकुश हुआ है जबकि नागरिक व संघीय ढांचा क्रमशः कमजोर और जर्जर। भारत की नींव पिछले 8 वर्षों में जितनी दरकी है और उसकी भव्य मीनारों को जितना नुकसान इन्हीं दिनों में पहुंचा है, वह अभूतपूर्व है। यह पूरे देश की एकता व अखंडता को खतरे में डालने वाली राजनीति है जो भाजपा ने अपने क्षुद्र उद्देश्यों के लिये की है। मोदी काल में भारत केवल और केवल टूटा है।

राहुल इन्हीं सब टूटे को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिये वे न चुनाव की बात कर रहे हैं और न ही राजनीति की। यात्रा सफल होगी या नहीं, यह पता नहीं लेकिन वे अपना फर्ज निभा रहे हैं। फलित जो हो, पर 150 दिनों तक चलने के बाद राहुल का कद आज के मुकाबले काफी ऊंचा होगा और आज वे जहां खड़े हैं, उनसे काफी आगे पहुंच चुके रहेंगे। उनकी ओर देखने का नज़रिया न सिर्फ जनता का बदलेगा वरन उनकी पार्टी के भीतर और विपक्षी दलों का भी परिवर्तित होगा।

3570 किमी चलकर राहुल उस जगह पर होंगे जहां पहुंचने के बाद वे एक अपरिहार्य एलीमेंट बन जायेंगे। उसके बाद अध्यक्ष या पीएम का पद उनके लिये बहुत मायने का नहीं रह जायेगा। विपक्षी एकता के बाबत उन्हें दरकिनार करने की जो बातें अभी होती हैं, वे बन्द हो जायेंगी। यह भी अभी नहीं कहा जा सकता ये दोनों पद पाने के लिये वे विचार या कोशिश करेंगे या नहीं, क्योंकि ऐसी परिस्थितियां बनेंगी या नहीं, यह तक कहना मुश्किल है।

इस यात्रा को लेकर देश के आम लोगों में जो उत्सुकता और उत्साह है वह इसलिये कि अब वे यह खेल समझ चुके हैं कि राहुल गांधी एवं उनकी पार्टी के खिलाफ आखिर क्यों खरबों रुपये खर्च किये गये और उनके मुकाबले एक ऐसे व्यक्ति को ‘महामानव’ बनाकर पेश किया गया जिसका सत्ता पाने का उद्देश्य वह तो कतई नहीं था, जैसा कि प्रचारित किया गया था। एक के बाद एक फ्लॉप होती योजनाओं से जब ‘विकास-पुरुष एवं कथित ‘गुजरात मॉडल’ की कलई खुल गयी तो लोगों को आर्थिक व राजनैतिक रूप से कमजोर किया गया तथा सामाजिक व साम्प्रदायिक विभाजन का गंदा खेल खेला गया ताकि सरकार के खिलाफ देश की कोई सम्मिलित आवाज न रह जाये।

राष्ट्रवाद की आड़ में पूंजीवाद को सुरक्षित करने के लिए सरकार से सवाल पूछने वाले देशद्रोही घोषित होते हैं, जनपक्ष में खड़े लोग जेलों में सड़ाए जाते हैं और विरोधी विचारधारा के लोगों के विरूद्ध सरकार अपने समर्थकों को सड़कों एवं मीडिया में भिड़ा देती है। देश के समक्ष हिन्दू-मुसलिम, अगड़े-पिछड़े, देशभक्त-राष्ट्रद्रोही, श्मशान-कब्रिस्तान, पाकिस्तान-अफगानिस्तान जैसे विषयों के अलावा कुछ शेष नहीं रह गया है। गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसे मूलभूत मुद्दों की नामलेवा भी यह सरकार नहीं है।

यह संयोग मात्र नहीं है कि विपक्षी एकता के प्रयासों की स्पीड पकड़ रही गड्डी के दौरान कई विपक्षी नेताओं का नज़रिया उन्हें लेकर बदला है। दरअसल यह यात्रा हर विपक्षी दल व नेता के लिये प्रासंगिक बन गयी है और हर किसी को इसके साथ अपने रिश्तों का खुलासा करना और सार्वजनिक तौर पर उसके अनुकूल दिखलाई देना आवश्यक हो जायेगा।

भारतीय जनता पार्टी, उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सहयोगी दलों के लिये तो यह स्वाभाविक है कि वे राहुल व उनके कारवां की आलोचना करें (जिसका कोई बुरा भी नहीं मानेगा), पर गैर भाजपायी दलों की उसे लेकर क्या राय रहेगी- इसे जनता नोट करेगी। आखिरकार, राहुल तो केवल लोगों को जोड़ ही रहे हैं। सच तो यह है कि इस बेहद ज़रूरी यात्रा में भारत ही चल रहा है जिसमें कांग्रेस तो निमित्त मात्र है और राहुल महज एक सहयात्री।

-डॉ दीपक पाचपोर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं)
RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments