छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के गोमपाड़ गांव से आई दर्दभरी पुकार
छत्तीसगढ़, सुकमा जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र में पुलिस कैंपों के विरोध का मामला लगातार तूल पकड़ रहा है। गोमपाड़ गांव की लक्ष्मी और सिंगाराम के रामबाबू जैसे अनेक आदिवासी आज सरकार की नीतियों और पुलिस कैंपों की स्थापना का विरोध कर रहे हैं। यह विरोध महज सरकारी योजनाओं के प्रति असहमति नहीं है, बल्कि यह उस पीड़ा और दमन का परिणाम है, जिसका सामना आदिवासी समुदाय लंबे समय से कर रहा है।
मूलवासी बचाव मंच और उसका संघर्ष
मूलवासी बचाव मंच की स्थापना सिलगेर में पुलिस गोलीकांड के बाद हुई। कोरोना महामारी के समय जब स्कूल, कॉलेज और हॉस्टल बंद थे, आदिवासी नौजवान अपने गांव लौट आए थे। उसी दौरान सिलगेर में एक नए पुलिस कैंप की स्थापना का विरोध हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पुलिस ने गोलीबारी की और पांच निर्दोष आदिवासियों की मौत हो गई, जिनमें एक गर्भवती महिला भी शामिल थी।
इस घटना के बाद, आदिवासी युवाओं ने एक मंच बनाकर सरकारी योजनाओं और खनन परियोजनाओं का विरोध शुरू किया। मंच का उद्देश्य स्पष्ट है—आदिवासियों की जमीन और जंगल की रक्षा करना, जो उनकी आजीविका और संस्कृति का आधार हैं।
पुलिस कैंपों की स्थापना: आदिवासी अधिकारों की अनदेखी
यह क्षेत्र संविधान की पाँचवी अनुसूची के अंतर्गत आता है, जहां ग्राम सभा की अनुमति के बिना किसी भी सरकारी गतिविधि को अंजाम नहीं दिया जा सकता। बावजूद इसके, पुलिस कैंपों की स्थापना के लिए हजारों पेड़ों को रातोंरात काट दिया गया और कई बार आदिवासियों की खेती योग्य जमीन पर अवैध कब्जा किया गया।
पुलिस दमन और आदिवासियों का भय
गांवों में पुलिस कैंपों की उपस्थिति आदिवासियों के लिए खौफ का सबब बन गई है। महिलाओं के साथ बलात्कार, निर्दोषों की गिरफ्तारी और फर्जी मुठभेड़ों में हत्या की घटनाएं इस क्षेत्र में आम हो चुकी हैं। आदिवासियों का कहना है कि पुलिस की यह बर्बरता उन्हें उनकी जमीन से बेदखल करने और खनिज संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा दिलाने के लिए की जा रही है।
लक्ष्मी और रामबाबू की कहानी
गोमपाड़ की लक्ष्मी और सिंगाराम के रामबाबू इस आंदोलन का चेहरा बन गए हैं।
रामबाबू: उनके पिता और 18 अन्य लोगों की 2009 में पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। चार महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनके शवों के साथ बर्बरता की गई।
लक्ष्मी: उनकी बेटी हिड़मे को 2016 में पुलिस ने घर से खींचकर ले जाया। उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, चाकू से उसके शरीर को चीर दिया गया और मुठभेड़ में नक्सली बताकर हत्या कर दी गई।
लक्ष्मी और रामबाबू जैसे लोग अदालतों तक पहुंचे, लेकिन उनकी याचिकाएं खारिज कर दी गईं। पुलिस ने लक्ष्मी पर आरोप लगाया कि वह मृतका की मां ही नहीं है। यह असंवेदनशीलता और न्याय की असफलता आदिवासियों के आक्रोश को और भड़काती है।
आदिवासियों का आह्वान
आदिवासी समुदाय का संघर्ष केवल उनके हक और अधिकारों के लिए है। वे चाहते हैं कि उनकी जमीन, जंगल और जीवनशैली को सुरक्षित रखा जाए।
सुकमा में पुलिस कैंपों का विरोध एक स्थानीय समस्या से बढ़कर देश के आदिवासी समुदाय के अधिकारों और न्याय की लड़ाई बन चुका है। यह कहानी न केवल आदिवासियों की पीड़ा को उजागर करती है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करती है कि विकास के नाम पर कब तक हाशिए पर खड़े समुदायों का दमन किया जाएगा।
सरकार और प्रशासन को चाहिए कि आदिवासियों की संवेदनाओं को समझे और उनके साथ संवेदनशीलता और न्यायपूर्ण व्यवहार करे।
– हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता।
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