महाशक्तियों का ‘भू-राजनीतिक शक्ति संतुलन’ और ‘एक-ध्रुवीयता बनाम बहु-ध्रुवीयता’ वाले गणित के हिसाब से जनांदोलनों के लिए हमारी साझीदारी को कम-बेशी करने का सलाह, हमारे देश में लोकतंत्र के आंदोलन के लिए नैतिक और भौतिक पतन का ही रास्ता खोलेगा। ईरान हो या यूक्रेन – तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों की जीत में हमारी जीत है। किसी भी तानाशाह के हार में हर तानाशाह का हार है!
स्क्रीन शॉट में माकपा के सोशल मीडिया सेल की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले एक शक़्स हैं जो कह रहे हैं कि भई, ईरान की सरकार एक दकियानूस तानाशाही सरकार तो है, पर वे नहीं चाहते कि ईरान की महिलाएँ और उसकी जनता तानाशाह को उखाड़ फेंकें – क्योंकि उनके अनुसार ऐसा होना जनांदोलन की जीत नहीं, अमेरिका द्वारा “तख्तापलट” होगा. ये कह रहे हैं कि ईरान में आंदोलन “हिंसक” हो गया है – ठीक वैसे जैसे हमारे देश में TV चैनलों ने पुलिस द्वारा मार और हत्या झेल रहे किसान आंदोलन को “हिंसक” कह दिया था।
ईरान में आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ सेना उतार दिया गया है; इंटर्नेट बंद कर दिया गया है ताकि बिना गवाहों के जनसंहार किया जा सके; बच्चों बुजुर्गों और युवाओं सब पर गोलियाँ और पेलेट गन इस्तेमाल किए जा रहे हैं; मारे जाने वाले प्रदर्शनकारियों की संख्या पता नहीं है. ऐसे में आंदोलनकारी युवा जब पुलिस द्वारा दागे गए टियर गैस के गोले को हाथों में उठाकर वापस पुलिस के ख़ेमे में फेंकते हैं; पुलिस वालों को घेर कर उन्हें भगाते या पीट देते हैं – तो इसे हिंसा नहीं, जान पर खेल जाने वाला अद्भुत साहस कहते हैं।
इस पोस्ट के कहने का मतलब है कि महसा अमीनी जैसी महिलाओं का वहाँ की “नैतिकता पुलिस” द्वारा प्रताड़ित और बेइज़्ज़त किया जाना और यहाँ तक कि मारा जाना, वहाँ के लोगों को तानाशाह के ख़िलाफ़ बोलने या लिखने या फ़िल्म बनाने के लिए जेल में डाला जाना या मौत की सजा दिया जाना, दुखद तो है – पर इसे ईरान के लोग थोड़ा बर्दाश्त कर लें क्योंकि ईरान के इस्लामिक रिपब्लिक के गिरने से “अमेरिकी साम्राज्यवाद” को फ़ायदा हो जाएगा.
वामपन्थ के नाम पर इस क़िस्म का दिवालियापन – चाहे वह इस पोस्ट जितना निर्लज्ज हो चाहे वह गोल-गोल शब्दों का इस्तेमाल करें – हमने सीरिया, यूक्रेन और अब ईरान के मामले में देखा है. जनसंहार पर आमादा तानाशाह के ख़िलाफ़ जनांदोलन की जीत हो इसके लिए वाम जनवादी ताक़तों को तो अपने और दुनिया के सभी सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए कि वे ऐसे आंदोलनों को जनसंहार से बचाने और जीत हासिल करने में हर सम्भव मदद करें. पर ऐसा न करके वे अक्सर हर आंदोलन, चाहे जहां चल रहा हो, की समीक्षा अमेरिका को केंद्र में रखकर करते हैं. अमेरिका के लिए फ़ायदा-नुक़सान को नाप तौल कर, अमेरिका को कहीं फ़ायदा न पहुँच जाए उस हिसाब से आंदोलन के लिए साझीदारी को माप-माप कर देते हैं.
तानाशाह कितना भी जनसंहारी और क्रूर क्यों न हो, दुनिया के तमाम तानाशाह (यहाँ तक कि अमेरिका में भी ट्रम्प जैसे तानाशाह बनने की इच्छा रखने वाले नेता) एक दूसरे से मिले हुए क्यों न हो, कुछ वामपंथी कहते हैं कि “हम तो उसे अमेरिका और “पश्चिमी देशों” के ख़िलाफ़ “ध्रुव” मान रहे हैं”. वे कहते हैं “देख भई ‘बहु-ध्रुवीयता’ के नाम पर उस तानाशाह का बना रहना ही उस देश के लोगों की आज़ादी से ज़्यादा ज़रूरी है. उनके जनसंहार के क़ीमत पर ही सही, बहु-ध्रुवीयता बचना चाहिए, और इसलिए वहाँ की जनता को अमेरिका से मदद नहीं मिलना चाहिए.
हाँ हमने रोजावा लड़ाकुओं का खूब साथ दिया, उनके महिला सैनिकों की तस्वीरों को अपने पत्रिकाओं में लगाया, इसके बावजूद कि वे अमेरिका से शस्त्र लेते हैं. पर यूक्रेन या ईरान या सीरिया में तानाशाह के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों की दुनिया से मदद की प्रार्थना के जवाब में हम कहेंगे, “देखिए आपकी लड़ाई जायज़ तो है, और हम आपके साथ सहानुभूति भी रखते हैं, पर अफ़सोस, ‘बहु-ध्रुवीयता’ के लिए आपकी शहादत ज़रूरी है.”
मुझसे न जाने कितने बार पूछा जाता है: “विदेश में चल रहे आंदोलन की जीत के लिए हम भला क्या ही कर सकते हैं? ट्वीट तो कर ही दिया न? चलिए लेख भी छाप देंगे अपनी पत्रिका में. काफ़ी नहीं है? विदेश के आंदोलन को लेकर इतना क्या भावुक होना? हमारे पास और काम नहीं हैं?” ऐसे नैतिक रूप से दिवालिया सवालों का क्या जवाब है? फिर भी जवाब दे ही दिया जाए:
– हम ईरान की महिलाओं के और अन्य देशों में रह रहे ईरान के पत्रकारों और नारीवादियों और लोकतंत्र पसंद लोगों की आवाज़ को बुलंद कर सकते हैं. मसीह अलीजेनाद और गोलशिफ़्ते फ़रहनी के सोशल मीडिया हैंडल्ज़ को फ़ॉलो करना शुरू करें. आंदोलन के बारे में फैलाए जा रहे दुष्प्रचार का हम मुक़ाबला कर सकते हैं.
– हम खुद ईरान के लोगों के पक्ष में प्रदर्शन कर सकते हैं – उनके नारों (जैसे ‘तानाशाह मुर्दाबाद’, ‘ज़न, ज़िंदगी, आज़ादी’, और ‘इंसाफ़, आज़ादी, हिजाब-ए-इख़्तियारी (हिजाब पर अपनी मर्ज़ी)’ को बुलंद कर सकते हैं
जब हम ईरान या सीरिया या फ़िलिस्तीन या यूक्रेन या अफ़ग़ानिस्तान या चीन या रूस या तुर्की या अमेरिका या कहीं की भी सत्ता द्वारा नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, तानाशाही, दमन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ पीड़ित जनता का पुरज़ोर साथ देते हैं तो हम अपने देश में भी लोकतंत्र की जड़ों को (जिनके बारे में अम्बेडकर ने ठीक ही चेतावनी दी थी कि ये जड़ें ऊपरी मिट्टी में ही हैं, गहरे नहीं हैं सतही हैं) खाद पानी देते हैं, उसे मज़बूत करते हैं.
दुनिया के मज़दूरों के एक होने की बात से वामपन्थ कुछ भटक नहीं गया है? दुनिया के जनांदोलनों को क्या दुनिया के सभी तानाशाहों या भावी तानाशाहों के ख़िलाफ़ एक नहीं होना चाहिए?
खमेनी, मोदी, ट्रम्प, पूतिन, ओरबान, शी, म्यांमार की मिलिटरी शासन, इज़्रेली सत्ता, तालिबान, एरदोआँ, लिज़ ट्रस, बोरिस जॉनसन, ल पेन, ए.एफ.डी – तमाम तानाशाही, नस्लवादी, साम्प्रदायिक, साम्राज्यवादी और औपनिवेशी राज्यों और ताक़तों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलनों को क्या एक दूसरे का साथ नहीं देना चाहिए?
“ध्रुव नम्बर वन” अमेरिका में भी तो ट्रम्प जैसा तानाशाह है जो कि मोदी से ‘हाउड़ी’ कहता है, पूतिन के पैसों पर पलता है, चीन और रूस दोनों की सरकारों की मदद से उन देशों में अपना बिज़्नेस चलाता है. अमेरिका में ट्रम्प के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों; और यूक्रेन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, भारत, चीन, रूस आदि में तानाशाही और नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों में साझीदारी कुछ हद तक बराबरी भी लाता है.
इज़्रेल की दमनकारी टेक्नॉलजी अमेरिका में ब्लैक लाइव्ज़ मैटर के प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होता है; इज़्रेल की ख़ुफ़िया पेगासस टेक्नॉलजी और चीन की फ़ेशल रेकग्निशन टेक्नॉलजी (जो पहले उईगर मुसलमानों के ख़िलाफ़ और फिर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के ख़िलाफ़ और अब कोविड के बहाने चीन की पूरी जनता के ख़िलाफ़ इस्तेमाल हुआ) दोनों ही भारत की मोदी सरकार दमन के काम में लगा रही है. चीन अपने यहाँ उईगर मुसलमानों के लिए विशाल कारा शिविर (कॉन्सेंट्रेशन कैम्प) खोली है; और वह म्यांमार के मिलिटरी को फ़ंडिंग देती है, जो कि रोहिंग्या लोगों की राष्ट्रीयता छीन कर उनका जनसंहार कर रही है. क्या भारत में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को लड़ने के लिए काफ़ी है कि हम इज़्रेल के साथ मोदी राज के रिश्तों को समझें? बिलकुल. पर हमारे बग़ल में चीन और म्यांमार की नीतियों द्वारा पैदा हुए मुस्लिम-विरोधी और तानाशाही माहौल से मोदी राज को होने वाले फ़ायदे की चर्चा से क्यों इनकार किया जाता है?
चीन की दमनकारी टेक्नॉलजी; चीन में हान-वर्चस्ववादी और मुस्लिम-विरोधी राष्ट्रवाद को समाजवाद का चोला पहनाया जाना; चीन में एक पार्टी, एक नेता, एक विचार धारा का सर्वसत्ता-प्राप्त राज; चीन की जनता को हक़-प्राप्त नागरिक नहीं बल्कि “लाभार्थी” और “कर्तव्यनिष्ट” प्रजा में तब्दील करने में शी शासन और उनके नेतृत्व में चीन की कॉम्युनिस्ट पार्टी की सफलता – इन सब चीजों से क्या मोदी राज शिक्षा नहीं ले रहा? ट्रम्प हो या नेतान्याहु, शी हो या पूतिन, मोदी तो सभी तानाशाहों से शिक्षा ले रहे हैं!
पूतिन और उनके फ़ासीवादी बुद्धिजीवी (जैसे दूगिन) खुल कर कहते हैं कि रूस, चीन, भारत, अरब देश आदि “प्राचीन सभ्यताएँ” हैं जिनकी संस्कृति में तानाशाही है, फ़ासीवाद है, लोकतंत्र नहीं. इनके अनुसार लोकतंत्र, नारीवाद और महिलाओं, LGBTQIA लोगों की बराबरी, मानवाधिकार आदि “पश्चिमी देशों” की बातें हैं, जिन्हें पूरी दुनिया पर थोपा जा रहा है. पूतिन ने घोषणा की है कि दुनिया के शक्ति संतुलन को बदलकर लोकतंत्र की जगह इन “प्राचीन सभ्यताओं” की सत्ता को क़ायम करना होगा, और इन सभ्यताओं द्वारा अपना साम्राज्य क़ायम करने के लिए किसी बग़ल देश पर हमला, या उनके देश के भीतर किसी समुदाय का उत्पीड़न; चुनाव का होना न होना आदि के सवाल पर कोई UN जैसी ताक़त जवाबदेही न माँग सकें.
2009 में लिखे एक लेख में दूगिन ने साफ़ कर दिया था कि भारत की प्राचीन सभ्यता से उनका मतलब हिंदू-वर्चस्व से है – उन्होंने संघ के नेता दत्तोपंत तेंगदी के हवाले से अपनी बात को पुख़्ता किया था. दुनिया में इस फ़ासीवादी शक्ति-संतुलन को स्थापित करने के पूतिन के लक्ष्य के रास्ते में यूक्रेन की जनता और उसका बहादुर जनयुद्ध ही सबसे बड़ा रोड़ा है. इसके बावजूद क्या हम कहते रहेंगे कि भारत में फ़ासीवाद-विरोधी लड़ाई पर ज़ोर देने का मतलब है यूक्रेन कि लड़ाई को नाम-वास्ते समर्थन देकर कन्नी काट लेना?
पूतिन जैसे तानाशाह का भी “बहु-ध्रुवीयता” के नाम पर बचाव करना? पूतिन के झूठे तर्कों के ख़िलाफ़ प्रचार करने की ज़िम्मेदारी से बचना या यहाँ तक कि उन झूठे तर्कों का खुद प्रचार करना? ठीक वैसे जैसे आज CPIM के ये शक़्स ईरान के आंदोलन को अमेरिकी तख्ता-पलट की साज़िश बता कर बदनाम कर रहे हैं; वैसा ही दुनिया और भारत के मुख्य वामपंथी धाराओं ने 2014 के यूक्रेन के मैदान आंदोलन को अमेरिकी तख्ता-पलट की साज़िश कह कर बदनाम किया. जबकि वह आंदोलन एक अफ़ग़ान-मूल के रूसी भाषी मुस्लिम पत्रकार के फ़ेस्बुक पोस्ट से शुरू हुआ, पूतिन द्वारा पैसे खाकर EU से संधि से अंतिम मिनट मार मुकर जाने वाले प्रेसिडेंट यानुकोविच के ख़िलाफ़।
आंदोलनकारियों की किसी बिल्डिंग के खिड़की से रूस के गुप्त स्नाइपर सेना ने गोली मारकर हत्या करने पर आंदोलन और भी व्यापक हो गया और पूरा देश मैदान पर उतर आया, और यानुकोविच को भागना पड़ा – ठीक वैसे जैसे हाल में श्री लंका के जनांदोलन ने गोताबया राजपक्षा को भागने के लिए मजबूर किया. वामपंथ के ढेर सारी धाराओं ने पूतिन के दुष्प्रचार को फैलाया – कि इस ‘तख्तापलट’ के जवाबी कार्यवाही में पूतिन ने 2014 में यूक्रेन पर हमला किया।
ईरान और यूक्रेन और फ़िलिस्तीन और यमन – जनता की सभी लड़ाइयों की जीत, दुनिया के जनता की तानाशाही नफ़रती राजनीति के ऊपर जीत है. लोकतंत्र के लिए इस साझी लड़ाई में में अमेरिका नहीं दावा कर सकता है कि हम लोकतंत्र को अन्य देशों में ‘एक्सपोर्ट’ (निर्यात) कर रहे हैं; या हम लोकतंत्र के ग्लोबल चौकिदार हैं, हमारे नेतृत्व में तानाशाहों के ख़िलाफ़ आइए युद्ध लड़िए. बल्कि हर देश की तरह अमेरिका को भी अपने यहाँ के फ़ासीवादी तानाशाही नफ़रती ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए, दुनिया में हर ऐसी लड़ाई का हार सम्भव मदद करना होगा. इतनी सरल बात को घुमाने की कोशिशों के प्रति सचेत रहने की ज़रूरत है।
सवालों से बच निकलने के बजाय जनता और जनवाद के प्रति जवाबदेह रखने की हम सब की ज़िम्मेदारी है.
दुनिया में ‘भू-राजनैतिक शक्ति-संतुलन’ बनाए रखने के बहाने तानाशाह/फ़ासीवाद-विरोधी जनांदोलनों, जनयुद्धों से कन्नी काटने, खुले दिल से समर्थन करने से बचने, या उन आंदोलनकारियों को जीत की बलि देने, और थोड़ा झुक जाने की सलाह देने की प्रवृत्ति को पहचानें – और वामपंथी और प्रगतिशील ताक़तों द्वारा ऐसा किए जाने पर सवाल करें. क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलनों को – उनके नैतिक और भौतिक आधार को – “रियल पोलिटिक” के नाम पर कमज़ोर ही करेगा. अन्यायपूर्ण ‘असलियत’ को बदलने की बजाय उसे ‘रियल’ मान लेने के नाम पर हमने भारत में वामपंथी सरकारों को पूँजीपतियों के लिए किसानों की ज़मीन छीनकर उनपर गोली चलाने का नतीजा देखा है।
दुनिया में चाहे एक ध्रुव रहे या कई ध्रुव – हम प्रगतिशील-वामपंथी लोगों को साम्राज्यवादी युद्ध, तानाशाही, नफ़रती राज्यों और ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ना तो है ही – और अन्य देशों में ऐसी लड़ाइयों के साथ होना है, बस, इतनी सरल बात है. किस आंदोलन का साथ देने से कौन से ‘बिग पावर’ (महाशक्ति) का फ़ायदा या नुक़सान होगा, उस गणित के हिसाब से जायज़ जनांदोलनों के लिए हमारी साझीदारी को कम-बेशी करना, यह हमारे आंदोलनों को भी महाशक्तियों की होड़ की राजनीति का खिलाड़ी बना देता है. और ऐसा होना, हमारे आंदोलन के नैतिक-भौतिक पतन का ही रास्ता खोलता है।
चीन के उईगरों और ईरान के लोगों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाकर, चीन के तानाशाही मुस्लिम-विरोधी सत्ता और ईरान के इस्लामिक रिपब्लिक के झूठ का पर्दाफ़ाश करके हम भारत में भी लोगों को समझाने में ज़्यादा सफल होंगे, कि संप्रदायिकता, और एक-पार्टी एक-नेता, एक-धर्म/विचारधारा के नाम पर दमन के ख़िलाफ़ हम निष्पक्ष होकर आंदोलन करेंगे; चाहे हिंदू राष्ट्र के नाम पर मोदी हो, “कॉम्युनिस्ट राष्ट्र” के नाम पर शी हो, या ‘इस्लामिक रिपब्लिक’ के नाम पर खमेनी हो. इसे हम जितनी जल्दी समझें उतना ही अच्छा।
“हर जगह, हर परिस्थिति में, तानाशाह चाहे दक्षिणपंथ का हो या खुद को वामपंथी कहता हो: सच का साथ दें, दमन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे जनता का साथ दें, उनकी जीत के लिए ताक़त लगाएँ. क्योंकि उनकी जीत में हमारी जीत है: और किसी भी तानाशाह के हार में हार तानाशाह का हार है. बस इतनी सी बात है!” इस नैतिक ताक़त और स्पष्टता के बिना भारत में भी लोकतंत्र के लिए जनसमर्थन और जनांदोलन तैय्यार नहीं हो सकता, जो कि पूरे मन से और स्पष्ट समझ से संघी फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ एकता बना सके। (कविता कृष्णन मार्क्सवादी विचारक एवं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)
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