व्यंग : राजेंद्र शर्मा
मोदी जी को इस हैप्पी बर्थ डे पर तो गांधी जी को राष्ट्रपिता के पद से रिटायर कर ही देना चाहिए। आखिर 75 साल तो बापू को ऑफीशियली यानी स्वतंत्रता के बाद “राष्ट्रपिता” रहते हुए हो ही गए हैं। उससे पहले के भी दस-पंद्रह साल तो कहीं गए नहीं हैं। और बेचारों से कितने टैम “राष्ट्रपितागीरी” कराएंगे।
और कोई भले ही न करे, पर कम से कम मोदी जी को तो अगले की बुजुर्गी का ख्याल रखना चाहिए। सब कुछ के बावजूद हैं, तो उनके गुजरात के ही। मोदी जी ने उनकी, सरदार की जैसी, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति नहीं बनवायी है, तो इसका मतलब यह थोड़े ही है मोदी जी को गांधी जी का ख्याल ही नहीं है। मूर्ति का मामला जरा डिफरेंट था।
मोदी जी की बनवायी मूर्ति को कम-से-कम टू इन वन तो होना ही चाहिए था — मूर्ति की मूर्ति और वर्ल्ड रिकार्ड का वर्ल्ड रिकार्ड। अब दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति तो दुनिया में न सही, कम से कम इंडिया में तो एक ही हो सकती थी। और जाहिर है कि एक गुजराती की मूर्ति तो सरदार साहब की ही हो सकती थी। पर मोदी के मूर्तियों को बनवाने का सिलसिला उसी पर खत्म हो गया, क्योंकि जिन मोदी जी के कंपटीशन में केजरीवाल साहब अब इंडिया को नंबर वन बनाने के लिए चुनाव कैंपेन पर निकल पड़े हैं, वह मोदी जी नंबर वन बनाने के बाद, नंबर टू-थ्री वगैरह मूर्तियां तो बनवाने वाले थे नहीं। बस इसीलिए, गांधी जी पहले वाली छोटी मूर्तियों में ही रह गए। वर्ना सरदार से थोड़ा कम ही सही, पर गांधी जी का भी मोदी जी को बहुत ख्याल है। और कोई कुछ भी कहे, रिटायरमेंट पॉलिसी की जरूरत तो बुजुर्गों का ख्याल रखने के लिए ही होती है। गांधी जी के बुढ़ापे की चिंता मोदी जी नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?
राष्ट्रपिता के आसन पर चढ़े-चढ़े, मूर्तियों के पैडस्टल पर रात-दिन ज्यादातर खड़े-खड़े बेचारों की हड्डियां दर्द करने लगी होंगी। मांस-वांस तो वैसे भी कभी था ही नहीं। अब मोदी जी नहीं तो, और कौन उनकी बूढ़ी हड्डियों को आराम दिलाएगा।
फिर सिर्फ हड्डियों के दर्द की बात होती तो बुढ़ऊ बाम-वाम लगाकर अभी और गाड़ी खींच सकते थे। बाम मलिए, काम पर चलिए। अब तो स्प्रे भी आने लगे हैं, लगाने में भी आसानी, काम आने में भी आसानी। पर बुढ़ऊ के दिल-दिमाग के कष्ट भी तो कोई कम नहीं हैं। देश आजाद हो रहा था, उसी टैम पर राजधानी की जगमग छोडक़र बुढ़ऊ खुद को हिंदू और मुसलमान कहने वालों को इंसान बनाने के लिए जो कोलकाता से लेकर दूर-दूर के देहात तक भटकते रहे थे, उसके बाद उनका दिल-दिमाग तो कभी राजधानी में लौटा ही नहीं। शरीर लौटा था, सो भाई गोडसे ने उसको धरती पर लोटा दिया। बाद में बंदा खुद भी धरती के पास लौट गया। तो क्या गोडसे जी को भारत का पहला आतंकवादी मानव बम कह सकते हैं!
खैर, मुद्दे की बात यह है कि राष्ट्रपिता के आसन पर टंगे-टंगे गांधी जी को अपार मानसिक क्लेश हो रहा है, उसका क्या? कभी अखलाक के लिए हाय-हाय, तो कभी फूल माला चढ़ाने वाले दंगाइयों को देखकर दुर-दुर। कभी सीएए के जुलूस में शामिल होने का मन करे, तो कभी दिल्ली के बार्डरों पर बैठे किसानों के बीच जाने का। कभी भीमा-कोरेगांव मामले के कैदियों को गले लगाने का मन करे, तो कभी जेएनयू वालों के संग आजादी-आजादी चिल्लाने का। बिलकीस बानो केस के दोषियों की माफी का मामला आया तब तो हाथ से दिल पकडक़र ही बैठ गए, जैसे दिल का दौरा ही पड़ जाएगा। ऐसे कमजोर दिल के साथ उन्हें राष्ट्रपिता कैसे बनाए रखा जा सकता है। अब इतने बड़े देश में ऐसे हादसे तो रुकने से रहे, बुढ़ऊ को किसी दिन कुछ हो-हवा गया, तो मोदी जी किसे-किसे जवाब देते फिरेंगे?
हमें पता है कि रिटायर होना तो किसी का भी अच्छा नहीं लगता है। फिर राष्ट्रपिता का रिटायर होना तो कैसे अच्छा लगेगा। सच पूछिए, तो राष्ट्रपिता के रिटायर होने की तो दुनिया भर में कोई दूसरी नजीर भी नहीं है। राष्ट्रपिता धीरे-धीरे भुला दिए जाएं, यह तो काफी हुआ है। लेकिन, याद रहते-रहते रिटायर कर दिए जाएं, यह अभी तक नहीं हुआ। यानी इस मामले में भारत के विश्व रिकार्ड बनाने की गुंजाइश है। विश्व रिकार्ड ही क्यों भारत इस मामले में तो पक्का विश्व गुरु बन सकता है। आखिरकार, हमारी तरह और भी तो बहुत से राष्ट्र होंगे, जो भीतर से एकदम बदल गए होंगे, फिर भी पुराने वाला राष्ट्रपिता ही ढो रहे होंगे। वे हमसे गुरुदीक्षा ले सकते हैं और गुजरे जमाने वाले राष्ट्रपिता के बोझ से मुक्ति पा सकते हैं।
और भारत को इस मामले में विश्व गुरु का आसन अगर कोई दिला सकता है, तो मोदी जी ही दिला सकते हैं। बेशक, विरोधी राष्ट्रपिता के पद से गांधी जी को रिटायर करने पर काफी शोर मचाएंगे। पर मोदी जी की 56 इंच की छाती और कब काम आएगी? आखिर, 56 इंच की छाती का देश के लिए कुछ तो उपयोग हो! 56 इंच सिर्फ दिखाने के लिए थोड़े ही रखे हैंगे।
और बात सिर्फ मोदी की छाती के नाप की भी कहां है? मोदी जी को कौन सा राष्ट्रपिता के पद से बापू को अपने मन से रिटायर करना है। यह तो पापूलर डिमांड है। जब से आल इंडिया इमाम काउंसिल के अध्यक्ष, मौलाना उमर इलियासी ने भागवत साहब को नया राष्ट्रपिता बनाने की पेशकश की है, तब से पब्लिक इस आइडिया को हाथों-हाथ ले रही है। गोडसे का मंदिर बनाने के लिए एक जमाने से परेशान असली हिंदुओं से लेकर, राम से कम किसी को राष्ट्रपिता मानकर नहीं देने वाले उग्र हिंदुओं तक, नये राष्ट्रपिता के स्वागत के लिए बेचैन हैं। सोशल मीडिया पर जनमत संग्रह करा के देख लो, भागवत जी के सामने गांधी की जमानत जब्त नहीं हो जाए तो कह देना।
यह सौ टका पापुलर डिमांड है और डैमोक्रेसी तो पापुलर डिमांड से ही चलती है। भागवत जी की उम्मीदवारी नहीं होती, तब भी पापुलर डिमांड पर मोदी जी को बापू को रिटायर तो करना ही पड़ता, फिर भले ही ऐसी डिमांड करने वालों को वह मन से माफ नहीं कर पाते। आखिर, यह भावनाओं का नहीं डैमोक्रेसी के सिद्धांत का सवाल है। डैमोक्रेसी का सिद्धांत है कि एक ही व्यक्ति किसी पद पर हमेशा नहीं रह सकता है। एक वक्त के बाद किसी दूसरे के लिए पद खाली करना ही होता है। और डैमोक्रेसी के सिद्धांत के साथ मोदी जी समझौता हर्गिज नहीं करेंगे। राष्ट्रपिता गांधी भी डैमोक्रेसी के इस सिद्धांत का अपवाद नहीं हो सकते हैं। इसमें पर्सनल कुछ भी नहीं है।
सरदार के भक्त होने के बावजूद, डैमोक्रेसी के सिद्धांत की खातिर मोदी जी अगर अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम का नाम सरदार की जगह नरेंद्र मोदी के नाम कर सकते हैं, तो राष्ट्रपिता का पद पापुलर डिमांड पर गांधी से लेकर, भागवत के नाम क्यों नहीं कर सकते हैं।
और जो पापूलर डिमांड है, वही इतिहास की पुकार भी तो है। आखिरकार, नये इंडिया को अपना नया राष्ट्रपिता भी तो मिलना चाहिए। कब तक नेहरू-गांधी के टाइम के पुराने भारत के आउटडेटेड राष्ट्रपिता से ही काम चलाते रहेंगे। हां! अगर नये इंडिया के असली पिता के लिए राष्ट्रपिता का पद सुरक्षित रखना हो, तो इलियासी साहब ने तो हाथ के हाथ उसका भी सोल्यूशन दिया ही है। उन्होंने भागवत साहब को राष्ट्र ऋषि बनाने का विकल्प भी तो सुझाया है। संघ तो खुद भी हमेशा से राष्ट्र ऋषि बनने के चक्कर में रहा है। सो बर्थ डे गिफ्ट में गांधी जी को राष्ट्रपिता पद से छुट्टी नहीं भी दें तो भी, भागवत को राष्ट्र ऋषि बनाकर कंपनी के लिए फौरन उनकी बगल में तो बैठाया ही जा सकता है। खूब झगड़ेंगे जो मिलकर बैठेंगे दीवाने दो! बढ़िया एंटरटेनमेंट मुफ्त में।
(व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं.)
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