कारपोरेट परस्त और साम्प्रदायिक नीतियों के कारण दलित अधिकारों और आजीविका पर लगातार बढ़ रहे हैं हमले
रायपुर (पब्लिक फोरम)। जब से केंद्र और कई राज्यों में भाजपा की नेतृत्व वाली सरकारें सत्ता में आईं हैं, उनके द्वारा अपनाई जा रही कारपोरेट परस्त और साम्प्रदायिक नीतियों के कारण दलित अधिकारों और आजीविका पर लगातार हमले बढ़े हैं।
भाजपा सरकार नवउदारवादी नीतियों को लागू करने, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों और सार्वजनिक संपत्ति को बेचने, शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्रों के निजीकरण को आगे बढ़ाने और मजदूर वर्ग, किसानों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के अधिकारों पर निर्दयता से हमला करने में निरंतर आगे बढ़ रही है ।
इन नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया है, जिसमें अल्पसंख्यकों को कई तरह से निशाना बनाया जा रहा है । यह बड़ी ही बेशर्मी से नफरत और कट्टरता की राजनीति को बढ़ावा देती है ।
रिकार्ड बताते हैं कि 2014 में केंद्र व कई राज्यों में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से दलितों के खिलाफ अपराध बढ़े हैं। दलितों के खिलाफ हिंसा के मामले 2011के 33,719से बढ़कर 2020 में 50,291हो गए। 2017-2018 के बीच दलितों के खिलाफ अपराध में 27.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं आदिवासियों के खिलाफ हमलों में 20.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भाजपा शासित राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार सबसे अधिक दर्ज हुए हैं, राजस्थान और आंध्रप्रदेश को छोड़कर। पिछले 10 साल के अंदर यूपी में 95,791, बिहार में 63,116, राजस्थान में 58,945, एम पी में 44,469और आंध्रप्रदेश में 26,881रिपोर्ट दर्ज हुए हैं।
इसके बावजूद 2018 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया है, कि पीओए अधिनियम निर्दोष नागरिकों और लोकसेवकों को “ब्लैकमेल” करने का एक साधन बन गया है। ढेर सारे सबूतों के बावजूद इस अधिनियम का इस्तेमाल कठोरता से नहीं करने के कारण इसे अप्रभावी बना दिया गया है। इस फैसले से दलितों में गुस्से की लहर दौड़ गई और स्वतः स्फूर्त तरीके से गुस्से का इजहार करने के लिए 02 अप्रैल को सफल “भारत बंद” किया गया । इस भारत बंद के खिलाफ उच्च जातियों के अपराधियों ने दलितों को भयानक रूप से हिंसा का शिकार बनाया। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (जिसे बाद में संसद के एक अधिनियम के द्वारा संशोधित किया गया।) का विरोध करने वालों पर निर्मम हमले भाजपा के घृणित मनुवादी चेहरे का पर्दाफाश करते नजर आते हैं।
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2016 में गुजरात के ऊना में उच्च जातियों की भीड़ ने मरे पशुओं के खाल उतारने वाले दलितों पर कोड़े बरसाए और देश के विभिन्न हिस्सों में अन्य मामलों में असंख्य जुल्म किये गए जिनमें दलितों को मूंछ रखने पर, उच्च जाति के शिक्षक के बर्तन से पानी पीने पर, शादी के लिये घोड़े पर चढ़ने परऔर अपनी मोटर साइकिल पर अम्बेडकर की तस्वीर लगाने पर, बेहतर मजदूरी की मांग करने पर पीटा गया और चोरी के संदेह में सिर मुंडवा दिए गए या फिर चेहरे को काला कर दिया गया और कुछ मामलों में तो हत्या तक कर दी गई ।
इसी तरह पिछले पांच वर्षों में सफाई के दौरान कम से कम 347 सफाई कर्मचारियों की मौत हो गई है, जिसमें सबसे ज्यादा मौतें यूपी में हुई ।
दलितों को उचित रोजगार से वंचित किया जाता है। जबकि कुछ को तृतीय व चतुर्थ श्रेणी की नौकरियां मिलती है। सरकार के उच्च श्रेणियों में केवल 4 प्रतिशत नौकरियां ही दलितों को मिल पाती है । अब मोदी सरकार के निजीकरण और मुद्रीकरण की नीति के कारण सुरक्षित नौकरियों के दरवाजा पूरी तरह से बंद हो गया है । दलितों में बेरोजगारी 2017-18में 6.3 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 6.4प्रतिशत हो गई है ।
दलित महिलाओं के खिलाफ 2015 से 2020 के बीच बलात्कार की घटनाओं में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में औसतन 10 दलित महिलाओं के साथ रोजाना बलात्कार की घटनाएं होती हैं । कई मामलों में तो बलात्कार पीड़ितों की अपराधियों द्वारा हत्या तक कर दी जाती है । 2020 में हुए उत्तरप्रदेश के कुख्यात हाथरस कांड इसका ज्वलंत उदाहरण है जिसमें 4 उच्च जाति के पुरुषों ने एक युवा बाल्मीक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया था। शारीरिक चोट के कारण पीड़िता की बाद में मौत हो गई थी और पुलिस ने युवती का शव उनके परिवार से छीन लिया और आधी रात को उस पर पेट्रोल डालकर जला दिया था । उनके 4 अभियुक्तों में से 3 को कोर्ट ने अपराधमुक्त कर दिया है ।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि 25 से 49 आयु वर्ग की 55.9 प्रतिशत दलित महिलाएं “एनीमिया” के शिकार हैं ; 70.4 प्रतिशत दलित महिलाएं पैसे की कमी,भेदभाव या जगह की दूरी के कारण “स्वास्थ्य सेवा का लाभ” उठाने में समस्याओं का सामना करती हैं । आज भी 47.5 प्रतिशत दलित महिलाओं की जचकी बगैर डॉक्टर के देखरेख हो जाती है और 25 प्रतिशत दलित महिला “कुपोषित” हैं ।
2018 की गिनती के आधार पर आज भी 11,044 दलित महिलाओं को “हाथ से मैला ढोने का काम” करना पड़ता है। कई दलित महिलाएं निजी घरों, कार्यालयों, कारखानों, अस्पतालों और कम वेतन वाली स्किम में सफाई कर्मचारी के रूप में काम करने के लिए मजबूर हैं ।
दलित बच्चों को शिक्षण संस्थानों में भयानक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है । सरकार के प्राथमिक विद्यालयों में दलित बच्चों को अलग खाना परोसा जाता है। कई जगहों पर तो उन्हें शौचालय साफ करने और फर्श पर झाड़ू लगाने को मजबूर किया जाता है और शिक्षक अक्सर उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं। यहां तक कि आई आई टी , मेडिकल कालेज और विश्वविद्यालयों में भी दलित छात्रों को भेदभाव व बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और कई तो इससे तंग आकर आत्म हत्या भी कर लेते हैं।
2016 में हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्मा हत्या और बम्बई आईआईटी में अभी इसी साल दर्शन सोलंकी की आत्महत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। केंद्र सरकार द्वारा संचालित आई आई टी , एन आई टी और केंद्रीय संस्थानों में 2014 से 2021 के बीच 122 छात्रों ने आत्महत्या की उनमें से 24 छात्र दलित थे ।
केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति का पूरा ध्यान शिक्षा के निजीकरण पर है और पहले से ही ग्रामीण क्षेत्रों के सैकड़ों सरकारी स्कूलों को बंद या विलय किया जा रहा है । इससे *दलित छात्रों* को भारी तादाद में शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। इसी तरह से सार्वजनिक क्षेत्रों का तेजी से निजीकरण करने से दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण अब मिथक बन गया है।
देश में 16 प्रतिशत हिस्से वाली “दलित आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति” में 2013 में हिस्सेदारी केवल 7 प्रतिशत था और 21 प्रतिशत आबादी वाले उच्च जातियों के पास देश की 45 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा था ।
इसी तरह 2018-19 में “अनुसूचित जाति के परिवारों के पास देश के कुल भूमि” का 9.5 प्रतिशत हिस्सा था और लगभग 80 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं और कृषि और श्रम के अन्य रूपों पर निर्भर हैं।
दलित शोषण मुक्ति मंच ने कहा है कि दलितों की उक्त समस्याओं, उनके उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ निम्नलिखित मांगों को लेकर सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील ताकतों , संगठनों , समूह और व्यक्ति तथा दलितों और समाज के अन्य उत्पीड़ित तबकों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले सभी लोगों को भाजपा सरकार के मनुवादी , नवउदारवादी और सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए एक साथ आने की अपील करते हैं।
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मांगें:-
01. निजी क्षेत्रों में नौकरियों में अनिवार्य रूप से आरक्षण लागू किया जाय ।
02. अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटा काम किये बगैर दलित मुसलमानों और ईसाइयों के लिए आरक्षण का विस्तार किया जाय।
03. अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति उपयोजना को पुनर्स्थापित किया जाय और इसे अक्षरशः लागू किया जाय ।
04. पीओए अधिनियम को मजबूत किया जाय ।
05. निजीकरण बंद किया जाय एवं सभी संविदा और अस्थाई कर्मचारियों को नियमित किया जाय।
06. नई शिक्षा नीति निरस्त किया जाय ।
07. संस्थागत हत्या के खिलाफ कठोर कानून बनाया जाय।
08. भूमि हदबंदी अधिनियम लागू करो और भूमिहीनों को भूमि वितरित करो ।
09. छत्तीसगढ़ में आदिवासी और ईसाई आदिवासी के बीच तथाकथित धर्मांतरण के नाम पर आपसी मनमुटाव व लड़ाई कराना बंद करो ।
10. छत्तीसगढ़ में सामाजिक बहिष्कार पर अंकुश लगाने हेतु राज्य सरकार कठोर कानून का निर्माण करे।
11.1950 के भूमि स्वामित्व मिशल सर्टिफिकेट के आधार पर जाति प्रमाण पत्र बनाने के नियम को सरल बनाया जाय , ताकि जाति प्रमाण पत्र के असल हकदार को उनका अधिकार मिल सके ।
दलित शोषण मुक्ति मंच की ओर से छत्तीसगढ़ संयोजन समिति रायपुर ने अपील किया है कि विगत 05 नवंबर 2022 को नई दिल्ली कन्वेंशन में एकत्रित देश भर के दलित संगठनों के आह्वान पर आगामी 14 मार्च को देश भर के राज्यों की राजधानी में धरना/प्रदर्शन करने के निर्णय के तहत रायपुर के डॉक्टर अम्बेडकर चौक (घड़ी चौक) और अम्बिकापुर के प्रदर्शन में आप और आपके संगठन के साथी शामिल होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाएं।
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