महाराष्ट्र में कक्षा 1 से सैनिक प्रशिक्षण, शिक्षा या सैन्यीकरण की ओर एक खतरनाक कदम?
आखिर महाराष्ट्र सरकार की यह नई योजना क्यों चिन्तित करने वाली पहल है?
भारतीय संघ के सबसे समृद्ध सूबा कहलाने वाले महाराष्ट्र ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी पहल हाथ में ली है। वह स्कूली छात्रों के लिए कक्षा 1 से ही बुनियादी फौजी प्रशिक्षण देना शुरू करेगा, ताकि बच्चों में ‘देशभक्ति, अनुशासन और बेहतर शारीरिक स्वास्थ्य की नींव डाली जा सके।’ एक स्थूल अनुमान के हिसाब से चरणबद्ध तरीके से लागू की जाने वाली इस योजना में लगभग ढाई लाख सेवानिवृत्त सैनिकों को तैनात किया जाएगा।
निस्सन्देह, ऑपरेशन सिन्दूर के बाद इस प्रस्ताव की तरफ बाकी लोगों की भी निगाह रहेगी और इस बात में कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि कुछ अन्य भाजपा शासित राज्य भी ऐसी ही योजनाओं को लागू करने में आगे रहेंगे। लेकिन यह प्रस्ताव कई स्तरों पर चिन्तित करने वाला है:
एक, जैसा कि जानकारों एवं शिक्षा शास्त्रियों ने बताया है कि राज्य का शिक्षा जगत एक जटिल संकट से गुजर रहा है, जिसका प्रतिबिम्बन कमजोर होती अधोसंरचना, अध्यापकों की कमी और नीतियों को लागू करने के रास्ते में आने वाली प्रचंड बाधाओं में उजागर होता है। इस स्थिति की परिणति विद्यार्थियों के लगातार घटते अंक, कक्षाओं में छात्रों की घटती संख्या और तमाम स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी में होती दिखती है। अगर सरकार की तरफ से कक्षा एक से आगे फौजी प्रशिक्षण प्रदान करने की योजना को लागू किया गया, तो उसका असर स्कूली शिक्षा के लिए आबंटित किए जा रहे संसाधनों में अधिक कटौती में दिखाई देगा।
दूसरे, शैक्षिक जगत में सक्रिय कार्यकर्ताओं एव सरोकार रखने वाले नागरिकों में पहले से ही विगत दशक में बन्द हुए हजारों स्कूलों को लेकर (जिसकी वजह संसाधनों की कमी और नीतिगत बदलावों को बताया गया था) – शिक्षा के अधिकार के उल्लंघन को लेकर पहले से ही चिन्ताएं व्याप्त रही हैं।² , इतना ही नहीं सालाना शिक्षा की स्थिति को लेकर तैयार रिपोर्टों में (असर) महाराष्ट्र के शिक्षा जगत की बदतर होती स्थिति पर पहले से ही चिन्ता प्रगट होती रही है।³ और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार को लग रहा है कि इस नयी लोकरंजक योजना का गुणगान एक तरह से स्कूली शिक्षा के संकट को फौरी तौर पर ढंक देगा।
तीसरे, यह कदम इस बात को भी प्रमाणित करता है कि राज्य के कर्णधारों में शिक्षा को लेकर कोई दूरगामी दृष्टि और योजना का गहरा अभाव है। आप को याद होगा कि मौजूदा सरकार कुछ समय पहले से ही एक अन्य वजह से जानकारों की गंभीर आलोचना का शिकार हो रही है, क्योंकि उसने आनन-फानन में अपने स्कूली पाठयक्रम का परित्याग किया है और ऐलान किया है कि वह सीबीएसई (सेंट्रल बोर्ड आफ सेकन्डरी एजुकेशन) द्वारा विकसित पाठयक्रम और पाठयपुस्तकों को अपने यहां लागू करेगी।⁴ इसके लिए भी व्यापक सलाह मशविरे की कोई जरूरत महसूस नहीं की गयी, जबकि यह योजना लगभग 2.1 करोड़ छात्रों और लगभग 7 लाख अध्यापकों को गहरे से प्रभावित करेगी।⁵
चार, दरअसल योजना का सबसे विचलित करनेवाला पहलू यह है कि कक्षा एक के बच्चों में -अर्थात तीन या चार साल के बच्चों में – फौजी प्रशिक्षण शुरू करने का मकसद शिक्षा के बुनियादी मकसद को ही पराजित करता दिखेगा, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के मन-मस्तिष्क पर जो तरह तरह की बेड़ियां समाज, परिवार या राज्य आदि की तरफ से लगायी गयी होती हैं, उनको एक झटके में तोड़ना है, ताकि वह स्वतंत्र ढंग से सोचना शुरू कर सके।
विशेषज्ञों की जुबां में कहें, तो यह प्रक्रिया एक तरह से “खाली पड़े मन को खुले मन में तब्दील करना होता है।” एक अमेरिकी पत्रकार सिडनी हैरिस (1917-1986) कहते थे कि “शिक्षा का उददेश्य होता है शीशों को खिड़कियों में तब्दील करना।”
अगर हम कोमल उम्र में मन को अनुशासित करने पर जोर देने लग जाएं, तो यह कदम न केवल उसकी सृजनात्मकता को कुचल देगा, बल्कि जैसा कि रविन्द्रनाथ ठाकुर (राष्ट्रवाद) ने आगाह किया था, यह एक तरह से “सरकार द्वारा अपने मन की कांट-छांट और अपनी आज़ादी को सीमित करने की प्रक्रिया के प्रति समूची जनता के स्वैच्छिक ढंग से समर्पित होने में परिणत होगा।”
पांच, बच्चों के लिए कक्षा एक से ही सैनिक प्रशिक्षण शुरू करने के इस सिलसिले का एक अन्य समस्यापूर्ण पहलू यह होगा कि वह बच्चों के मन में ‘अज्ञात दुश्मनों’ को लेकर एक अनावश्यक डर पैदा करेगा, जो उनके लिए विभिन्न किस्म की मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी जन्म दे सकता है।’
“सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार है कि वह लोगों को सोचना सीखा दे। हमारे पब्लिक स्कूलों का वही प्रमुख मकसद होना चाहिए .. शिक्षित करने के हमारे तरीके की दिक्कत यह है कि वह मन को लचीलापन प्रदान नहीं करती, वह दिमाग को एक सांचे में ढालती है। वह इस बात पर जोर देती है कि बच्चा स्वीकार करे। वह मौलिक विचार या तर्कणा को प्रोत्साहित नहीं करती, और वह अवलोकन की तुलना में याददाश्त पर अधिक जोर देती है।” — थाॅमस एडिसन (अमेरिकी आविष्कारक, 1847-1931).
आप कह सकते हैं कि सूबाई सरकार की यह योजना एक तरह से स्कूली शिक्षा में एक गुणात्मक छलांग है, जो बाकी राज्यों के लिए भी एक नज़ीर बन सकती है। और इसके मददेनज़र यह उम्मीद बिल्कुल वाजिब थी कि सरकार इसके इर्द-गिर्द समाज में, खासकर प्रबुद्ध तबकों में व्यापक बहस मुबाहिसा चलाएगी, इस कदम के गुण-दोषों पर वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचेगी, शिक्षाशास्त्रियों से इस मसले पर राय लेगी कि प्रायमरी स्कूलों से सैनिक शिक्षा के किस तरह के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, और उसके बाद ही निर्णय लेगी।
लेकिन केन्द्र मे सत्तासीन भाजपा सरकार और राज्य में उसकी पार्टी की विभिन्न सरकारों में अब यह रवायत ही कायम हो गयी है कि ऐसे किसी व्यापक सलाह-मशविरे की कोई जरूरत नहीं। चाहे नोटबंदी का फैसला हो या कोविड के वक्त़ चार घंटे के अंदर पूरे मुल्क में लाॅकडाउन करने का तुगलकी फैसला हो, या उन्हीं दिनों में विपक्ष द्वारा उठाए तमाम आक्षेपों के बावजूद हजारों करोड़ की लागत से राजधानी में सेंट्रल विस्टा बनाने का प्लान हो, हम इसे बार-बार देख चुके हैं।
और महाराष्ट सरकार का यह बेहद महत्वाकांक्षी फैसला भी इसी किस्म की अपारदर्शिता का शिकार रहा है, जो इस बात की ताईद करता है कि राज्य सरकार किसी भी सूरत में इस योजना को आगे बढ़ाना चाहती थी और उसे किसी किस्म के प्रश्न मंजूर नहीं थे।
वैसे शिक्षा जगत के घटनाक्रमों पर बारीकी से निगाह रखने वाले बताते हैं कि कक्षा-एक से सैनिक शिक्षा प्रदान करने का यह विशाल उपक्रम एक तरह से प्रधानमंत्राी कार्यालय द्वारा कुछ साल पहले पेश की गयी रूपरेखा पर ही अमल करना है और उसे थोड़ा विस्तारित करना है। याद रहे पीएमओ ने यह खाका पेश किया था कि सैनिक स्कूल माॅडल के पहलुओं को अन्य स्कूलों में – खासकर केन्द्रीय विद्यालयों और जवाहर नवोदय विद्यालयों – में शामिल किया जाए, ताकि छात्रों के ‘समग्र विकास को बढ़ावा दिया जा सके।’ यह प्रस्ताव रखा गया था कि इन स्कूलों में सख्त शारीरिक प्रशिक्षण, अनुशासन और देशभक्ति के मूल्यों के विकास पर जोर दिया जाए।⁶
यहां इस बात को भी बताना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की इस विवादास्पद सलाह का एक परिणाम यह सामने आया है कि पहले से ही कार्यरत सैनिक स्कूलों के दो-तिहाई हिस्से को संघ परिवार, भाजपा नेता और उनके सहयोगी संगठनों के सुपुर्द कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में आधिकारिक सूचना कहीं से नहीं मिली थी, मगर ‘रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ नामक खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर समूह ने⁷ अपनी पड़ताल में इस बात का खुलासा किया था।⁸
एक क्षेपक के तौर पर इस बात को नोट किया जा सकता है कि आज़ादी के बाद देश के कर्णधारों ने समय-समय पर अलग-अलग जरूरतों के हिसाब से शिक्षाविदों की अगुआई में शिक्षा आयोगों का गठन किया है, जिसकी शुरूआत राधाकृष्णन आयोग से हुई थी (1953)। स्वाधीन भारत के इन निर्माताओं को यह बात दुरूस्त लगी कि उनके मातहत काम कर रहे नौकरशाहों की तुलना में शिक्षा जगत के लिए बेहतर योजना बनाने का काम शिक्षाविद ही कर सकते हैं।
हम देख सकते हैं कि विगत एक दशक से ऐसी तमाम प्रक्रियाएं लगभग समाप्त कर दी गयी हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय अर्थात पीएमओ ही न केवल नीति-निर्माण का, बल्कि उस पर निगरानी रखने का केन्द्र बन गया है। इस कार्यालय में कार्यरत नौकरशाह और अलग-अलग विशेषज्ञ के निर्देश ही बखूबी अमल होते है।
केन्द्र में हिन्दुत्व वर्चस्ववादी हुकूमत के उभार के इस एक दशक से अधिक के दौर में ‘अनुशासन’ और ‘देशभक्ति’ के इस सैनिकीकृत माॅडल का यह विचार, स्कूलों, काॅलेजों और विश्वविद्यालयों में काफी चर्चित/स्थापित हो चला है।
इसी चिन्तन का ही प्रतिबिम्बन था जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति जगदीश कुमार द्वारा ‘कारगिल दिवस’ पर विश्वविद्यालय परिसर में ही आयोजित एक राजनीतिक कार्यक्रम में रखा गया यह प्रस्ताव कि ‘सेना के लिए प्यार पैदा करने के लिए’ परिसर में एक पुराना टैंक स्थापित किया जाए। उस राजनीतिक कार्यक्रम में उपस्थित दो केन्द्रीय मंत्रियों से उन्होंने यह आवाहन भी किया कि वह ऐसे पुराने टैंक का इन्तज़ाम करें, जो यहां स्थापित किया जाए।
ध्यान रखने लायक बात है कि इस कार्यक्रम में उपस्थित दो रिटायर्ड फौजी अफसरों ने केन्द्र सरकार को इस बात के लिए बधाई दी कि उसने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर अपना ‘नियंत्रण’ कायम कर लिया है और इस सिलसिले को आगे बढ़ना चाहिए अर्थात अन्य विश्वविद्यालयों पर भी इसी किस्म का नियंत्रण कायम करना चाहिए।⁹
विश्वविद्यालय परिसर में ही सैनिक टैंक स्थापित करने के इस विवादास्पद प्रस्ताव का छात्रों, शिक्षा शास्त्रिायों और सामाजिक सरोकार रखनेवाले जागरूक नागरिकों की तरफ से पुरजोर विरोध किया गया। यह बात स्पष्ट की गयी कि इस बहाने कुलपति अपना वास्तविक एजेण्डा आगे बढ़ाना चाह रहे हैं, ताकि असहमति रखने वाले छात्र समुदाय को खामोश किया जा सके।
इस बात को रेखांकित किया गया कि विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षिक संस्थानों का मकसद ‘सैनिकों का निर्माण नही है या आज्ञाकारी प्रजा का निर्माण नहीं है, जो सरकार के आदेश पर परेड करने लगे’, उनका उददेश्य है ‘ऐसे नागरिकों को निर्माण, जो जानकार हों, खोजी प्रवृत्ति के हों और असहमति का साहस रखते हो।’ दरअसल यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि आज़ादी के बाद ही भारत सरकार की तरफ से देश में सैनिक स्कूलों की एक श्रृंखला का निर्माण हुआ और चंद डिफेन्स एकेडेमी भी बनी, जहां दिलचस्पी रखनेवाले छात्र प्रवेश पा सकते थे।
यह बात जोर से रखी गयी कि सैनिकों के सम्मान का मतलब यह नहीं होता है कि आम नागरिक अपने सरकार के बारे में खामोश रहे, युद्धों की जरूरत जैसे मसले पर तथा निहत्थे नागरिकों के खिलाफ सैन्य बलों या पुलिस के व्यवहार पर मौन बरते। दुनिया भर में आम नागरिकों ने सरकारों द्वारा छेड़े गए युद्धों के खिलाफ बोल कर सैनिकों के बारे में अपने सम्मान और सरोकार को जाहिर किया है।
यह बात चिंतित करनेवाली है कि कक्षा-1 से सैनिक प्रशिक्षण प्रदान करने के महाराष्ट्र सरकार के निर्णय की व्यापक समीक्षा नहीं हो सकी है। न इस बात की पड़ताल हो रही है कि इस लोकरंजक कदम से शिक्षा जगत में अपनी व्यापक असफलताओं पर सरकार पर्दा डालना चाह रही है, न यह देखा जा रहा है कि भारतीय समाज के सैनिकीकरण की दिशा में एक यह एक और निर्णायक कदम है। ध्यान रहे, यह समझदारी हिन्दुत्व वर्चस्ववादी आंदोलन की इस रूपरेखा के साथ मेल खाती है, जिसके तहत वह समूचे समाज का सैनिकीकरण चाहता है, ताकि ‘आंतरिक दुश्मनों’ से लड़ा जा सके।
शायद यहां इस बात को दोहराना आवश्यक है कि हर असमावेशी विचारधारा/संगठन/समूह की तरह – जो किसी खास धर्म के इर्द-गिर्द खड़ा होने का दावा करता हो – फिर चाहे इस्लामवाद हो, जियनवाद हो, अतिवादी बौद्ध हों – हिन्दुत्व ने हमेशा ही यह सपना पाला है कि ‘अन्यों’ के खिलाफ संघर्ष को निर्णायक मुकाम तक ले जाने के लिए अपने अनुयायियों को सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए और रफता-रफता हिन्दू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाए जाएं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य तथा डा. हेडगेवार के राजनीतिक गुरू बी एम मुंजे ने 30 के दशक की शुरूआत में इटली की यात्रा करके – जहां न केवल वह मुसोलिनी से मिले थे, बल्कि फासीवादी परियोजनाओं का भी बारीकी से अध्ययन किया था – उन्होंने तत्काल इस बात का ऐलान किया था कि ‘अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए वह ऐसे ही संस्थानों को खड़ा करेंगे।’¹¹ और भारत वापसी पर वह भोंसला मिलिटरी स्कूल की स्थापना में जुट गए थे।

हिन्दुत्व जमातों के लाडले ‘वीर सावरकर’ तो एक और कदम आगे बढ़ गए थे, 1942 में जब ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन अपने उरूज पर था और हजारों लोग ब्रिटिश हुकूमत की भारत से वापसी के लिए कुर्बान हुए थे, उन दिनों वह देश भर में घूम-घूमकर हिन्दू युवकों को अंग्रेजों की सेना में भरती होने का आवाहन करते फिर रहे थे। उनका नारा था : “राजनीति का हिन्दुकरण करो और हिन्दुत्व का सैनिकीकरण करो।”
(लेखक: सुभाष गाताडे; लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता)
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