एक सपने की शुरुआत
25 सितंबर 2014 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “मेक इन इंडिया” अभियान की शुरुआत की, तो यह भारत के लिए एक नए आर्थिक युग का वादा था। लक्ष्य था भारत को वैश्विक विनिर्माण का केंद्र बनाना, रोजगार पैदा करना और आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना। दूसरी ओर, “मेड इन इंडिया” का विचार लंबे समय से देश की पहचान रहा है—एक ऐसा गर्व जो स्वदेशी उत्पादों में निहित है। लेकिन इन दोनों के बीच का अंतर और इनका सियासी खेल आज भी बहस का विषय है। यह लेख “मेड इन इंडिया” और “मेक इन इंडिया” के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को 2025 की स्थिति के आधार पर विश्लेषित करता है, जिसमें सपने, चुनौतियां और संभावनाएं शामिल हैं।
मेक इन इंडिया: एक महत्वाकांक्षी सपना
“मेक इन इंडिया” सिर्फ एक नीति नहीं, बल्कि एक विजन था—भारत को वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनाना। इसके चार स्तंभ—नई सोच, नया बुनियादी ढांचा, निवेश की आसानी और कौशल विकास—ने निवेशकों को आकर्षित करने का वादा किया। 2025 तक जीडीपी में विनिर्माण का हिस्सा 25% करने का लक्ष्य रखा गया, लेकिन आज यह 15.9% पर अटका हुआ है। यह सपना कितना साकार हुआ, यह एक सवाल है जो हर भारतीय के मन में है।
मेड इन इंडिया: गर्व का प्रतीक
“मेड इन इंडिया” का मतलब है भारत में बना उत्पाद—चाहे वह पारंपरिक हस्तशिल्प हो या आधुनिक तकनीक। यह स्वदेशी की भावना को दर्शाता है, जो गांधी के स्वदेशी आंदोलन से लेकर आज तक भारतीयों के दिलों में बसी है। लेकिन क्या यह सिर्फ भावनाओं तक सीमित रह गया, या इसे वैश्विक ब्रांड में बदला जा सका? यह एक ऐसा सवाल है जो आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है।
“मेक इन इंडिया” ने विदेशी निवेश को आकर्षित किया—2014-15 में 45.14 बिलियन डॉलर से 2021-22 में 84.83 बिलियन डॉलर तक FDI बढ़ा। लेकिन विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 12-14% के लक्ष्य से कोसों दूर रही। दूसरी ओर, “मेड इन इंडिया” उत्पादों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती दी, खासकर MSME क्षेत्र में। फिर भी, वैश्विक बाजार में इनकी हिस्सेदारी सीमित रही। क्या हमारा आर्थिक ढांचा इन दोनों को एक साथ आगे बढ़ाने में सक्षम है?
रोजगार का सवाल: सपनों का टूटना
“मेक इन इंडिया” का वादा था 10 करोड़ नई नौकरियां पैदा करना। लेकिन 2025 तक यह लक्ष्य अधूरा है। युवा बेरोजगारी आज भी एक बड़ी समस्या है। “मेड इन इंडिया” ने छोटे उद्यमियों और कारीगरों को सहारा दिया, लेकिन बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन में यह भी पीछे रहा। यह एक ऐसी सच्चाई है जो हर भारतीय परिवार को प्रभावित करती है—हमारे युवाओं का भविष्य कहां है?
“मेड इन इंडिया” ने ग्रामीण भारत को सशक्त बनाने की कोशिश की। हथकरघा, हस्तशिल्प और स्थानीय उत्पादों ने महिलाओं और कारीगरों को नई उम्मीद दी। वहीं, “मेक इन इंडिया” ने शहरी मध्यम वर्ग को औद्योगिक विकास का सपना दिखाया। लेकिन दोनों के बीच सामाजिक असमानता बढ़ी—शहर और गांव का अंतर गहराता गया। क्या यह अभियान समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ रहा है?

राजनीतिक खेल: वोटों की सियासत
“मेक इन इंडिया” को सत्तारूढ़ दल ने अपनी उपलब्धि के रूप में पेश किया। यह एक ऐसा नारा बन गया जो रैलियों में गूंजता है। दूसरी ओर, विपक्ष इसे “जुमला” कहकर खारिज करता है। “मेड इन इंडिया” को भी राजनीति में घसीटा गया—स्वदेशी का समर्थन हर दल करता है, लेकिन कार्यान्वयन में कमी दिखती है। यह सियासी खेल जनता को भ्रमित करता है – क्या यह नीति है या सिर्फ प्रचार?
“मेक इन इंडिया” के लिए विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा जरूरी था। सड़कें, बंदरगाह और बिजली में सुधार हुआ, लेकिन लॉजिस्टिक्स लागत अभी भी जीडीपी का 14-18% है, जबकि वैश्विक औसत 8% है। “मेड इन इंडिया” के लिए भी परिवहन और बाजार तक पहुंच की कमी बाधा बनी। जब तक यह आधार मजबूत नहीं होगा, दोनों ही सपने अधूरे रहेंगे।
कौशल विकास: खोखले वादे
“मेक इन इंडिया” को सफल बनाने के लिए स्किल इंडिया शुरू किया गया, लेकिन भारत में औपचारिक रूप से कुशल श्रमिक अभी भी जनसंख्या का 2% ही हैं। “मेड इन इंडिया” को भी तकनीकी कौशल की जरूरत है, जो पारंपरिक कारीगरों के पास नहीं है। हमारे युवाओं को सक्षम बनाने में यह नाकामी दोनों अभियानों की कमजोर कड़ी है।
चीन और वियतनाम जैसे देश लागत और दक्षता में भारत से आगे हैं। “मेक इन इंडिया” ने कंपनियों को भारत लाने की कोशिश की, लेकिन नौकरशाही और नीतिगत असंगति ने उन्हें पीछे धकेल दिया। “मेड इन इंडिया” उत्पादों को भी गुणवत्ता और ब्रांडिंग में वैश्विक मानकों तक पहुंचना बाकी है। क्या हम इस प्रतिस्पर्धा में खड़े हो पाएंगे?
पर्यावरण का सवाल: विकास की कीमत
“मेक इन इंडिया” का नारा था “शून्य दोष, शून्य प्रभाव,” लेकिन औद्योगिक विकास ने प्रदूषण बढ़ाया। “मेड इन इंडिया” ने स्थायी उत्पादन का दावा किया, लेकिन बड़े पैमाने पर इसका प्रभाव सीमित रहा। 2025 में जलवायु संकट के दौर में, क्या हम विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बना पाएंगे?
“मेक इन इंडिया” ने शुरू में जोश भरा—हर भारतीय को लगा कि हमारा देश बदल रहा है। “मेड इन इंडिया” ने गर्व की भावना जगाई। लेकिन अधूरे वादों ने निराशा ला दी। यह भावनात्मक रोलरकोस्टर जनता को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ये सिर्फ बड़े-बड़े सपने थे?
भविष्य की राह: एक नई शुरुआत
2025 में खड़े होकर हमें यह तय करना है कि “मेक इन इंडिया” और “मेड इन इंडिया” को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरक बनाना होगा। नीतियों में स्थिरता, बुनियादी ढांचे में निवेश, कौशल विकास और वैश्विक साझेदारी जरूरी है। यह समय है कि हम सियासी खेल छोड़कर असली आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ें—एक ऐसा भारत जहां हर हाथ को काम और हर सपने को सच करने का मौका मिले।
“मेड इन इंडिया” और “मेक इन इंडिया” दो अलग-अलग रास्ते नहीं, बल्कि एक ही मंजिल की ओर जाने वाली राहें हैं। यह सियासी खेल नहीं, बल्कि देश की तकदीर बदलने का मौका है। 2025 में हमें यह तय करना है कि क्या हम वादों में उलझेंगे या वास्तविकता को गढ़ेंगे। भारत का भविष्य हमारे हाथों में है – आइए, इसे संवारें, इसे बनाएं, और गर्व से कहें: “भारत में बनाया हुआ, दुनिया के लिए तैयार!”
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