गुरूवार, नवम्बर 21, 2024
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भारत सरकार द्वारा वामपंथी सांसद डॉ वी.सिवदासन को वेनेज़ुएला में फासीवाद विरोधी सम्मेलन में भाग लेने से रोका गया, उन्होंने जताई नाराजगी!

नई दिल्ली (पब्लिक फोरम)। भारत के राज्यसभा सांसद और सीपीआई (मार्क्सवादी) के नेता डॉ. वी. सिवदासन ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर को एक पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जताई है। पत्र में उन्होंने कहा कि उन्हें आगामी 4 से 6 नवंबर 2024 को वेनेज़ुएला की नेशनल असेंबली द्वारा आयोजित फासीवाद विरोधी संसद सम्मेलन में भाग लेने से रोक दिया गया है।
डॉ. सिवदासन का कहना है कि यह आयोजन दुनिया भर के सांसदों का एक महत्वपूर्ण मंच है, जहां वे फासीवाद और नव-फासीवाद के खतरों पर अपने विचार साझा कर सकते हैं। उन्होंने इसे एक ऐसा मंच बताया है, जहां दुनियाभर के लोकतंत्र समर्थक नेता फासीवादी ताकतों के बढ़ते प्रभाव का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने जोर दिया कि यह सम्मेलन उनके लिए एक अवसर था, जहां वे अपने विचारों को व्यक्त कर सकते थे और फासीवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ाई में योगदान दे सकते थे।

उन्होंने पत्र में लिखा कि इस निर्णय ने उन्हें स्तब्ध कर दिया है, खासकर इसलिए क्योंकि भारत और वेनेज़ुएला के बीच अच्छे संबंध हैं और दोनों देश हाल ही में बने अंतरराष्ट्रीय सोलर अलायंस का भी हिस्सा हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भारत और वेनेज़ुएला दोनों ही गुट-निरपेक्ष आंदोलन के महत्वपूर्ण सदस्य रहे हैं।

डॉ. सिवदासन ने सरकार के इस फैसले को अपने अधिकारों का हनन बताते हुए कहा, “एक सांसद के रूप में यह मेरा अधिकार है कि मैं इस महत्वपूर्ण मंच में भाग लेकर अपने विचार व्यक्त कर सकूं। मुझे इससे वंचित कर, मेरे अधिकारों का उल्लंघन किया गया है।” उन्होंने इस कदम को उनके अधिकारों पर “हमला” करार देते हुए कहा कि वह इसका कड़ा विरोध दर्ज करा रहे हैं।

यह मामला एक बार फिर इस सवाल को उठाता है कि क्या सरकार अपने नागरिकों के अधिकारों और उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता की सुरक्षा करने में सक्षम है। क्या देश में ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विचारों के आदान-प्रदान को रोकना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है? यह देखना दिलचस्प होगा कि इस पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया आती है और क्या भविष्य में भारतीय प्रतिनिधियों को ऐसे मंचों पर खुलकर अपनी बात रखने का अवसर दिया जाएगा या नहीं।

डॉ. सिवदासन का यह पत्र न केवल एक सांसद के अधिकारों के हनन का मामला है बल्कि यह एक व्यापक सवाल भी खड़ा करता है कि क्या सरकार अपने ही प्रतिनिधियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विचार व्यक्त करने से रोक सकती है। वर्तमान समय में जहां लोकतंत्र के लिए वैश्विक स्तर पर कई चुनौतियाँ हैं, यह घटना उन प्रयासों में एक रुकावट के रूप में देखी जा सकती है, जो विभिन्न देशों के नेता फासीवाद और नव-फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए उठा रहे हैं। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि सरकार इस मामले में क्या रुख अपनाती है और क्या वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे।

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