मंगलवार, दिसम्बर 3, 2024
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हंसता हुआ जो जायेगा: राजू श्रीवास्तव

मुंह लटकाए समाज के लिए राजू श्रीवास्तव का यह योगदान है कि वह थोड़ी बहुत फूहड़ता, थोड़ी स्त्री विरोधी बातें करके भी, बगैर वाहियात बने लटके हुए चेहरों पर मुस्कान लाने में कामयाब तो हुए। जहाँ सभी बैठ कर रोते हैं, एक दूसरे को रुलाते हैं, वहां राजू ने लोगों को हंसाने की कामयाब कोशिश की.

हंसी को लेकर आप गंभीर नहीं तो यह ज़रूर जान लें कि आम तौर पर 23 साल की उम्र के आस-पास लोगों का हास्य बोध घटने लगता है। मांसपेशियों के कमज़ोर होने और आंखों की रोशनी के घटने से भी ज्यादा ख़तरनाक है हास्य बोध का गायब हो जाना।

यह बात अलग है कि इस पर कोई ध्यान नहीं देता और कोई चिकित्सक ऐसा नहीं जो आपको फिर से हंसाने के लिए औषधियां दे। न ही हम खुद कभी किसी डॉक्टर के पास यह शिकायत लेकर जाते हैं कि साहब हंसी नहीं आती, कोई दवा दे दें।

इस्लाम में तो यह कहा गया है कि ज्यादा हँसना ठीक नहीं क्योंकि इससे ह्रदय ठूँठ हो जाता है और इस्लाम का अनुयायी गंभीरता से सोचने और अल्लाह से डरने के लायक नहीं रह जाता। हर धर्म के ‘गंभीर’ अनुयायी अक्सर गंभीरता ओढ़े हुए ही दिखते हैं। खुद भी उदास रहते हैं, दूसरों को भी दुखी करते हैं। उनके लिए दुनियावी चीज़ों को देख सुनकर हँसना एक तरह से मोह माया में फंसने जैसा है।

जेनिफ़र आकेर ने अपनी मशहूर किताब ‘ह्यूमर सीरियसली’ में चेतावनी दी है कि हम सभी सामूहिक रूप से गंभीरता और निराशा की खाई में कभी भी गिर सकते हैं। दुखी, व्यस्त, हताश, कुंठित, उदास व्यक्ति आज की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक बन गया है।

23 साल की उम्र में हास्य बोध के घटने की बात 166 देशों में हुए डेढ़ करोड़ लोगों के बीच हुए गैलप सर्वे से सामने आई। 2013 में यह सर्वे 166 देशों में हुआ था। इस बीच कोविड आया और स्थितियां और गंभीर हुईं। लोग और भी गंभीर हुए। यानी दुखी हुए, और हंसना भूलते गए। जेनिफ़र के साथ यह किताब लिखी है नाओमी बग्डोनस ने। इनका सवाल यही है कि ऐसा हो क्यों रहा है आखिर।

हंसी सिर्फ बच्चों के लिए नहीं होती। संबंधों और संस्कृतियों को समृद्ध बनाने के लिए भी इसकी बड़ी जरूरत है। आपने गौर किया होगा कि जो गुस्सैल, महत्वाकांक्षी, दूसरों पर नियंत्रण करने के आदी और कुंठित होते हैं, वे हँसते बहुत कम हैं। उनकी हंसी अक्सर आत्मकेंद्रित होती है। हँसना खुलेपन का संकेत देता है। अध्ययन बताते हैं कि चार साल का एक बच्चा दिन में करीब तीन सौ बार हँसता है, जबकि चालीस साल के किसी इंसान को इतनी बार हंसने में तीन से चार महीने तक लग जाते हैं।

हो सकता है हमारी नौकरी-चाकरी का दोष हो। परिवार और इसकी जिम्मेदारी का दोष हो। हम बड़े होते हैं, कॉलेज या यूनिवर्सिटी से निकलते हैं और अचानक कामकाजी बन जाते हैं: ‘गंभीर, बड़े और महत्वपूर्ण’। फिर तो हँसना वहीं होता है, जहाँ उसके फायदे हों, नुकसान कम हों। हँसना एक सौदेबाजी बन जाता है। कितना, कब और कहाँ और किसके सामने हँसना है इसके कुछ स्थाई नियम कानून बन जाते हैं। हंसी घटती है और जीवन की आंतरिक दरिद्रता उसी अनुपात में बढ़ जाती है।

जेनिफ़र ने अपने शोध में पाया कि उद्योगों में लगे कई लोग खुद को ‘पेशेवर’ दिखाने के चक्कर में काम के दौरान हंसने में डरने लगे! हकीकत तो यह है कि हँसते समय हम इंसानियत के अधिक करीब होते हैं। मनुष्य ही नहीं मनुष्यतर होते हैं। हास्य गंभीरता का विलोम नहीं, यह तनाव कम करने का और आपसी सहयोग बढ़ाने का सबसे सकारात्मक तरीका है।

अंग्रेजी में एक अभिव्यक्ति है: ‘चियरफुल इडियट’। इसका अर्थ है ऐसा इंसान जो बस हंसता, मुस्कुराता रहे, पर हो दिमाग का पैदल। वास्तव में यह बिल्कुल गलत है। हास्य बोध रखने वाले लोग अधिक समझदार होते हैं। गांधी जी ने 1928 में कहा था कि यदि उनके पास हास्य बोध न होता, तो वह खुदकुशी कर लेते। बुद्ध की प्रतिमाएं देखें, तो उनके चेहरे पर हमेशा आप एक स्मित मुस्कान देखते हैं।

एक प्रज्ञावान इंसान यह अच्छी तरह समझता है कि दुखी होने के लिए स्वार्थी होना जरूरी है। यदि आप दुखी हैं तो किसके लिए, किस कारण से दुखी हैं? अपना कुछ खो जाने की वजह से, अपने लिए कुछ न पाने की वजह से? तो जहाँ दुःख है वहां कोई न कोई स्वार्थ है। दुःख का हमेशा कारण होता है; सुख संभवतः मानव चेतना की स्वाभाविक अवस्था है। उसका कोई कारण नहीं।

रोज़मर्रा का काम काज, नौकरी-पेशा हमें अक्सर तनाव में, दुःख में रखता है। शोधकर्ता बताते हैं कि जब इंसान काम काज छोड़ देता है, रिटायर हो जाता है, तो वह ज्यादा मुस्कुराता है। ठीक वैसे ही जैसे स्कूल जाने से पहले एक बच्चा। दुनिया के संपर्क में आना और दुखी होना जैसे एक दूसरे के पर्याय हों।

हमें एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करना है जिसमें तथाकथित गंभीर शक्ल वाले लोगों का, हास्य बोध से मुक्त लोगों का महिमामंडन न हो। गंभीर होने का अर्थ एक मुस्कराहट विहीन चेहरा बना लेना भर नहीं। गंभीर इंसान ही जीवन की परतों के पीछे छिपे हास्य को समझ सकता है।

टॉलस्टॉय ने बर्नार्ड शॉ को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि आप तो जीवन को मज़ाक समझते हैं। इसके उत्तर में शॉ ने कहा: ‘क्या जीवन सचमुच एक मज़ाक नहीं?’ पर गंभीरता और निराशा, कुंठा, क्रोध की अभिव्यक्ति में फर्क करना ज़रूरी है। चेहरे पर इन सभी के भाव एक तरह से ही व्यक्त होते हैं।

ज़रूरी है कि हास्य बोध को किसी तरह भी, प्रयास कर के भी जीवन में लाया जाए। इन दिनों किसी शहर के किसी पार्क में सुबह पहुँच जाएँ, तो आपको ‘लाफ्टर क्लब’ या हास्य मंडली के कई सदस्य मिलेंगे जो बस जोर जोर से हँसते दिखेंगे। आप उनके हंसने के तरीके पर ही हंस पड़ेंगे। हंसी और मुस्कराहट को लेकर एक तरह की कब्जियत का शिकार हो गए हैं हम।

योग, कसरत, लतीफे, स्टैंड अप कॉमेडी—कई तरह के इसबगोल का उपयोग करना पड़ता है जिससे हंसी बाहर निकल सके। राजू श्रीवास्तव का एक विज्ञापन था: पेट सफा, हर रोग दफा। हंसना वास्तव में मन सफा होने जैसा ही है। राजू श्रीवास्तव और उनकी तरह के लोगों का होना निराश ज़िन्दगी के लिए कीमती है जिन्हें उदासी की शिथिलता को ख़त्म करने के लिए बाहरी स्रोतों से वायग्रा की जरुरत है।

मुंह लटकाए समाज के लिए राजू श्रीवास्तव का यह योगदान है कि वह थोड़ी बहुत फूहड़ता, थोड़ी स्त्री विरोधी बातें करके भी, बगैर वाहियात बने लटके हुए चेहरों पर मुस्कान लाने में कामयाब तो हुए। जहाँ सभी बैठ कर रोते हैं, एक दूसरे को रुलाते हैं, वहां राजू ने लोगों को हंसाने की कामयाब कोशिश की।

(अपने परिवार के साथ राजू)

हालाँकि राजू श्रीवास्तव की मौत एक बीमारी से हुई, पर अनायास रॉबिन विलियम्स की याद आ रही है। हॉलीवुड के मशहूर कमेडियन ने खुदकुशी कर ली थी। सोचता हूँ, सब को हंसाने वाले के जिगर में कितना दर्द भी छिपा होता है। राजू के बारे में तो ऐसी कोई बात सुनने में नहीं आई, पर दुःख दूर करने वाले, हंसाने वाले अक्सर अपने दिलों में दर्द और आंसू भी छिपाए रखते हैं।

जहाँ मैं अभी रहता हूँ, उस मोहल्ले में घर के ठीक पीछे एक बदहाल जिम हुआ करता था। जो उस जिम को चलाते थे, उनमें कोई पेशेवर ट्रेनर के गुण नहीं थे। करीब बारह साल पहले की बात है। उस समय शहर में तलवलकर्स या गोल्ड्स जिम नहीं थे। एक दिन मैंने राजू श्रीवास्तव को उस टुटहे जिम से बाहर निकलते हुए देखा। बस दूर से हाथ हिलाना हुआ। पर बाद में जिम वालों से बात होने पर समझ में यही आया कि एक-दो दिन के लिए भी वह दूसरे शहर जाते हैं, तो जिम जाना नहीं भूलते।

हालाँकि यह एक अलग विषय है, पर राजू श्रीवास्तव की मौत सेहत और उसे ठीक करने के उपायों को लेकर भी सवाल उठाती है। यह जो ‘वर्क आउट’ की धारणा है, जिसके हिसाब से लोगों को तब तक कसरत करनी है, जब तक वे पूरी तरह थक न जाएँ, इस पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। यह आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के तरीकों के बिल्कुल विपरीत है।

राजू की ख़ास बात यह भी थी कि वह पशुओं के आचरण, और यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं में भी हास्य ढूँढ़ लेते थे। भले वह एक गाय हो या विवाह के मौके पर कोई डिनर का आयोजन, या त्योहारों पर जलने बुझने वाले बिजली के बल्ब।

ममता बनर्जी से लेकर लालू यादव और रामदेव का उनकी उपस्थिति में ही मज़ाक उड़ाना उनके हास्यबोध की निर्भीकता दर्शाता था, पर साथ ही संघ परिवार और वर्तमान सरकार से एक दिखावटी दूरी बना कर ही बातें करने का तरीका उनके एक चतुर संघी होने की झलक भी देता था। बहरहाल किसी भी उदास और हास्य बोध खो चुके समाज को राजू श्रीवास्तव का न होना खलता है। हमेशा खलेगा। पल भर के लिए तो हंसा ही देते थे। थोड़ा ही सही, झूठा ही सही।

-चैतन्य नागर

(लेखक पत्रकार और अनुवादक हैं.)

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