कांवड़ यात्रा अब धार्मिक नहीं, बल्कि योजनाबद्ध राजनीतिक कार्यक्रम बन गयी है
कांवड़िये किस तरह से सड़कों पर उपद्रव कर रहे हैं वह चर्चा-ए-आम है। आए दिन मारपीट और हिंसा की घटनाएं सोशल मीडिया पर वायरल हैं। कहीं कांवड़ियों का कोई जत्था ढाबा तोड़ रहा है, तो कहीं कोई दुकान उनके निशाने पर है। कहीं किसी की कार तोड़ी जा रही है, तो कहीं हुड़दंगियों का यह गिरोह सरकारी बस पर ही टूट पड़ा है। आप रोजाना इन दृश्यों से दो-चार हो रहे होंगे। उसके बावजूद न तो उनके ऊपर कोई लाठीचार्ज हो रहा है और न ही कोई पुलिसिया कार्रवाई। उल्टे जगह-जगह पुलिस के अफसरान फूल-मालाओं के साथ उनका स्वागत ज़रूर करते देखे जा रहे हैं। और बहुत हुआ, तो नाराज कांवड़ियों को समझा-बुझा कर मनाने की कोशिश भर हो रही है। इससे ज्यादा पुलिस-प्रशासन की कहीं भूमिका नजर नहीं आ रही है। हरिद्वार के रास्ते की पूरी सड़क को भगवा भेष धारण किए इन गुंडों के हवाले कर दिया गया है।
सड़क के मुसाफिरों को खुद अपनी इज्जत बचाते हुए चलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। कहीं अगर किसी कार चालक की गाड़ी कांवड़ से छू भर गयी, तो पीट-पीट कर उसका दोना बनना तय है। राह चलते यात्री के भूल से भी उलझने का मतलब है उसका लहूलुहान होना। अब इन परिस्थितियों में भला सरकार का रवैया क्या होना चाहिए? इन सारी घटनाओं को होते इतने दिन हो गए, क्या आप ने सूबे के मुख्यमंत्री का कोई बयान सुना है? क्या कोई बड़ा अफसर या फिर नौकरशाह किसी तरह का कोई निर्देश देता दिखा है? सूबे का कोई मंत्री-संत्री या फिर प्रभारी इन घटनाओं पर एतराज जताया है?
खुलेआम कानून और व्यवस्था की इस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, लेकिन इसके खिलाफ कहीं चूं तक नहीं है? चलिए एकबारगी अगर राज्य सरकार फेल कर रही है और वह अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम साबित हो रही है, तो फिर केंद्र क्या कर रहा है? या फिर वह भी अपनी जिम्मेदारी भूल गया है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई सूबा कानून-व्यवस्था से जुड़े किसी मसले पर नाकाम रहता है, तो उसका काम है नोटिस भेजकर उससे जवाब मांगना। लेकिन क्या आपने केंद्र की तरफ से इस तरह की कोई पहल देखी है? कहा तो यहां तक जाता है कि गृहमंत्री अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच छत्तीस का रिश्ता है और दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखना चाहते हैं।
फिर तो अमित शाह के लिए योगी को घेरने का यह अच्छा मौका है। फिर भला वह क्यों नहीं पहल कर रहे हैं और नोटिस भेजकर आदित्यनाथ को नीचा दिखा दे रहे हैं। दरअसल इस मसले पर बीजेपी और उसकी सरकार के बीच ऊपर से लेकर नीचे तक एक तरह की आम सहमति है। और वो कतई इसको गलत नहीं मानते हैं। और अपने तरीके से इन घटनाओं को प्रश्रय देने का काम करते हैं।
अगर इसके पीछे की राजनीति और मकसद को आप नहीं समझ रहे हैं या तो आप बेहद भोले हैं या फिर बीजेपी और आरएसएस के गेम-प्लान से बिल्कुल नावाकिफ। दरअसल बीजेपी-संघ का एकमात्र उद्देश्य पूरे देश को धर्म की चासनी में डुबो देना है। और इस लिहाज से उनके लिए यह सबसे बेहतरीन मौका होता है। धर्म का नशा लोगों के सिर चढ़ कर बोले, बीजेपी और आरएसएस की यह सुबह से लेकर शाम तक कोशिश रहती है। लेकिन कांवड़ियों की इस खास जमात के जरिये बीजेपी कुछ ठोस चीजें हासिल करना चाहती है। उनको समझना हमारे लिए बेहद अहम होगा।

सर्वप्रमुख बात यह है कि वो इसके जरिये देश में हिंदुओं के वर्चस्व के स्थापित होने का संदेश देना चाहते हैं। दूसरे अर्थों में कहा जाए तो वह यह कहना चाहती है कि हिंदू धर्म और उसके भगवाधारी कानून-व्यवस्था से भी ऊपर हैं। किसी तरह के उल्लंघन पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है। इस तरह से समाज में हिंदू धर्म के अनुयायियों की एक प्रिविलेज्ड पोजीशन बनाने और फिर उसे दिखाने की कोशिश है। जबकि दूसरे धर्म चाहे वो मुस्लिम हों या कि ईसाई और यहां तक जैन और बौद्ध, उनका स्थान दोयम ही रहेगा।
मुसलमानों को तो सड़क पर 15 मिनट के लिए नमाज भी पढ़ने की इस देश में इजाजत नहीं है। किस तरह से गुड़गांव से लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में इस पर एतराज जताया जाता रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। ईसाइयों के लिए तो इस तरह से सोचना भी गुनाह है। अभी आपने मुंबई में जैन धर्म के अनुयायियों के जुलूस पर बरसने वाली पुलिस की लाठियों का दृश्य देखा ही होगा। और बौद्धों के मक्का गया को तो उसके अनुयायियों के लिए बचाना भी मुश्किल हो रहा है। उस पर हिंदू धर्म के पंडे कब्जे के लिए आतुर हैं। इस तरह से इन कांवड़ियों के जरिये एक बात का खुला संदेश दिया जा रहा है कि सबसे पहले यह देश हिंदुओं का है। और बाकी का नंबर उसके बाद आता है। और इन्हीं रास्तों से आरएसएस-बीजेपी अपने हिंदू राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं।
इसके जरिये एक दूसरा संदेश जो दिया जा रहा है, वह इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह है देश से लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं का खात्मा। जिस तरह से पूरी राज्य मशीनरी इन गुंडों के सामने नतमस्तक है, उससे क्या वह अपनी पुरानी साख को बनाए रख पाने में सक्षम होगी? कहा जाता है कि शासन इकबाल से चलता है। पुलिस-प्रशासन अगर वही खो देगा, तो शासन चलाने के लिए उसके पास बचेगा क्या? दरअसल आरएसएस का एकमात्र मकसद देश से लोकतंत्र का खात्मा है। उसकी जगह वह उसी पुरानी वर्ण व्यवस्था का पक्षधर है, जिसमें तमाम जातीय श्रेणियां हैं और कथित बड़ी जातियों का कथित छोटी जातियों पर वर्चस्व है। लिहाजा इस लोकतंत्र को खत्म करने के लिए भी उसने एक प्रक्रिया अपनायी है।
चूंकि लोकतंत्र संस्थाओं के सहारे चलता है, इसलिए उसकी पहली कोशिश इन संस्थाओं को खत्म करने की है। इन उपद्रवियों के सामने पुलिस प्रशासन का समर्पण उसी का एक हिस्सा है। वैसे भी हम जानते हैं कि मनुवादी वर्णव्यवस्था को फिर से खड़ा करने की पहली शर्त है मौजूदा व्यवस्था का खात्मा। आरएसएस-बीजेपी उसी काम को कर रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि राजस्थान के एक विधायक थाने में घुसकर थानाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ जाते हैं और थानाध्यक्ष समेत तमाम पुलिसकर्मियों को अपने ही थाने में उनके सामने बैठने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह मौजूदा व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश का हिस्सा है।
यह उनके लिए अपने तरीके से कैडर भर्ती का मौका भी है। जिसमें न केवल उन्हें सहज और सरल तरीके से प्रशिक्षण मिल जा रहा है, जो बल्कि इसके जरिये उनके भीतर के तमाम दूसरे तत्वों को धर्म के जरिये प्रतिस्थापित करने का मौका भी मिल रहा है। इसका असर यह होगा कि जल चढ़ाकर लौटे शख्स के किसी और से ज्यादा बीजेपी-आरएसएस का कैडर बनने की संभावना है। इससे भी ज्यादा उन युवाओं को अपनी भड़ास निकाल देने का मौका साबित हो रहा है, जो न केवल बेरोजगार और कुंठित हैं, बल्कि हर तरीके से दयनीय स्थितियों में रहने के लिए मजबूर हैं। कांवड़ यात्रा उनके लिए सेफ्टीवाल्व का काम कर रही है। नतीजतन यह जल जितना शंकर के पिंड पर नहीं पड़ रहा है, उससे ज्यादा युवकों की खोपड़ी ठंडा करता दिख रहा है।
कहा जाता है कि इन कांवड़ यात्राओं में ज्यादातर दलित और पिछड़े समुदाय के युवा शामिल होते हैं। वैसे भी शंकर के भक्त ज्यादातर इसी तबके से आते हैं। लिहाजा संख्या में उनके ज्यादा रहने की संभावना हमेशा बनी रहती है। बीजेपी-आरएसएस के लिए यह पिछड़े और दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने का सबसे बेहतरीन मौका साबित होता है। और वह भी किसी जातीय और सामाजिक मुद्दे पर नहीं, बल्कि खुद अपने सर्व प्रिय धार्मिक एजेंडे पर। इस कड़ी में दलित-पिछड़े समुदाय उन बच्चों को, जो दूसरी सामाजिक न्याय की पार्टियों के प्रभाव में होते हैं, उनसे तोड़ने का मौका मिल जाता है।
वर्ण व्यवस्था के निचले पायदान पर होने के चलते इस हिस्से में पैदा हुई कुंठा को भी निकलने देने का यह बेहतर मौका साबित होता है। इस धार्मिक कार्यक्रम के जरिये वो कुछ दिनों के लिए ही सही, खुद को सबके बराबर खड़े देखते हैं। बराबर ही नहीं, बल्कि हर तरह से ऊपर दिखते हैं। यहां तक कि इस दौरान सत्ता भी उनके सामने नतमस्तक होती है। हर लिहाज से उनका सीना फूला रहता है। कुल मिलाकर दलित-पिछड़े तबकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गयी है। इस देश में अब विज्ञान और तर्क की बात करना भी गुनाह हो गया है। अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाना सबसे बड़ा अपराध है।

जबकि नागरिक होने की जरूरी शर्त होती है कि वह शख्स विज्ञान में विश्वास करता हो, तार्किक हो और बराबरी और भाईचारे में यकीन करता हो। लेकिन बीजेपी-आरएसएस की डिक्शनरी में ये न केवल उपेक्षित शब्द हैं, बल्कि इनको घृणा की नजर से देखा जाता है। यह अनायास नहीं है कि पूरा संघ और बीजेपी मिलकर संविधान की प्रस्तावना से सेकुलरिज्म और समाजवाद शब्द को निकालने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिए हैं। अंतत: इनका लक्ष्य नागरिकता बोध खत्म करके देश को एक भीड़ में तब्दील कर देना है, जो कहने के लिए हिंदुओं का होगा, लेकिन हकीकत में जाहिलियत उसकी सर्वप्रमुख और सर्वोच्च पहचान होगी।
(लेखक महेंद्र मिश्र ‘जनचौक’ के संपादक हैं।)
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