आदिवासियों के लिये जो लोग बेबाक तरीके से निडर होकर उत्पीड़ित जनता के पक्ष में अपनी बात रखते हैं और उनकी लड़ाईयां लड़ते हैं, ऐसे लोग आज शोषक वर्ग के निशाने पर हैं.
14 जुलाई 2022 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (दंतेवाड़ा) के गांवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जांच के लिये रिट याचिका डाली गई थी। जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द करते हुवे कहा कि “याचिकाकर्ता पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में असमर्थ थे, इसलिए पूरी याचिका में दुर्भावनापूर्ण इरादा है, और यहां तक कि एक आपराधिक साजिश भी हो सकती है।” और याचिकर्ता हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपये का जुर्माना लगाया है।
ये जुर्माना अदा ना कर पाने की स्तिथि में जेल जाना पड़ेगा। साथ ही फैसले में राज्य को सुझाव दिया है कि छत्तीसगढ़ राज्य/सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई कर सकते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 211 को जोड़कर साथ में सीबीआई मावोवदी होने का जाँच भी कर सकती है।
इस पर हिमांशु जी कहते हैं कि “कोर्ट ने मुझसे कहा पांच लाख जुर्माना दो, तुम्हारा जुर्म यह है तुमने आदिवासियों के लिए इंसाफ मांगा। मेरा जवाब है कि “मैं जुर्माना नहीं दूंगा। जुर्माना देने का अर्थ होगा मैं अपनी गलती कबूल कर रहा हूं। मैं दिल की गहराई से मानता हूं कि इंसाफ के लिए आवाज उठाना कोई जुर्म नहीं है। यदि इंसाफ मांगना जुर्म है तो यह जुर्म हम बार-बार करेंगे।”
2009 की घटना इस प्रकार थी
17 सितंबर और 1 अक्टूबर 2009 की दो घटनाओं में दंतेवाड़ा के गच्चनपल्ली, गोम्पाड, नुलकाटोंग और सिंगनमडगु के जंगल और आसपास के अन्य गांवों के 16 आदिवासी लोगों को गोली से मार दिया गया और कई निर्दोष आदिवासियों पर इन हमलों के दौरान जघन्य बर्बरता के साथ प्रताड़ना हुई। मारे गये लोगों में महिलाएं बच्चे और बुजुर्ग लोग थे। एक डेढ़ साल के बच्चे की उंगलियाँ भी काट दी गई थीं। इस हत्याकांड को गोम्पाड नरसंहार के रूप में जाना जाता है। सबसे दिलचस्प बात कि रिट याचिका डालने वाले 12 आदिवासी जो कि पेटिशनर थे, हिमांशु कुमार को छोड़कर सारे के सारे गायब कर दिये जाते हैं। यानी इन 12 याचिकाकर्ता का अपहरण कर लिया जाता है। हिमांशु कुमार को छोड़कर अन्य बारह याचिकाकर्ता गोम्पाड नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्य हैं।
माननीय सर्वोच्य न्यायालय के इस फैसले पर हिमांशु कुमार जी का कहना है कि “मामला झूठा होने का फैसला गलत है। क्योंकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई जांच ही नहीं कराई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मैंने यह मुकदमा माओवादियों की मदद करने के लिए किया है। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट पीड़ित लोगों को न्याय देगा तो उससे माओवादियों को क्या फायदा हो जाएगा? और अगर न्याय ना दिया जाय तथा मुझ जैसे न्याय मांगने वाले व्यक्ति पर ही जुर्माना लगा दिया जाय तो उससे देश का क्या फायदा हो जाएगा? मेरे द्वारा यह कोई अकेला मामला कोर्ट में नहीं ले जाया गया है। मैंने 519 मामले सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं जिनमें पुलिस द्वारा की गई हत्याएं बलात्कार अपहरण और लूट के मामले शामिल हैं।
हिमांशु कुमार जी आगे एक अन्य घटना के बारे में बताते हैं कि “2009 में सिंगारम गाँव में 19 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके पुलिस द्वारा अंधाधुंध गोलियां चलायी जाती है पर किसी पुलिसवाले को नही लगती। पुलिस 25 गोलियां चलाती है, 19 आदिवासी मर जाते है। जिनमें चार लडकियां थीं जिनके साथ पहले बलात्कार किया गया था। इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने अपनी रिपोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ माना है। आदिवासियों से 5 बंदूके बरामद होती है जो सड़ी हुई थी, जिनसे गोली चल ही नही सकती थी और जब कोर्ट में बलात्कार के खिलाफ शिकायत की याचिका डाली जाती है तो बलात्कारी पुलिसवालो को भगोड़ा दिखाया जाता है, जबकि वो रेगुलर सैलरी ले रहे होते हैं। ‘Absconding but on duty’ की हेडलाइंस से अखबार में खबर छपी। फिर उन्ही बलात्कारियो से दोबारा उन्ही लड़कियों का बलात्कार करवाया लगातार 5 दिन थाने में।”
“इसी तरह 2008 में माटवाड़ा में सलवा जुडूम कैम्प में रहने वाले तीन आदिवासियों की पुलिस ने चाकू से आँखें निकाल ली थीं और उन्हें मार कर दफना दिया था और इलज़ाम माओवादियों पर लगा दिया था। उस मामले को लेकर मैं हाई कोर्ट गया और मानवाधिकार आयोग ने इस मामले की जाँच की और स्वीकार किया कि हत्या पुलिस ने की थी इस मामले में थानेदार और दो सिपाही जेल गए। 2012 में सारकेगुडा गाँव में सत्रह आदिवासियों की हत्या सीआरपीएफ ने की। सरकार ने कहा यह लोग माओवादी थे। हम लोगों से गाँव वालों ने मिलकर बताया कि मारे गये लोग निर्दोष थे जिसमें नौ बच्चे थे।
अंत में न्यायिक आयोग की जांच रिपोर्ट में पाया गया कि मारे गये लोग निहत्थे निर्दोष आदिवासी थे। 2013 में एडसमेट्टा गाँव में सात आदिवासियों की पुलिस ने हत्या की। सरकार द्वारा दावा किया गया कि यह लोग माओवादी थे। बाद में न्याययिक आयोग की रिपोर्ट आई कि यह लोग निर्दोष आदिवासी थे। हमारे द्वारा सुरक्षा बलों के सिपाहियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से बलात्कार की शिकायतें दर्ज कराई गई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने जांच की और रिपोर्ट दी कि सोलह आदिवासी महिलाओं के पास प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि उनके साथ सुरक्षा बलों के सिपाहियों ने बलात्कार किये हैं।”
“2011 में सरकार ने मेरी छात्रा और आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को माओवादी कहा और उन पर सात मुकदमें लगा कर उन्हें जेल में डाल दिया। हमने कहा कि सोनी सोरी निर्दोष है। अंत में अदालत ने भी माना कि सोनी सोरी निर्दोष हैं उन्हें सातों मामलों में बरी कर दिया।”
“मेरे द्वारा शिकायत की गई कि छत्तीसगढ़ की जेलों में ऐसी आदिवासी लडकियां बंद हैं जिन्हें पहले पुलिस थाने में बिजली के झटके देकर जलाया गया यौन प्रताड़ना दी गयीं और उसके बाद उन्हें फर्जी मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया गया है। मेरे इस इलज़ाम के समर्थन में महिला उप जेलर वर्षा डोंगरे ने कमेन्ट किया और लिखा कि हिमांशु कुमार बिलकुल सच कह रहे हैं मैं जब बस्तर जेल में पदस्थ थी तो मैंने खुद ऐसी नाबालिग आदिवासी लड़कियों को देखा था जिनके शरीर पर बिजली से जलाए जाने के निशान थे जिसे देख कर मैं काँप गई। इस कमेन्ट के बाद सरकार ने वर्षा डोंगरे को सच बोलने के जुर्म में सस्पेंड कर दिया था, बाद में उन्हें फिर से बहाल किया गया।”
“न्यायालय ने कहा है कि इस मामले में पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली थी और चार्जशीट भी फ़ाइल कर दी थी इसलिए हमें पुलिस की कार्यवाही पर भरोसा करना चाहिए था और सर्वोच्च न्यायालय नहीं आना चाहिए था, लेकिन जो पुलिस हत्या करने वाले गिरोह में शामिल थी उसकी जांच पर पीड़ित कैसे भरोसा कर सकते थे। पीड़ित आदिवासी इसीलिये सुप्रीम कोर्ट आये थे क्योंकि उन्हें पुलिस के खिलाफ ही न्याय चाहिए था। इसलिए उन्होंने मांग करी कि सीबीआई या एसआईटी से जांच कराई जाय क्योंकि पुलिस ही हत्याकांड में शामिल थी।”
“इसके अलावा पीड़ित ग्रामीणों ने पहले दंतेवाडा के पुलिस अधीक्षक को पूरी घटना की शिकायत लिख कर भेजी थी लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं करी। एसपी को भेजे गये इन शिकायती पत्रों की प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई थी। सुप्रीम कोर्ट जानता था कि लोकल पुलिस ने कोई मदद नहीं की थी। कहा गया है कि बारह में से छह आवेदकों ने दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने दिए गये बयान में हमलावरों को ना पहचानने का बयान दिया जबकि पेटीशन में उन्होंने हमलावरों को पुलिस के रूप में बताया था। इस बाबत तथ्य यह है कि इन छह लोगों का पुलिस ने अपहरण किया था ताकि खुद को बचने के लिए फर्जी सबूत गढे जा सकें। इस अपहरण का विडिओ भी हमारे पास मौजूद है जिसे वहाँ मौजूद पत्रकारों ने बनाया था।
अपहरण के बाद अवैध हिरासत में रख कर पुलिस ने इन पीड़ित आदिवासियों को जान से मारने की धमकी देकर बयान दिलवाया। जिसमें आदिवासियों ने कहा कि जंगल से वर्दीधारी लोग आये और उन्होंने हमारे परिवार के सदस्यों की हत्या की। इन लोगों ने यह नहीं कहा कि हिमांशु झूठ बोल रहा है या मुकदमा उन्होंने किसी दबाव में डाला है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह यह जांच करवाता कि हत्यारे कौन थे। आखिर सुप्रीम कोर्ट हत्या में आरोपी पुलिस को बिना जांच के कैसे क्लीन चिट दे सकता है और बिना जांच के हमें कैसे दोषी कह सकता है।”
मेरे ऊपर जुर्माना लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी कायरता और कमजोरी दिखाई है। हमें एक हिम्मतवाला सुप्रीम कोर्ट चाहिए जो भारत के लोकतंत्र की रक्षा कर सके लोगों की जान की हिफाजत कर सके। हम ऐसे सुप्रीम कोर्ट के लिए लगातार लड़ेंगे। मेरी लड़ाई खुद को बचाने की लड़ाई नहीं है। यह भारत की न्याय व्यवस्था को लोकतंत्र को और लोगों के मानव अधिकारों को बचाने की लड़ाई है।
हिमांशु कुमार जी को ये भ्रम है कि ये लोकतंत्र, संविधान और न्यायालय आम जनता के लिये है। इसलिये वो इसको बचाने और न्याय की उम्मीद में न्यायायल का दरवाजा खटखटाते की बात कर रहे हैं। यदि ये जेल/अदालत/सेना/पुलिस/नौकरशाही वाकई में जनता के हितों के लिये बने होते तो भारत के किसी भी प्रदेश के किसी भी थाने में एक गरीब मेहनतकश की सुनवाई क्यूँ नहीं होती? अधिकांश थानेदार फरियाद लिये गए हुवे गरीब को माँ-बहन की गाली देकर थाने से भगा देते हैं।
यदि कोई बलात्कार गरीब पीड़िता महिला फरियाद लेकर जाती है तो उसी थाने उसके साथ दोबारा बलात्कार होता है। ऐसे में भी अक्सर गरीब फरियादी महिलाओं का बलात्कार होता है और साथी हिमांशु जी आप तो आदिवासियों के बीच काम करते हैं वंहा तो पुलिस और सेना जबरन घर में घुसकर बलात्कार करती है। यह बात तो आपको बताने की जरूरत नहीं क्योंकि आपने कई बार पुलिस और सेना के चरित्र को उजागर किया है। आप ने ऊपर एक केस में बताया कि दोबोरा थाने के अन्दर लगातार 5 दिनों तक बलात्कार किया पुलिसवालों ने।
अब बात अदालत की करते हैं तो आप यह बताइये कि कभी किसी गरीब के मुँह से आपने सुना है कि हम तुम्हें अदालत में देख लेंगे। तो फिर ये अदालत में देख लेने की धमकी कौन देता है? जो मँहगी कारों से उतरता है! क्योंकि उसे अच्छी तरह से मालूम है कि न्यायालय में न्याय नहीं मिलता है बल्कि फैसला सुनाया जाता है और वह फैसला अपने हक में करवा लेगा। तभी इतने कांफिडेंस से अदालत में घसीटने की धमकी देता है। आप किसी भी केस को देख लें, जीत उसी की होती है जो सम्पति में सामने वाले से भारी होता है। दो-चार केस दिखाने के लिये और नजीर स्थापित करने के लिये गरीबों के हक में भी फैसले हो जाते हैं और उन्हीं फैसलों को नजीर बनाकर समाज में भारत की न्याय व्यवस्था को प्रचारित किया जाता है, कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं… अदालत में देर से ही सही पर न्याय जरूर मिलता है… ऐसे ढेरों धारणाएं मेहनतकश जनता के दिलो-दिमाग में बैठाई गयी है। ऐसे फैसलों पर ढेर सारी फिल्मे भी बनाई जाती हैं अभी हाल ही में जय भीम फिल्म एक आदिवासी के न्याय के ऊपर बनाई गयी थी और न्यायालय में विश्वास स्थापित करने के लिये। ऐसी कोई भी फिल्म नहीं बनती जो अदालत के चरित्र को उजागर करता हो, फिल्म के आखिर में न्याय मिल ही जाता है। इन फिल्मों का एक ही उद्देश्य ताकि इस न्याय प्रणाली में विश्वास कायम रहे।
वैसे भी देश की बहुसंख्यक मेहनतकश किसी भी व्यक्ति की हैसियत नहीं कि वह अपनी याचिका देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में ले जाये। सुप्रीम कोर्ट तो बहुत दूर की बात उच्च न्यायालय में जाने की उसकी हैसियत नहीं पर हिम्मत कर कंही से कर्जा लेकर, जमीन जायदाद बेचकर चला तो जाता है पर अन्त में खुदको ठगा महसूस करता है। आखिर ये अदालत किसके लिये है? जंहा एक आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर हो। यदि ये सर्वोच्य अदालत भारत के बहुसंख्यक जनता के लिये होती तो उसके लिये सुलभ होती। आप जैसे लोग लाखों की फीस देकर सर्वोच्य न्यायालय चले जाते हैं। यदि उन 12 आदिवासियों को सर्वोच्य न्यायालय में अपनी याचिका डालनी होती और आप ना होते तो क्या वो सर्वोच्य न्यायालय में केस लड़ पाते? लड़ना तो दूर की बात वहां तक पहुंच ही नहीं पाते।
ये कैसा न्यायालय सिस्टम है, जहां कोई भी एक व्यक्ति पर आरोप लगाकर FIR दर्ज करवा दे और उस FIR के बेसिस पर एक आम आदमी को गिरप्तार कर जेल भेज दिया जाता है। गाली और मार अलग से घातू में मिलता है। वही FIR या फिर उससे भी बड़ी धारा एक बड़े आदमी पर लगाकर दर्ज कराने पर उसके साथ विशेष व्यवहार उस पुलिस के द्वारा किया जाता है और अदालत से वह एंटीसेपेट्री बेल यानी अग्रिम जमानत हाई कोर्ट से उसे मिल जाता है। चाहे वह बलात्कार की धारा लगी हो या मर्डर की और सीना चौड़ा कर घूमता है। एक ही धारा के लिये अलग-अलग व्यवहार क्यूँ? अलग-अलग व्यवस्था क्यूँ?
बिना जुर्म साबित हुवे पुलिस उस आम गरीब आदमी को मुजरिम की तरह ट्रीट कर जेल भेज देती है। यदि आखिर में उसे न्याय मिल भी जाये और वह निर्दोष साबित कर बाइज्जत बारी भी हो जाये तो जो दो-चार-दस साल उसने जेल में समय काटा उसका क्या? वह समय क्या उसे वापस मिल सकता है? उसका जिम्मेदार कौन? और गिरप्तारी के दौरान उसकी व उसके परिवार की जो सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची उसका क्या? उसके जेल के दौरान परिवार ने जो सामाज के ताने सहे उसका क्या? और यदि परिवार कमाने वाला वही व्यक्ति हो तो उस परिवार के गुजर-बसर का क्या? इन सबका जिम्मेदार कौन? निर्दोष साबित होने के बाद न्यायालय द्वारा अपनी गलती मानकर माफी से क्या उसको न्याय मिल गया? ऐसा भी नहीं है कि ये मेरी कल्पना है कई लोग निर्दोष साबित होकर बाइज्ज बरी हुए हैं।
न्यायालय का फैसला भी व्यक्ति देख कर होता है। कोर्ट की अवमानना के लिये वकील प्रशांत भूषण को 1 रुपये का जुर्माना, भगोड़ा विजय माल्या को 2000 रुपये का जुर्माना और आप यानी हिमांशु कुमार को 500000 का जुर्माना! और ये भी इसलिये कि आपने न्याय मंगा! न्याय मांगने का इतना बड़ा जुर्माना! आम आदमी तो हिम्मत नहीं करेगा जुर्माना सुनकर।
सेना का चरित्र भी पुलिसिया जैसा ही है। जब मेहनतकश जनता से जमीन छीननी होती है या मेहनतकश जनता अपने हक-हूकूक के लिये कोई प्रदर्शन कर अपना आक्रोश प्रदर्शित कर रही होती है तो इसी सेना को लगाकर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन किया जाता है। जनता को मालिक बताया जाता है और सरकारी, कर्मचारी, अधिकारी सब जनता के नौकर हैं तो यही सेना वाला नौकर अपने मालिक को आकर पीटता क्यों है जरूरत पड़ने पर गोली भी चलाता है और जंहा भारतीय सेना को AFSPA जैसे विशेष कानून का दर्जा मिला हो वंहा तो सारे मानवता को अपने पैरों तले रौंद डालता है।
ये जेल/अदालत/थाना/सेना/पुलिस/नौकरशाही लोकतंत्र के वर्किंग स्ट्रक्चर हैं। एक्चुअली राजसत्ता के दो स्ट्रक्चर होते हैं। एक कार्यकारी ढ़ाँचा (Working Structure) और दूसरा नियंत्रणकारी ढ़ाँचा (Governing Structure)। इन्हीं दोनों से राज्य राजसत्ता को गवर्न यानी संचालित होती है।
कार्यकारी ढाँचा यानी वर्किंग स्ट्रक्चर जिसका चुनाव ही नहीं होता। इस वर्किंग स्ट्रक्चर के मुख्यतः पाँच अंग होते हैं- जेल, अदालत, सेना, पुलिस और नौकरशाही। इनके लिये चुनाव नहीं होता है बल्कि इसमें केवल भर्तियाँ होती हैं। जो जितना धनवान होता है वह उतना ही उच्च पद पर पहुँच जाता है। यहां आपको मेरी बात गलत लग रही होगी क्योंकि चाहे छोटा पद हो या बड़ा सब पर कोई भी तैयारी कर यदि योग्य है तो उस उच्च पद को प्राप्त हो सकता है। ऐसा हमें बताया गया है और हमें लगता भी है तो चलिये आज इसको कसौटी पर कसते हैं।
आप व्यावहारिक रूप में देखें कि कितने गरीब लोग, जाति नहीं गरीब, एआईएस/पीसीएस और न्यायालयों में जज हैं? विशेषकर सर्वोच्य न्यायायल और उच्च न्यायालय में? क्या गरीबों के अन्दर योग्यता नहीं होती कि वो सर्वोच्य न्यायालय का न्यायाधीश बन सके। या भारत के मुख्य न्यायाधीश (चीफ जस्टिस आफ इंडिया) बनने की किसी भी गरीब में कोई योग्यता नहीं होती? भारत के इतिहास में आज तक एक भी गरीब व्यक्ति भारत का मुख्य न्यायाधीश क्योँ नहीं बना? अब यहां पर आप कॉलेजियम सिस्टम को दोष देंगे। तो आखिर इस सिस्टम ने कॉलेजियम को क्यूँ अपनाया या क्यूँ मान्यता दी कॉलेजियम को, जिससे कोई गरीब आदमी नहीं पहुँच सकता। जहां बस जज का बेटा ही जज बन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश तो बहुत बड़ी बात हो गयी। सुप्रीम कोर्ट का वकील भी एक गरीब का बेटा नहीं बन सकता। कोई मनाही नहीं है, पर सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि वह वहां तक पहुँच ही नहीं सकता यदि पहुँच भी गया तो टिक नहीं पाएगा।
इसी तरह बाकी के उच्च पदों पर भी कुछेक अपवादों को छोड़कर भूमिहीन किसान का बेटा तो चपरासी भी नहीं बन पायेगा, गरीब किसान का बेटा भी नहीं। मध्यम किसान का बेटा बड़ी मशक्कत के बाद, कहीं चपरासी या छोटा-मोटा क्लर्क बन पाता है या पुलिस वगैरह में भर्ती हो जाता है। धनी किसान का बेटा क्लर्क से लेकर कुछ इससे बड़े पदों पर पहुँच जाते हैं जो आई०ए०एस०/आई०पी०एस० स्तर की बड़ी नौकरियाँ हैं, उनमें अधिकांश महत्वपूर्ण पदों पर सौ-दौ सौ एकड़ जमीन वाले सामन्तों के लड़के ही भर्ती हो पाते हैं। आरक्षण के द्वारा कुछ सीमित पदों पर शुरुआत में कुछ गरीब व भूमिहीन किसानों के लड़कों की भर्ती हो गयी, वो भी दिखावे के लिए ताकी इस सिस्टम पर भरोसा कायम रहे और जनता विद्रोह ना कर दे। मगर अब जो सम्पन्न हैं वही लोग ही आरक्षण का लाभ उठा पा रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि राजसत्ता के वर्किंग स्ट्रक्चर में बहुसंख्यक मेहनतकश जनता घुस ही नहीं पायेगी। अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का लोग घुसाये गए तो अपने वर्ग के हित में कोई अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। सिर्फ अपना छोटा-मोटा व्यक्तिगत हित भले साध लें। वे अपना वर्ग हित नहीं साध सकते बल्कि शासक वर्ग में ही शामिल हो जाते हैं और वे लोग भी अपना वर्ग हित भूलकर पुरी ईमानदारी के साथ अपने वर्ग से गद्दारी कर शोषक वर्ग का काम करते हैं। वो भी शोषकों के साथ मिलकर मेहनतकश जनता का शोषण करना शुरू कर देते हैं।
राजसत्ता का दूसरा स्ट्रक्चर नियंत्रणकारी ढाँचा यानी गर्निग स्ट्रक्चर होता है। इसी गवर्निंग स्ट्रक्चर को राजसत्ता की असली चाभी बताया जाता है। और अम्बेडकर को कोटकर बताया जाता है कि बाबा साहेब ने कहा था कि “राजसत्ता वह चाभी है जिसे हर ताला खोला जा सकता है।” इसके नाम पर चुनाव होता है। अधिकांश पीड़ित लोग चुनाव में भाग लेते हैं। सोचते हैं कि चुनाव के द्वारा उन्हें राजसत्ता की चाभी मिल जायेगी और वे अपने विकास के दरवाजे उस चाभी से खोलेंगे। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि वर्किंग स्ट्रक्चर के रूप में राजसत्ता का जो स्थायी ढाँचा है जिसमें जेल, अदालत, सेना, पुलिस, नौकरशाही आदि सम्मिलित है, उसका चुनाव नहीं होता है। उसमें सिर्फ भर्ती होती है उस भर्ती में सारे महत्वपूर्ण पदों पर अधिकांश पैसे वाले लोग ही भर्ती हो पाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर दिखाने के लिये। जैसे हाथी के दांत खाने के और होते हैं और दिखाने के और।
यदि हाथी का खाने वाला दाँत आपको नहीं दिखा तो कुछ प्रश्नों पर गौर करिये-
1-“कौन व्यक्ति कहाँ से चुनाव लड़ेगा, क्या यह जनता तय करती है? या कोई और?”
2- “कौन व्यक्ति मुख्यमंत्री का उम्मीदवार होगा? क्या यह जनता तय करती है? या कोई और?”
3- “कौन व्यक्ति प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होगा? क्या यह जनता तय करती है? या कोई और?”
4- “कौन व्यक्ति अपने चुनाव में कितना धन खर्च करेगा? क्या यह जनता तय करती है? या कोई और? “
निश्चित रूप से यह सब जनता नहीं तय करती, यह सब कुछ पूंजीपति वर्ग और उनकी पार्टियों ही तय करती है। इससे यह सिद्ध होता है कि राजसत्ता की चाभी कहीं और है।
तो फिर सवाल उठता है कि असली गवर्निंग स्ट्रक्चर (राजसत्ता की चाभी) कहाँ है? इसको और आसानी से समझने के लिये गवर्निंग स्ट्रक्चर को दो भागों में डिवाईड कर लेते हैं। पहला दिखावटी गवर्निंग स्ट्रक्चर (संसद व विधान सभायें तथा राज्यसभा व विधान परिषदें)। और दूसरा वास्तविक गवर्निंग स्ट्रक्चर (कारखानों, बैंकों व बड़ी जमीनों का मालिकाना…)। इन कारखानों, बैंकों व बड़ी जमीनों… का मालिक कौन होगा इसका चुनाव नहीं होता और यही मालिक सब तय करता है कि देश की नीतियां क्या होंगी? देश का नियम, कानून संविधान कैसा होगा? और किसके हित का होगा?
प्रधानमंत्री का पद भी एक पद है जैसे किसी स्कूल के प्रिंसिपल/मैनेजर का एक पद होता है और वह मालिक के पूछे बिना कोई बड़ा डिसीजन नहीं लेता उसी प्रकार यह प्रधानमंत्री का भी मात्र एक पद है और असल मालिक जनता नहीं यही कारखानों, बैंकों व बड़ी जमीनों… के मालिक ही होते हैं। इस पूँजीवादी लोकतंत्र में दिखावटी गवर्निंग स्ट्रक्चर अर्थात संसद व विधान सभाओं का चुनाव तो होता है परन्तु चुनाव में धनवान लोग ही जीत पाते हैं। इक्का-दुक्का गरीब आदमी तभी चुनाव जीत पाता है जब उसके सर पर अमीर लोग अपना हाथ रख देते हैं। आम जनता कोई बुनियादी फैसला नहीं करती वह सिर्फ वोट देती है। भोली-भाली जनता को अक्सर यह घमण्ड हो जाता है कि “जनता जिसे वोट देती है वही चुनाव जीतता है, अतः जनता ही निर्णायक शक्ति है।” निश्चित ही यह जनता का भ्रम है और इस भ्रम को बनाये रखने के लिये ये शासक वर्ग हर चुनाव में पूँजी पानी की तरह बहाता है।
इस भ्रम को समझने के लिये एक 2008 का वास्तविक उदाहरण लेते हैं नीरा राडिया टेप काण्ड का। (यह टेप कांड आप गूगल पर भी खोज सकते हैं) नीरा राडिया टेप काण्ड का खुलासा हुआ तो यह बात जनता के सामने आ गयी कि बड़े पूँजीपति लोग अपने चाटुकारों, दलालों एवं वफादार पालतू नेताओं को मंत्री आदि बनाकर उनको महत्वपूर्ण विभाग दिलवाया करते रहे हैं। कौन प्रधानमंत्री बनेगा? किसको कौन सा विभाग मिलेगा? किसको कहाँ से संसद या विधानसभा का चुनाव लड़वाना है? किसको हराना व किसको जिताना है? सब कुछ पूँजीपति वर्ग ही तय करता है। आप चुनावों में देख लीजिये कि जिसके सर पर पूंजीपतियों का हाथ रहता है यानी जिधर कालेधन की भूमिका ज्यादा होती है वही चुनाव जीतता है और वही पार्टी भी चुनाव जीतती है। जब तक भाजपा के सर पर पूंजीपतियों का हाथ रहेगा, आप एड़ी से चोटी तक जोर लगा लीजिये भाजपा को नहीं हरा सकते।
अमेरिकी खुफिया विभाग के एक बड़े अधिकारी स्नोडेन ने 2013 में तमाम खुफिया जानकारियों को लीक कर दिया जिससे पूरी दुनिया के लोगों को यह जानकारी हुई कि अमेरिका सभी कमजोर देशों में अपने वफादार नेताओं को राजसत्ता के अहम पदों पर बैठाता है। भारत में होने वाले संसद या विधानसभा के चुनावों में छिये तौर पर अमेरिका जबरदस्त दखल देता है।
अब जहां तक संविधान की बात है तो कोई भी देश का राजा या प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति अपने वर्ग हितों के लिये नियम/कानून/संविधान बनाएगा या अपने विपरीत वर्ग दुश्मन के हितों के लिये? निश्चित ही अपने वर्गों के हितों के लिये। भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में दो वर्ग हैं। तो हम सब वर्गिये समाज में जी रहें हैं और जब तक ये वर्ग रहेगा तो आपस में संघर्ष होगा क्योंकि दोनों वर्गों के हित एक दूसरे के हितों को प्रभावित करेगा। दिनों के हित एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं। तो शासक वर्ग अपने दुश्मन वर्ग शोषित वर्ग के हितों के अनुरूप तो नियम/कानून/संविधान नहीं बनायेगा। हमको लगता है कि ये संविधान मेहनतकश जनता के हितों के लिये बनाया गया है और लगता इसलिये है कि हमने संविधान को पढ़ा नहीं सिर्फ सुना है और यदि पढ़ भी रहें हैं तो इतने कठिन शब्दों का भ्रम जाल है कि वो हामरे पल्ले ही नहीं पड़ता। यदि हम संविधान में दिये गये अनुच्छेदों को पढ़कर व्याख्या करेंगे तो निश्चित ही शासक वर्ग द्वारा बनाया गया भ्रम जाल टूट जायेगा।
नीचे संविधान की कुछ झलकियां दे रहा हूँ। जरा पढ़कर स्वयं सोचें कि यह संविधान क्या वाकई मेहनतकश जनता के हितों के लिये बनाया गया है।
(1) अनुच्छेद-19- 1(क) बोलने की आजादी देता है जबकि 1951 में पहला संविधान संशोधन करके अनुच्छेद19- 1(ख)- जोड़कर आन्तरिक सुरक्षा को खतरा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गयी।
(2) अनुच्छेद. 25- बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत आदि को हिन्दू धर्म का अंग मानता है। जब कि ये अन्य धर्म हैं।
(3) अनुच्छेद. 290(।) केरल राज्य प्रतिवर्ष 46 लाख 50 हजार तथा तमिलनाडु राज्य 13 लाख 50 हजार प्रतिवर्ष हिन्दू मंदिरों के लिए देवस्थानम् निधि को देने के लिये बाध्य है। जब कि अनुच्छेद. 36 से 51 तक लिखे नीति निर्देशक तत्वों में निहित जनपक्षधर प्रावधानों को लागू करने के लिये सरकारों को बाध्य नहीं किया गया। सरकार चाहे तो करे, चाहे तो न करें।
पर जब जनता के मौलिक अधिकार की बात आती है तो राज्य की नियत पर छोड़ दिया जाता है कि राज्य ऐसा करेगा और उसके लिये आप राज्य को अदालत में भी नहीं घसीट सकते कि राज्य ने क्यों नहीं किया। अनुच्छेद 37 ऐसा ही निर्देश देता है।
(4) अनुच्छेद. 363 भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के हितों का संरक्षण करता है।
(5) अनुच्छेद. 14 में सिर्फ विधि के समक्ष समता की बात की गयी है। पूरे संविधान में आर्थिक समानता के लिए कोई प्रावधान नहीं है।
(6) अनुच्छेद. 372- जाति एवं वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने को मजबूर करता है। हम-आप जाति खत्म करना चाहते हैं पर संविधान बनाये रखना चाहता है।
पूरे संविधान में कहीं भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई जिक्र तक नहीं है। इसके बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 99% जनता के लिए निरर्थक है। उद्देश्यिका में भी फ्रीडम नहीं लिबर्टी शब्द है, वह भी सिर्फ पूजापाठ की। जबकि हमारे लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में फ्रीडम यानी स्वतंत्रता जरूरी थी।
अंग्रेजों के समय भी और आजादी के बाद से आज भी बस्तर के जंगलों में नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे युद्ध लगातार जारी है, जिससे आये दिन निर्दोष आदिवासियों को नक्सली बता बर्बरतापूर्ण पिटाई की जाती है, उनकी बहू और बेटियों के साथ भारतीय सैनिक बलात्कार तक कर डालते हैं, जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने पर गोलियां तक चलाने से नहीं चूकते हैं और गोली मारने के बाद उन बेकसूर आदिवासियों को नक्सली कपड़ा पहना मीडिया के सामने मुठभेड़ बता पेश करते हैं।
केन्द्र और राज्य में चाहे जिसकी सरकार हो दोनों मिलकर आदिवासियों पर दमन करते हैं। चाहे भाजपा-कांग्रेस हों या अन्य पार्टी की सरकार हों दोनों मिलकर आदिवासियों का उत्पीड़न करते हैं।
आदिवासियों के लिये जो लोग बेबाक तरीके से निडर होकर उत्पीड़ित जनता के पक्ष में अपनी बात रखते हैं और उनकी लड़ाइयां भी लड़ते हैं, ऐसे लोग शोषक वर्ग के निशाने पर हैं। आप गरीबों के लिए लड़ रहे हैं तो आप का भी नंबर आयेगा और जो लोग तटस्थता का ढोंग करके चुप रहकर दमन को बढ़ावा दे रहे हैं, शोषक वर्ग की राजसत्ता उनका भी दमन करेगी।
रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में-
समय शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा, उनका भी अपराध।।
-अजय असुर
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा
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