बांदा (पब्लिक फोरम)। देश में बढ़ती तानाशाही और नव-फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध लेखक और संस्कृतिकर्मी अपने संघर्ष को और तेज़ करेंगे। इस दृढ़ संकल्प और आह्वान के साथ जनवादी लेखक संघ (जलेस) का तीन दिवसीय 11वां राष्ट्रीय सम्मेलन 21 सितंबर 2025 को सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। बांदा के बड़ोखर खुर्द गाँव स्थित ‘प्रेम सिंह की बगिया’ सभागार में आयोजित इस सम्मेलन में देश के विभिन्न राज्यों से आए हिंदी और उर्दू के लगभग 250 लेखकों और बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया।
सम्मेलन का उद्घाटन प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, कवि एवं फिल्मकार गौहर रज़ा ने किया। अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने शब्दों की शक्ति और लेखक की सामाजिक ज़िम्मेदारी पर ज़ोर देते हुए कहा, “हम लेखक हैं, तो हर शब्द की अपनी एक ज़िम्मेदारी है। दुनिया भर के लेखकों ने इसे निभाया है। शब्दों की ताक़त से सरकारें काँप जाती हैं। साहित्य विचारों की टकराहट की एक यात्रा है, जिसमें समानता का द्वंद्व निहित है।”
जनवादी लेखक संघ ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि हाल ही में गौहर रज़ा को आईआईटी बीएचयू में संघ परिवार से जुड़े संगठनों द्वारा ‘देशद्रोही’ कहकर उनका संबोधन रुकवा दिया गया था। जलेस ने इसे ‘अघोषित आपातकाल’ का प्रतीक बताया, जहाँ बोलने पर पाबंदी है और लेखक समुदाय को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना होगा।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता चंचल चौहान, रेखा अवस्थी और इब्बार रब्बी के अध्यक्ष मंडल ने की, जबकि संचालन महासचिव संजीव कुमार ने किया। इस अवसर पर जन संस्कृति मंच के महासचिव मनोज कुमार सिंह और प्रगतिशील लेखक संघ के खान अहमद फारुख ने भी अपनी शुभकामनाएँ दीं। विशिष्ट वक्ता के रूप में पूर्व सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाषिनी अली ने कहा, “हमने शब्दों की ज़िम्मेदारी पूरी तरह नहीं निभाई। विचारों को व्यक्त करने की आज़ादी हमारे सरोकारों और संस्कारों की पहचान है। समानता हमारी सबसे कीमती धरोहर और ज़रूरत है।”
सम्मेलन के तीनों दिन वैचारिक सत्रों और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से जीवंत रहे। पहले दिन स्थानीय कलाकारों ने नौटंकी का मंचन किया, तो समापन समारोह में बुंदेलखंड के प्रसिद्ध ‘देवारी’ नृत्य ने समां बाँध दिया। कवि-सम्मेलन की शुरुआत कवि केदारनाथ अग्रवाल की कालजयी कविता ‘बसंती हवा’ पर आधारित कथक नृत्य से हुई। इसके अतिरिक्त, ‘अघोषित आपातकाल के हमले और प्रतिरोध’ तथा ‘सरोकार का सिनेमा’ जैसे गंभीर विषयों पर विचारोत्तेजक सत्र आयोजित किए गए।
संगठनात्मक सत्र में तत्कालीन महासचिव संजीव कुमार ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें देश में संविधान, नागरिक अधिकारों, वैज्ञानिक सोच और गंगा-जमुनी तहज़ीब पर हो रहे हमलों का विस्तृत विश्लेषण किया गया। चर्चा के बाद रिपोर्ट को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। सम्मेलन में 11 महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित किए गए, जिनमें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले, पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायीकरण, नई शिक्षा नीति, दलित उत्पीड़न और मज़दूर विरोधी लेबर कोड के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गई।
सम्मेलन के अंत में संगठन के नए पदाधिकारियों का चुनाव किया गया। सर्वसम्मति से चंचल चौहान को अध्यक्ष और नलिन रंजन सिंह को नया महासचिव चुना गया। राजेश जोशी और संजीव कुमार को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। इसके साथ ही एक विस्तृत केंद्रीय कार्यकारिणी और परिषद का भी गठन किया गया, जिसमें देश के सभी हिस्सों के लेखकों को प्रतिनिधित्व मिला। छत्तीसगढ़ से भी 25 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की।
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