“मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण बंद हो!”
शिकागो के अमर शहीदों के संघर्ष और त्याग के कारण, हम मेहनतकश एवं सर्वहारा वर्ग को आठ घंटे काम का अधिकार प्राप्त हुआ। लेकिन आज उसी अधिकार पर हमले हो रहे हैं। इसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हम सभी पर है।
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस की शुरुआत 1 मई 1886 को अमेरिका में हुई थी, जब मज़दूर यूनियनों ने 8 घंटे से अधिक काम के खिलाफ हड़ताल की थी। मज़दूरों पर गोलीबारी हुई, लेकिन वे नहीं झुके। खून से लथपथ लाल कपड़े को लहराते हुए, ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए वे अपनी आखिरी सांस तक लड़े। उसी खून से लाल झंडा मज़दूर क्रांति का प्रतीक बना।
आज भारत और विश्व के अन्य देशों में 8 घंटे काम का कानून लागू है। अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलन, समाजवादी, साम्यवादी, जागरूक जनवादी एवं प्रगतिशील श्रमिक संगठन पूरी दुनिया के मज़दूरों की एकजुटता के साथ, उन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए एक समृद्ध, शांतिपूर्ण एवं सुंदर दुनिया के निर्माण का संकल्प लेते हैं।
2025 का मई दिवस विशेष महत्व रखता है।
भारत में बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी, गरीबी आजादी के बाद के इतिहास में चरम पर है। अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। लोकतंत्र, संविधान, इतिहास, संस्कृति, वैज्ञानिक चेतना और सभ्यता पर आक्रमण हो रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम, राष्ट्रीय संस्थान, राष्ट्रीय संपदा को निजी पूंजीपतियों को कौड़ियों में बेचा जा रहा है। भारत की एकता, अखंडता, सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारा और प्राचीन संस्कृति को नुकसान पहुंचाने के षड्यंत्र हो रहे हैं।
जब सभी धर्मग्रंथ, ऋषि-मुनि, महात्मा, सूफी संत, फकीर “प्रेम, अहिंसा, परहित” का संदेश देते रहे हैं, तो फिर हिंसा, नफरत, घृणा क्यों? इंसानियत के ऊपर सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है। इंसानियत को बचाने की जरूरत है।
गरीबों और अमीरों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।
देश की 90% संपदा पर महज 01% का कब्जा है। जब तक भूखा इंसान है, धरती पर तूफान बना रहेगा। ऐसे समय में प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
विश्वास का संकट और राजनीति की विफलता:
राजनेताओं से विश्वास उठता जा रहा है। वादों की जगह जुमलेबाजी आ गई है। मजदूर, किसान, सर्वहारा अपने हाल पर छोड़े गए हैं। महिला सशक्तिकरण के सवाल अधूरे हैं। लोकसभा में 33% महिला आरक्षण विधेयक पर मौन और महिलाओं पर बढ़ती हिंसा चिंता का विषय है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, कला, संस्कृति, रिश्ते, मनुष्य — सब कुछ बाजार के हवाले है। देश की संपदा बेची जा रही है। कलम के नुकीले सिरे को तोड़ा जा रहा है। कला, सिनेमा, नाटक, साहित्य, इतिहास की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध है। चारों ओर नफरत, हिंसा, द्वेष, सांप्रदायिकता का जहर फैल रहा है।
ऐसे समय में ट्रेड यूनियन और समाज के हर वर्ग की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। अब सिर्फ 8 घंटे काम का अधिकार बचाने का सवाल नहीं, बल्कि इंसानियत, संस्कृति, सभ्यता, संविधान, लोकतंत्र और देश को बचाने का सवाल है।

इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस एक मई को हम सबके लिए एक संकल्प का दिन है। हम सब मिलकर एक समृद्ध, शांतिपूर्ण, खुशहाल, सद्भाव वाली दुनिया के निर्माण का संकल्प लें। “दुनिया के मज़दूर एक हो!” – यही हमारा पैगाम है। इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।
(लेखक गणेश कछवाहा, रायगढ़, ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेता हैं।)
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