गुरूवार, नवम्बर 21, 2024
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देश में, नौकरशाही के रास्ते यदि सेना भी गयी, तो फिर बचेगा क्या?

देश की फिक्र करने वालों की, चिंता बढाने वाली खबरों का महीना रहा जून

मध्यप्रदेश के सतना जिले की एक तस्वीर सामने आयी, जिसमे जिले का कलेक्टर और नगर निगम का कमिश्नर आर एस एस के एक कार्यक्रम में भाग लेते हुए और संघ के ध्वज को प्रणाम करने की मुद्रा में दिखाई दिये। राजस्थान के उदयपुर की एक अन्य खबर में संघ की रैली में मध्यप्रदेश की जिला अदालत के एक जज भाषण देते हुए नजर आये। इसके पहले मध्यप्रदेश के ही एक आई ए एस अधिकारी बाकायदा भाजपा के कार्यक्रम में न सिर्फ शामिल हुए थे, बल्कि “अबकी बार फिर भाजपा सरकार” थीम पर भाषण भी देते हुए पाए गए थे। अपनी तमाम सीमाओं और कमजोरियों के बावजूद यह भारत की नौकरशाही की अब तक की निम्नता से भी ज्यादा चिंताजनक नीचाई थी। यह राजनीति और राजनीतिक संगठनों से अलग रहने, अलग दिखने की सारी सीमाओं को लांघ दिया जाना था।

भारत के संविधान ने विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका का स्पष्ट विभाजन करते हुए उनकी जो मर्यादाएं तय की हैं, उनका साफ़-साफ़ उल्लंघन था। यह अचानक नहीं हुआ है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने प्रदेश की नौकरशाही को भ्रष्टाचार में हिस्सेदार और सह-अपराधी पहले से ही बनाया हुआ था, कर्मचारियों और अधिकारियों को आर एस एस की शाखा में हिस्सा लेने की छूट देकर उसने उन्हें अपनी राजनीतिक वफादारी दिखाने की एक पतली गली और मुहैया करा दी। उदारीकरण के दौर के बाद से भारत की नौकरशाही का “शिक्षित” होने के लिए आईएमएफ, विश्व बैंक में रिफ्रेशर कोर्स के लिए जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था — वह अब संघ जैसे घोषित साम्प्रदायिक संगठन के साथ खुली संबद्धता दिखाने तक जा पहुंचा है। आजादी की 75वीं साल में देश का इस स्थिति में पहुँच जाना चिंता की बात है।

यह अनायास नहीं हुआ है। इसके पीछे एक योजनाबद्ध तैयारी है। एक कोई ‘संकल्प फाउंडेशन’ नामक संस्था है, जिसने दावा किया है कि 2020 की सिविल सेवा परीक्षा में उसकी कोचिंग की सफलता दर 61% रही है। संकल्प फाउंडेशन आरएसएस से घनिष्ठ संबंध रखने वाला संस्थान है। उसका दावा है कि इस साल सिविल सेवाओं में प्रवेश के लिए संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा चुने गए 759 उम्मीदवारों में से 466 ने संकल्प के साक्षात्कार मार्गदर्शन कार्यक्रम में भाग लिया था। फाउंडेशन की स्थापना के पीछे के विचार को स्पष्ट करते हुए इससे जुड़े आर एस एस नेतृत्व का कहना था कि “नौकरशाही पर जेएनयू और ऐसी अन्य जगहों से आए लोगों का दबदबा खत्म करने और जब भाजपा को एक मजबूत राजनीतिक ताकत बनाने के लिए एक राजनीतिक आंदोलन चल रहा था, तब नौकरशाही में भी “राष्ट्रवादी” विचार के लोगों को लाने तथा जो यूपीएससी को क्रैक करना चाहते हैं, ऐसे आरएसएस स्वयंसेवकों और समर्थकों के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता को पूरा करने के लिय यह और ऐसे अन्य संस्थान खड़े किये गए।” उनके मुताबिक़ इन संस्थानों में जो पढ़ाया जाता है, उसमे संघ के विचार प्रमुख होते हैं। कथित प्रगतिशीलता का कभी महिमामंडन नहीं किया जाता है, अनुच्छेद 370 को हटाने का महत्व सिखाया जाता है, समान नागरिक संहिता की बात समझाई जाती है।” इस तरह की विचारधारा से पालित पोषित नौकरशाही संविधान के प्रति कितनी समर्पित होगी, यह समझा जा सकता है।

इससे भी कहीं ज्यादा चिंताजनक समाचार कश्मीर से आया, जहां की दो मस्जिदों में घुसकर न सिर्फ सेना ने “जै श्रीराम” के नारे लगाए, बल्कि मस्जिदों के अजान देने वाले लाउडस्पीकर्स से इस तरह के नारे लगवाए भी। यह घटना – जिसके बारे में कहा जाता है कि बाद में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने संबंधित मस्जिदों से जुड़े लोगों से मुलाक़ात कर खेद जताया है और संबंधित मेजर को उस इलाके से हटाने की बात की है – भारत की सेना के बीच साम्प्रदायिकता के विषाक्त वायरस के संक्रमण की भयावहता का उदाहरण है। आजादी की 75वीं साल में सिर्फ सेना और कुछ हद तक न्यायपालिका ही बचे थे,6 जिन की निष्पक्षता पर देश की ज्यादातर जनता विश्वास करती थी/है। अगर वह भी इस वायरस का शिकार हो गयी, तो उसके बाद बचेगा क्या, इसकी कल्पना तक करना सिहरन पैदा कर देता है।

यह सब अपने आप नहीं हो रहा है। यह पिछले कुछ वर्षों से लगातार पैदा किये जा रहे, उकसाए जा रहे उन्माद का परिणाम है। यह सत्ता के सारे अंगों के साम्प्रदायिकीकरण की राज्य प्रायोजित मुहिमों का नतीजा है, जिसने अब सेना को भी अपने असर में लेना शुरू कर दिया है। पहले सिर्फ उत्तर प्रदेश की पी ए सी अपनी पूर्वाग्रही पक्षधरता के लिए जानी जाती थी – अब सेना में भी इस तरह के रुझान दिखने लगे हैं। खुद सत्ता प्रतिष्ठान इस तरह की हरकतों को प्रोत्साहित और संरक्षित करता है और इस तरह उनका हौसला बढाता है। इसमें सारी लोक लाज और सेना के कानूनों प्रावधानों को धता बता कर इस तरह के गलत और आपराधिक कामों को उच्चतम स्तर से प्रोत्साहित किया जाता है, वर्ष 2017 की कश्मीर की ऐसी एक घटना इसकी मिसाल है। यहाँ एक सैन्य अधिकारी लीथल गोगोई द्वारा बड़गाम में एक युवक को जीप के बोनट से बांधकर घुमाया गया। इसका वीडियो वायरल होने के बाद देश और दुनिया में इसकी आलोचना हुयी। घटना इतनी आपत्तिजनक थी कि खुद मिलिट्री ने संबंधित अधिकारी का कोर्ट मार्शल शुरू किया है। मगर इस कोर्ट मार्शल के बीच ही तबके सैन्य प्रमुख विपिन रावत ने इस अधिकारी को “प्रशंसा पत्र” सौंप कर सत्ता प्रतिष्ठान की दिशा और इरादे साफ़ कर दिए थे।

यह प्रायोजित उन्माद और उससे भड़कने वाली उग्रता सिर्फ एक समुदाय तक सीमित नहीं रहने वाली है। मणिपुर इसका जलता सुलगता उदाहरण है। 03 मई से जारी हिंसा अब तक रुकने का नाम नहीं ले रही है। इस हिंसा में अब तक 130 से अधिक लोगों की मौत दर्ज की चुकी है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 419 लोग घायल हुए हैं। 65,000 से अधिक लोग अपना घर छोड़ चुके हैं। आगजनी की 05 हजार से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। यह स्थिति तब है, जब कुल जमा 30 लाख की आबादी वाले इस प्रदेश में इसके अपने पुलिस अमले के अलावा 36 हजार सुरक्षाकर्मी और 40 आईपीएस अधिकारी अलग से तैनात किए गए हैं। कुकी आदिवासी समुदाय के विरुद्ध सरकार संरक्षित इस हिंसा की प्रतिक्रिया अब पड़ोसी प्रदेशों और उनमे बसे आदिवासी समुदायों में भी दिखने लगी है। पहले से ही संवेदनशील रहा उत्तर-पूर्व लगभग उबाल पर है। मेघालय और मिजोरम की सीमाओं पर एक-दो गाँवों के क्षेत्राधिकार को लेकर उनकी पुलिस वाहिनियों के बीच गोलीबारी तक की घटनाएं घट चुकी हैं। ऐसे में मणिपुर में ध्रुवीकरण के लिए भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें जो खतरनाक खेल खेल रही हैं — उसके नतीजे क्या होंगे, इसे जिन्हें उत्तर-पूर्व के इतिहास का ज़रा भी ज्ञान है, वे समझ सकते हैं।

सोच समझ कर पनपाये गए हिंदुत्वी उन्माद से उपजी उग्रता ही है, जो – इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक़्त – सीधी के एक आदिवासी युवक के साथ भाजपा विधायक प्रतिनिधि द्वारा किये गए घिनौने बर्ताब की वीडियो और उसके किये को सही साबित करने के संघी आई टी सैल के अभियान के रूप में सामने आयी है। उत्तरप्रदेश की किसी एसडीएम युवती द्वारा अपने निजी जीवन के बारे में लिए गए फैसले को लेकर उसके और उसके बहाने भारत की सारी महिलाओं और उनके मुश्किल से हासिल अधिकारों के विरुद्ध उन्मादी कुप्रचार के रूप में भड़काई जा रही है।
कुल मिलाकर यह कि यह लम्हा फ़िक्र का लम्हा है। हिंदुत्व की ताकतों ने जिस तरह के अंधेरों की बंद गुफाएं खोली हैं, जिस तरह की विषाक्त हवाओं और अपशकुनी ताकतों को छुट्टा छोड़ा है, वे समाज के हर हिस्से को अपने पाश में जकड़ रही हैं। टूटन, दरकन का सिलसिला तेज कर रही हैं। पूरे तंत्र को अपनी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश कर रही हैं। आजादी की 75वें वर्ष में सबसे बड़ी चुनौती इन्हें थामने और उसके लिए लोक की अधिकतम संभव शक्ति जुटाने और उसे मैदान में उतारने की है।
-बादल सरोज

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)
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