जातीय चेतना से वर्गीय चेतना तक: बहुजन आंदोलन की राह
जातीय चेतना के नाम पर केवल दिखावे और विभाजनकारी स्टंट से शासक वर्ग बनने का सपना साकार नहीं हो सकता। यही वजह है कि हमारे महान नेताओं और समाज सुधारकों ने जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई और बहुजनवाद की नींव रखी।
महात्मा बुद्ध ने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” का संदेश देकर समाज में बहुसंख्यक वर्ग के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह संदेश केवल सामाजिक उत्थान का ही नहीं, बल्कि समानता और न्याय की आधारशिला था।
ज्योतिबा फूले ने यह स्पष्ट किया कि शूद्र और अतिशूद्र इस देश के मूल निवासी हैं, जबकि “सेठ जी और भट्ट जी” बाहर से आए हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान के माध्यम से 6743 जातियों को एकजुट कर अनुच्छेद 16(4) के तहत सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को संवैधानिक पहचान दी। यह बहुजनवाद की सैद्धांतिक पुष्टि थी, जिसने वंचित वर्गों को अधिकारों की नई राह दिखाई।
रामस्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद जैसे नेताओं ने नब्बे प्रतिशत वंचित समाज को प्रेरित करने के लिए संघर्ष का आह्वान किया। उन्होंने नारे दिए:-
“दस का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा।”
“धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है।”
बिरसा मुंडा ने “अबुआ दीशुम, अबुआ राज” का नारा देकर आदिवासी समाज को जागरूक किया।
जातिवाद से वर्गीय चेतना की ओर
डॉ. अंबेडकर ने चेताया था कि जातिवाद समाज को टुकड़ों में बांटता है और प्रत्येक जाति को अल्पसंख्यक बना देता है। जब हर जाति अल्पसंख्यक है, तो देश में राज केवल सबसे ताकतवर अल्पसंख्यक का ही होगा। इसलिए जातीय चेतना से उबरकर वर्गीय चेतना अपनाना जरूरी है।
जातिवाद के आधार पर राजनीतिक दुकानदारी तो संभव है, लेकिन इससे सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। बामसेफ, फूले-अंबेडकर विचारधारा और मूलनिवासी बहुजन पहचान के जरिए समाज को एकजुट करने का प्रयास कर रहा है। संविधानवाद और लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखते हुए यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है।
इस परिवर्तनकारी प्रक्रिया में समाज के हर वर्ग के सहयोग की आवश्यकता है। जब तक बहुजन पहचान और वर्गीय चेतना को सशक्त नहीं किया जाएगा, तब तक देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव संभव नहीं होगा। (आलेख: योगेश साहू)
Recent Comments